भारत में नारीवाद: समाज और युवा पीढ़ी पर प्रभाव

Jitendra Kumar Sinha
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भारत में नारीवाद एक महत्वपूर्ण आंदोलन रहा है, जिसने महिलाओं को उनके अधिकारों और स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया है। इस आंदोलन ने महिलाओं को शिक्षा, नौकरी और कानूनी सुरक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का अवसर दिया है। लेकिन जैसे-जैसे नारीवाद ने प्रगति की, इसके कुछ पहलू ऐसे भी सामने आए जो समाज और युवा पीढ़ी पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। आधुनिक नारीवाद का एक नया रूप विकसित हो रहा है, जो कभी-कभी अपने मूल उद्देश्य से भटकता हुआ प्रतीत होता है।


पारंपरिक भारतीय समाज में परिवार को सबसे महत्वपूर्ण इकाई माना जाता है। माता-पिता, भाई-बहन और रिश्तेदारों के बीच गहरा संबंध समाज की नींव होते हैं। लेकिन आधुनिक नारीवाद ने विवाह और परिवार की संस्था को एक बोझ के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया है। कई नारीवादी विचार विवाह को "ग़ुलामी" और परिवार को "पितृसत्ता का साधन" मानते हैं, जिससे युवा पीढ़ी में विवाह और पारिवारिक जीवन के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण विकसित हो रहा है। इस सोच का परिणाम यह हुआ कि रिश्तों में दरारें बढ़ने लगीं और परिवार विघटित होने लगे।


इसके अलावा, आधुनिक नारीवाद ने पुरुषों के प्रति कट्टरता और नफरत को भी बढ़ावा दिया है। पारंपरिक नारीवाद समानता की बात करता था, लेकिन आज के समय में कुछ नारीवादी गुटों द्वारा पुरुषों को हीन और अत्याचारी दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। "Toxic Masculinity" जैसी अवधारणाओं के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि हर पुरुष महिला के लिए एक खतरा है। इससे समाज में महिलाओं और पुरुषों के बीच अविश्वास बढ़ रहा है, जिससे पारिवारिक और सामाजिक संतुलन प्रभावित हो रहा है।


कानूनी दृष्टि से भी नारीवाद के कुछ प्रभाव चिंताजनक हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए सख्त कानूनों का कुछ मामलों में दुरुपयोग किया जाने लगा है। दहेज विरोधी कानून (IPC 498A) और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न कानून (POSH) का कुछ महिलाओं द्वारा गलत इस्तेमाल किया जाता है, जिससे कई निर्दोष पुरुष झूठे आरोपों में फंस जाते हैं। ऐसे मामलों में उनके करियर, परिवार और मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता है। यह प्रवृत्ति न्याय प्रणाली के दुरुपयोग को दर्शाती है और समाज में असंतुलन पैदा कर रही है।


इसके साथ ही, नारीवाद के नाम पर भारतीय सांस्कृतिक और नैतिक मूल्यों को भी प्रभावित किया जा रहा है। भारतीय समाज पारिवारिक मूल्यों और नैतिकता पर आधारित है, लेकिन कुछ नारीवादी विचारधाराएँ पश्चिमी संस्कृति को बढ़ावा देती हैं, जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है, भले ही इससे पारिवारिक और सामाजिक ढांचे को नुकसान पहुँचे। इसका परिणाम यह हो रहा है कि युवा पीढ़ी भ्रमित हो रही है और समाज में अस्थिरता बढ़ रही है।


हालाँकि, यह कहना गलत होगा कि नारीवाद ने केवल नकारात्मक प्रभाव ही डाले हैं। इस आंदोलन ने महिलाओं को सशक्त बनाया है, उनके अधिकारों को सुनिश्चित किया है, और उन्हें समान अवसर दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन जब यह आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है और पुरुषों के प्रति विद्वेष और पारिवारिक मूल्यों के प्रति अवमानना को बढ़ावा देता है, तो यह समाज के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।


इसलिए, यह आवश्यक है कि भारत में नारीवाद का एक संतुलित दृष्टिकोण अपनाया जाए, जहाँ महिलाओं को समान अधिकार और अवसर मिले, लेकिन साथ ही परिवार, समाज और नैतिक मूल्यों का भी सम्मान किया जाए। समानता और सद्भाव ही एक मजबूत और प्रगतिशील समाज की नींव है, और इसे बनाए रखना हम सभी की ज़िम्मेदारी है।

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