अमरीका का आतंक के खिलाफ जंग या दोहरा रवैया?

Jitendra Kumar Sinha
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आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक स्तर पर सबसे मुखर देशों में माने जाने वाले अमरीका की छवि एक बार फिर विवादों में है। आतंकवाद के खात्मे के संकल्प के साथ सत्ता में लौटे डोनाल्ड ट्रंप की सरकार की एक हालिया नियुक्ति ने दुनियाभर में सवालों का तूफान खड़ा हो गया है। 

पत्रकार लॉरा लूमर के खुलासे के अनुसार, ट्रंप प्रशासन के तहत बनाए गए एक धार्मिक स्वतंत्रता आयोग में ऐसे दो व्यक्तियों को शामिल किया गया है, जिनका सीधा संबंध इस्लामी आतंकी संगठनों से रहा है। इनमें से एक, इस्माइल रॉयर, न केवल लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा रहा है, बल्कि वह जम्मू-कश्मीर की आतंकी गतिविधियों में भी संलिप्त था।

लॉरा लूमर, जो खुद ट्रंप समर्थक रही हैं, ने सोशल मीडिया और अपने शोध के माध्यम से यह सनसनीखेज खुलासा किया है कि दो पूर्व जिहादी, इस्माइल रॉयर और शेख हमजा यूसुफ को वाइट हाउस के धार्मिक स्वतंत्रता सलाहकार बोर्ड में शामिल किया गया है। लूमर ने दावा किया है कि इन दोनों का अतीत अमेरिका सरकार की वेबसाइट पर दर्ज है और इन पर आतंकवादी गतिविधियों से जुड़ने, उन्हें समर्थन देने, हथियारों और विस्फोटकों के प्रशिक्षण देने के गंभीर आरोप हैं।

इस्माइल रॉयर का असली नाम रान्डेल टोड रॉयर था। उसने 1992 में इस्लाम अपनाया और इसके बाद उसने इस्माइल नाम रखा। उसने पाकिस्तान में लश्कर-ए-तैयबा के ट्रेनिंग कैंप में ट्रेनिंग ली और जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में भाग लिया। 2003 में उस पर अल-कायदा और लश्कर-ए-तैयबा को सहायता देने के आरोप लगे। 2004 में उसने खतरनाक हथियारों और विस्फोटकों के इस्तेमाल में मदद करने के अपराध को स्वीकार किया और 20 साल की सजा हुई। हालांकि, 13 साल बाद उसे रिहा कर दिया गया। उसकी रिहाई के बाद वह धार्मिक स्वतंत्रता और शांति की बात करने वाले संगठनों से जुड़ गया। मिडिल ईस्ट फोरम के साथ एक बातचीत में रॉयर ने 2023 के इंटरव्यू में खुलासा किया था कि उसे लश्कर-ए-तैयबा पसंद था, क्योंकि उसका रुख सऊदी इमामों की ओर झुका हुआ था। उसने बताया कि उसने मस्जिदों में युवाओं को कश्मीर जाकर लश्कर के कैंप में ट्रेनिंग लेने को प्रेरित किया।

कैलिफोर्निया के जैतुना कॉलेज के सह-संस्थापक शेख हमजा यूसुफ को अमेरिका में इस्लामी अध्ययन के क्षेत्र में एक प्रमुख व्यक्ति माना जाता है। लेकिन इसके पीछे कई विवादित कड़ियाँ हैं। शेख हमजा यूसुफ पर इस्लामिक जिहादियों, हमास और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे प्रतिबंधित संगठनों से संबंध होने के आरोप लगे हैं। 9/11 से दो दिन पहले उन्होंने एक ऐसे फंडरेजर इवेंट में भाषण दिया, जो जमील अल-अमीन के लिए आयोजित था। जमील पर एक पुलिस अधिकारी की हत्या का मुकदमा चल रहा था।

आज शेख हमजा यूसुफ बर्कले स्थित सेंटर फॉर इस्लामिक स्टडीज के सलाहकार हैं। वे धार्मिक स्वतंत्रता और संवाद को बढ़ावा देने की बातें करते हैं, लेकिन उनका अतीत आज भी संदेह और आलोचना की नजरों में है।

वाइट हाउस के अनुसार, इस्माइल रॉयर अब 'इस्लाम एंड रिलीजियस फ्रीडम एक्शन टीम' के डायरेक्टर हैं। उन्होंने विभिन्न संगठनों के साथ मिलकर धार्मिक सहिष्णुता और संवाद को बढ़ावा दिया है। वहीं, शेख हमजा यूसुफ को भी धार्मिक मामलों में सलाहकार के रूप में नियुक्त किया गया है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि क्या कभी आतंकवाद में लिप्त रह चुके लोग वाकई बदल सकते हैं? और अगर बदल भी गए हैं, तो क्या उन्हें अमेरिका जैसे राष्ट्र की नीतियों में भागीदार बनाना सही है?

अमरीका एक ओर आतंकवाद के खिलाफ सख्त रुख अपनाने की बात करता है और दूसरी ओर पूर्व जिहादियों को सलाहकार बोर्ड में शामिल करता है। क्या यह आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई के लिए एक गंभीर विडंबना नहीं है? ट्रंप प्रशासन का यह कदम अमेरिका की साख पर सवाल खड़ा करता है। खासतौर पर भारत जैसे देशों के लिए, जो जम्मू-कश्मीर में लश्कर-ए-तैयबा की सक्रियता का सबसे बड़ा शिकार रहा है, यह नियुक्ति न केवल असंवेदनशील है, बल्कि नैतिक रूप से अस्वीकार्य भी है।

भारत के लिए यह खुलासा चिंताजनक है। लश्कर-ए-तैयबा को भारत में सैकड़ों निर्दोषों की हत्या के लिए जिम्मेदार माना जाता है। ऐसे में एक ऐसा व्यक्ति जो कभी कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में शामिल रहा हो, अगर उसे अमेरिका में नीति निर्माण की भूमिका दी जा रही है, तो यह भारत-अमेरिका सहयोग के लिए खतरे की घंटी हो सकती है।

अब सवाल सिर्फ नीतिगत नहीं कहा जा सकता है बल्कि नैतिकता का भी है। क्या आतंकियों को पुनर्वास देकर सत्ता के निकट लाया जा सकता है? क्या अमेरिका की विदेश नीति अब सिर्फ राजनीतिक लाभ और रणनीति पर आधारित है?

इस नियुक्ति पर अमेरिका में ही तीखी आलोचना हो रही है। कई रिपब्लिकन और डेमोक्रेट सांसदों ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा बताया है। लॉरा लूमर के साथ कई नागरिक संगठनों और मीडिया समूहों ने भी वाइट हाउस से जवाब मांगा है।

यह पहली बार नहीं है कि जब अमेरिका ने पूर्व जिहादियों को मुख्यधारा में शामिल किया हो। पहले भी तालिबान से समझौता, ग्वांतानामो बंदियों की रिहाई, और मुस्लिम ब्रदरहुड से बातचीत जैसे कई उदाहरण सामने आ चुका हैं, जो अमेरिका की 'दोहरी नीति' की ओर इशारा करता हैं। जबकि यह तर्क दिया जा सकता है कि पूर्व आतंकी भी बदल सकते हैं और मुख्यधारा में लौट सकते हैं, लेकिन सत्ता के इतने नजदीक आना और नीति निर्माण में शामिल होना, यह गंभीर सुरक्षा खतरा उत्पन्न कर सकता है। दुनिया ने कई बार देखा है कि कैसे पुनर्वासित आतंकी दोबारा हिंसा की ओर लौटता हैं।

ट्रंप प्रशासन का यह कदम ना केवल अमेरिका के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चेतावनी है। आतंकियों को पुनर्वास देने और उनके 'बदले हुए रूप' को गले लगाने का यह रवैया नैतिक, कूटनीतिक और रणनीतिक रूप से आत्मघाती हो सकता है। आतंक के खिलाफ लड़ाई में दोहरा रवैया ना केवल इस लड़ाई को कमजोर करता है, बल्कि भविष्य के खतरों को भी आमंत्रित करता है। जब आतंकियों को सलाहकार बना दिया जाए, तो सवाल सिर्फ सुरक्षा का नहीं, लोकतंत्र की आत्मा का होता है। ट्रंप प्रशासन की यह नियुक्ति हमें याद दिलाती है कि किसी भी राष्ट्र की नीति में पारदर्शिता, जवाबदेही और नैतिकता का स्थान हमेशा सर्वोपरि होना चाहिए। नहीं तो यह दुनिया शांति की ओर नहीं, विनाश की ओर अग्रसर होगी।

यह एक वैश्विक खतरे की चेतावनी है। चाहे वह अमेरिका हो, भारत हो या कोई और अन्य देश।  आतंकवाद के खिलाफ समझौता करना आत्मघाती ही साबित हो सकता है।

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