प्रत्येक वर्ष 1 मई को अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है। दुनिया भर में श्रमिकों के योगदान को लेकर भाषणों, रैलियों और सेमिनारों का आयोजन किया जाता हैं। अब प्रश्न उठता है कि क्या मजदूर दिवस मनाने से मजदूरों की ज़िन्दगी में कोई बदलाव आता या आया है? क्या उनकी कठिनाइयों, पलायन की मजबूरी और न्यूनतम मजदूरी की मांग को कोई स्थायी समाधान मिलता है या मिला है?
देश में आर्थिक विकास की बातें होती हैं, लेकिन मजदूरों की स्थिति आज भी दयनीय है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस की शुरुआत 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर से हुई थी, जब 8 घंटे काम के अधिकार के लिए श्रमिकों ने हड़ताल की थी। यह संघर्ष बाद में पूरे विश्व में एक प्रतीक बन गया। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस "सम्मानजनक काम, न्यायोचित मजदूरी और श्रमिक अधिकार" के लिए मनाया जाता है, लेकिन लगता है कि यह अधिकार सिर्फ किताबों और कानूनों तक सीमित रह गया है।
बिहार राज्य शिक्षा, संस्कृति और राजनीति में कभी अग्रणी रहा है। लेकिन आज यह देश के सबसे अधिक मजदूर पलायन करने वाले राज्यों में गिना जाता है। आंकड़े बताते हैं कि 2021 तक लगभग 3 करोड़ मजदूर बिहार से देश के अलग-अलग राज्यों में श्रम कर रहे थे। मुझे लगता है कि मजदूर पलायन के मुख्य कारण कृषि पर निर्भरता और घटता उपज, औद्योगिक विकास की कमी, स्थानीय स्तर पर रोजगार का अभाव, भ्रष्टाचार और योजनाओं की विफलता है।
बिहार के मजदूरों को जो मजदूरी मिलती है वह केवल न्यूनतम जीवन जीने भर की होती है। इसके पीछे कई कारण हो सकता हैं, जैसे - काम की अनिश्चितता, बिचौलियों और ठेकेदारों द्वारा शोषण, श्रम कानूनों का क्रियान्वयन नहीं होना, यूनियन की अनुपस्थिति या प्रभावहीनता। इन सभी कारणों से मजदूरी सही मायने में मजबूरी बन जाती है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) का उद्देश्य है कि ग्रामीणों को 100 दिन का रोजगार स्थानीय स्तर पर दिया जाए, ताकि पलायन रोका जा सके। लेकिन यह योजना भी कई जगहों पर अपने उद्देश्य में विफल दिख रहा है। मुझे लगता है कि विफलता कारण कार्य स्वीकृति में देरी होना, भुगतान में महीनों की देरी लगना, पंचायत और अधिकारी वर्ग में भ्रष्टाचार होना और महिलाओं एव वृद्धों के लिए अनुपयुक्त कार्य रहना, हो सकता है।
महिला मजदूरों की स्थिति और भी गंभीर दिखता है। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं को कम मजदूरी मिलती है, शौचालय और मातृत्व जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभी भी अभाव है, और यौन शोषण जैसी समस्याओं का भी उन्हें सामना करना पड़ता है। यह कोई नहीं महसूस करता होगा कि कई महिलाएं मजदूर खेतों में काम करने के साथ-साथ घर की जिम्मेदारी भी उठाती हैं। मनरेगा में उन्हें भी बराबर काम करना पड़ता है, लेकिन मजदूरी में भेदभाव रहता है। निर्माण स्थलों पर उन्हें सुरक्षा साधन भी नहीं दिए जाते। इन सभी कारणों से महिला मजदूरों का जीवन लगातार असुरक्षित और तनावपूर्ण रहता है।
मजदूरों का पलायन केवल आर्थिक नहीं होता है बल्कि सामाजिक भी होता है। गाँवों से युवाओं का पलायन होने से खेती-बाड़ी का काम प्रभावित होता है। महिलाएँ घर और खेत दोनों संभालती हैं, जिससे उनके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है। बच्चे शिक्षा और मार्गदर्शन से वंचित हो जाते हैं। शहरों में यह मजदूर झुग्गियों में रहते हैं, जहाँ न साफ पानी रहता है, और न ही स्वास्थ्य सेवाएँ होती हैं। इस अस्थायी जीवन की अस्थिरता न केवल मजदूरों के लिए, बल्कि पूरे समाज के लिए एक दीर्घकालिक समस्या बनी हुई है।
देश में श्रमिकों की सुरक्षा के लिए कई कानून बने हुए हैं, जैसे - श्रमिक भविष्य निधि अधिनियम, न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, औद्योगिक विवाद अधिनियम, बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि अधिकतर श्रमिक असंगठित क्षेत्र में रहते हैं, जहाँ इन कानूनों का पालन नहीं होता है। मजदूरों को न तो न्यूनतम मजदूरी सही ढंग से मिलती है और न ही सामाजिक सुरक्षा। महिला मजदूरों के लिए शौचालय, मातृत्व अवकाश, क्रेच जैसी सुविधाएँ से भी वंचित रह जाते है।
बंधुआ मजदूरी को भारत के संविधान में गैरकानूनी घोषित किया गया है, लेकिन आज भी देखा जाय तो देश के कई हिस्सों में यह प्रथा बदस्तूर जारी है, चाहे कारण जो भी हो। अक्सर सुना जाता है कि मजदूरों को कर्ज के बदले, पीढ़ियों तक बंधक बनाकर रखा जाता है। सिर्फ खाने या नाममात्र की मजदूरी पर काम कराया जाता है। कहीं कहीं तो, मारपीट, धमकी और सामाजिक बहिष्कार का सामना भी करना पड़ता है। यह एक सभ्य समाज के लिए शर्मनाक स्थिति है।
यह कहा जा सकता है कि अब समय आ गया है, मजदूरों की समस्याओं को एक दिन की रस्म अदायगी से हटाकर नीतिगत प्राथमिकता बनाया जाए। इसके लिए स्थायी रोजगार सृजन के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में लघु एव मध्यम उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए, न्यूनतम मजदूरी कानून का सख्ती से पालन करते हुए हर राज्य में एक समान और न्यायोचित मजदूरी तय किया जाना चाहिए, श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के तहत भविष्य निधि, स्वास्थ्य बीमा और पेंशन की अनिवार्यता की जानी चाहिए, महिला श्रमिकों के लिए विशेष योजनाएँ के अंतर्गत सुरक्षा, समान वेतन और मातृत्व सुविधा सुनिश्चित होना चाहिए, प्रवासी श्रमिकों के लिए डेटाबेस और राहत तंत्र तैयार होना चाहिए ताकि आपातकाल में उन्हें सहायता मिल सके, शिक्षा और कौशल विकास के तहत मजदूरों को बेहतर रोजगार के अवसर मिलना चाहिए।
देखा जाय तो मजदूर कोई श्रेणी नहीं है, बल्कि मजदूर देश की रीढ़ है। वह राष्ट्र निर्माण की नींव रखता है। अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस तभी सार्थक होगा जब हम मजदूरों को, मजबूरी से मुक्त कर, उनको अधिकार, सम्मान और सुरक्षा प्रदान करें।