कांग्रेस पार्टी एक बार फिर से चौराहे पर खड़ी है, जहां उसे तय करना है कि आगे की राह कौन सी होगी। अहमदाबाद में हाल ही में संपन्न हुए दो दिवसीय कांग्रेस अधिवेशन में यह स्पष्ट हो गया कि पार्टी के भीतर दो प्रमुख विचारधाराएं उभर रही हैं। एक ओर, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे के नेतृत्व में भाजपा और आरएसएस के खिलाफ टकराव की राजनीति जारी रखने का विचार है। दूसरी ओर, केरल से सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शशि थरूर ने एक नई दिशा का सुझाव दिया है, जिसमें सकारात्मकता और समाधान-आधारित राजनीति पर जोर दिया गया है।
थरूर का मानना है कि पार्टी को केवल अतीत पर नहीं, बल्कि भविष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। उन्होंने कहा, "एक पार्टी के तौर पर हमें भविष्य की ओर देखना है, सिर्फ अतीत की ओर नहीं। एक ऐसी पार्टी जिसका दृष्टिकोण सकारात्मक हो, न कि मात्र नकारात्मकता भरी हो। एक ऐसी पार्टी जो समाधान बता सके, न कि सिर्फ नारेबाजी करती रह जाए।
थरूर के ये विचार इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उन्होंने गुजरात की धरती पर यह बात कही, जो महात्मा गांधी और सरदार पटेल की भूमि है। दिलचस्प बात यह है कि जब पटेल को भाजपा ने सियासी तौर पर भुनाने में कोई कमी नहीं रख छोड़ी है, तो कांग्रेस को भी अब उस ओर देखने की आवश्यकता महसूस होने लगी है। थरूर के अनुसार, "हमें पहले जो वोट मिले हैं, उसे बनाए रखने की आवश्यकता है, लेकिन हम पिछले तीन चुनाव जीतने में नाकाम रहे हैं और यह संकल्प हमें उसी की ओर ले जाता है। यह एक ऐसा संकल्प है, जिसमें सकारात्मक आलोचना के लिए जगह है, सिर्फ नकारात्मकता तक सीमित रहने के लिए नहीं।"
इसके विपरीत, खड़गे और राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस भाजपा और संघ पर हमला जारी रखने के लिए नए वक्फ कानून को अपना हथियार बनाना चाह रही है और इसे कथित रूप से धार्मिक स्वतंत्रता और संविधान के खिलाफ बताने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस का आरोप है कि कथित तौर पर मुसलमानों को निशाना बनाने के बाद आरएसएस और भाजपा ईसाई, सिख और अन्य अल्पसंख्यकों को भी टारगेट करेंगे।
अब सवाल यह उठता है कि कांग्रेस किस राह को चुनेगी? क्या वह टकराव की राजनीति जारी रखेगी या थरूर के सुझाए गए सकारात्मक और समाधान-आधारित मार्ग पर चलेगी? यह निर्णय पार्टी के भविष्य और उसकी पुनर्स्थापना के लिए महत्वपूर्ण होगा।
