कैसे बिहार ने बख्तियार खिलजी को बना दिया नायक

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार, जो एक समय में ज्ञान और संस्कृति का प्रतीक था, अब एक ऐसे राज्य के रूप में उभर चुका है जहां इतिहास को न केवल फिर से लिखा जाता है, बल्कि उसे फिर से रंगा भी जाता है। और इस रंग-रोगन का सबसे बेहतरीन उदाहरण है बख्तियार खिलजी, जिसे बिहार ने नायक बना दिया, उस व्यक्ति को जिसे इतिहास में एक आक्रमणकारी और नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालय को जलाने वाले के रूप में जाना जाता है। लेकिन यह कहानी कुछ अलग है—बिहार सरकार और उनकी इतिहास लेखन की कला के बारे में।


बिहार में इतिहास का पुनर्लेखन

अब, आप सोच रहे होंगे कि बख्तियार खिलजी ने नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय जलाकर कितनी बडी गलती की। हजारों वर्षों का ज्ञान और संस्कृति—सभी जलकर राख हो गए। लेकिन लगता है कि बिहार सरकार को यह सब भूल जाने में कोई समस्या नहीं है। उन्हें शायद लगता है कि जो कुछ भी पुराने दिनों में हुआ था, उसे नजरअंदाज कर देना ही बेहतर है। दरअसल, शायद उन्हें यह भी नहीं पता कि ये पुस्तकालय जलाए जाने से कितना ऐतिहासिक नुकसान हुआ था। खैर, ये कोई समस्या नहीं है, क्योंकि अब बख्तियार खिलजी का नाम बिहार में एक नायक के रूप में लिया जा रहा है!


बख्तियार खिलजी के "विकास कार्य"

बख्तियार खिलजी ने बिहार को न केवल सैन्य दृष्टि से "सशक्त" किया, बल्कि यहां के प्रशासन को भी एक नई दिशा दी। जी हां, ठीक सुना आपने—वह एक "शक्तिशाली शासक" था जिसने प्रशासन में सुधार किया! और अगर आप यह सोच रहे हैं कि वह प्रशासन सुधारने के दौरान कुछ और नहीं कर सका, तो वह नालंदा के पुस्तकालय को जलाकर दिखा गया। फिर उसे बिहार में एक विकासात्मक नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया। जाहिर है, जब आप ऐतिहासिक धरोहर को आग के हवाले कर दें, तो शायद किसी राज्य में कोई ठोस सुधार करने का मतलब यही होता है—"जला दो और फिर नया निर्माण करो।"


यहाँ, बिहार सरकार को शायद यह भी याद नहीं आया कि बख्तियार खिलजी के 'विकास कार्य' ने एक संस्कृति और ज्ञान का नुकसान किया, लेकिन क्या फर्क पड़ता है? "विकास" तो सिर्फ नाम में है, और इस राज्य में तो हर चीज़ को नाम देकर ही उसे नायक बना दिया जाता है।


बिहार सरकार की सिखाई गई 'इतिहास' की पाठशाला

आखिरकार, बिहार सरकार ने जो किया वह तो असाधारण था। क्यों न इतिहास के उन सभी पहलुओं को फिर से लिखा जाए, जिनसे समस्या पैदा हो सकती थी? और क्यों न बख्तियार खिलजी को बिहार के "नायक" के रूप में पेश किया जाए, जब सरकार खुद उसी रास्ते पर चल रही हो? कभी भी सही और गलत का फर्क समझने की कोशिश नहीं की जाती, क्योंकि अगर हम सबको नायक बना सकते हैं, तो क्या फर्क पड़ता है कि उसने नालंदा को जलाया या राज्य के विकास के लिए कुछ और किया!


बिहार सरकार, जो अपने इतिहास के तथ्यों को 'स्मार्ट' तरीके से बदलने में माहिर है, शायद यह भूल जाती है कि इतिहास का सम्मान करने से ही किसी समाज का विकास होता है। लेकिन क्या हम सच में उम्मीद कर सकते हैं कि वह ऐतिहासिक धरोहर को बचाने की बात करेंगे, जबकि वे खुद तथ्यों को इस तरह से प्रस्तुत करते हैं कि लोग खुद ही उन्हें नायक मानने लगे?


नायक या विध्वंसक?

बख्तियार खिलजी का इतिहास, जैसा कि बिहार सरकार ने प्रस्तुत किया है, निश्चित रूप से किसी भी नायक के रूप में याद किया जाएगा। लेकिन जब हम सही से विचार करते हैं, तो यह सवाल उठता है: क्या एक शासक का "विकास" यह होता है कि वह ज्ञान के मंदिर को आग के हवाले कर दे? बिहार की सरकार शायद इसे "आवश्यक कदम" मानती है, लेकिन हम सब जानते हैं कि क्या हुआ था। नालंदा के पुस्तकालय का जलना सिर्फ ज्ञान की हानि नहीं थी, बल्कि यह एक संस्कृति का भी अंतिम संस्कार था, जिसे बिहार के लोग अब नायक के रूप में देखकर खुश हैं।


नालंदा पुस्तकालय का विध्वंस और बख्तियार खिलजी का नायक बनना—यह सब बिहार की सरकार के इतिहास के पुनर्लेखन की कला का एक बेहतरीन उदाहरण है। अब सवाल यह उठता है कि अगर कोई ग़लत काम करें, तो क्या उसे नायक बना दिया जाए? बिहार की सरकार शायद यही समझती है, और यही उनकी 'विकास' की परिभाषा है। जब तक कुछ नया नाम और चमक मिल जाए, तब तक कोई फर्क नहीं पड़ता कि जो कुछ भी हुआ, वह सही था या नहीं।

ऐसा लगता है कि बिहार की राजनीति ने इतिहास को और भी ज्यादा "रंगीन" बना दिया है—नायक बनाने के लिए, जरूरी नहीं कि तथ्य सही हों, बस एक अच्छा आर्किटेक्चर और जादू की छड़ी चाहिए।

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