ऑपरेशन सिंदूर के बाद “ब्रह्मोस” बना युद्ध का ब्रह्मास्त्र

Jitendra Kumar Sinha
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“ब्रह्मोस” नाम अब सिर्फ एक मिसाइल नहीं रहा, बल्कि भारत की सामरिक शक्ति का प्रतीक बन गया है। ऑपरेशन ‘सिंदूर’ की सफलता के बाद इस क्रूज मिसाइल को वैश्विक चर्चा में ला खड़ा किया है। पहली बार किसी सक्रिय सैन्य अभियान में “ब्रह्मोस” के प्रभावी प्रयोग की खबरें सामने आने के बाद कई देशों ने इसकी खरीद में रुचि दिखाना शुरू किया है। 

ऑपरेशन 'सिंदूर' एक सीमित लेकिन अत्यंत सटीक सैन्य अभियान था, जिसका उद्देश्य पाकिस्तानी आतंकियों और उनके संरक्षक ठिकानों को खत्म करना था। इस ऑपरेशन में उपयोग किए गए हथियारों में सबसे ज्यादा चर्चा ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल की हो रही है। सूत्रों के अनुसार, भारतीय नौसेना के एक अधिकारी ने, ब्रह्मोस ने लक्ष्य पर ‘पिनपॉइंट प्रिसिशन’ के साथ हमला किया और पाकिस्तान की एक सैन्य ठिकाने को पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। इसके अलावा LOC के पार आतंकवादी अड्डों पर भी इसका प्रयोग किए जाने की अपुष्ट खबरें सामने आ चुकी हैं। हालांकि भारत सरकार इसकी पुष्टि नहीं की है।

“ब्रह्मोस”, भारत और रूस के बीच एक संयुक्त उपक्रम है, जिसे DRDO और रूस की कंपनी NPO Mashinostroyenia ने मिलकर विकसित किया है। यह एक सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल है जिसकी गति 2.8 से 3 मैक (यानि ध्वनि की गति से तीन गुना) तक हो सकती है। इसके खास पहलू में  इसका रेंज 300-500 किलोमीटर (नई रेंज वैरिएंट की क्षमता 800 किमी तक बढ़ाई जा रही है), लॉन्च प्लेटफॉर्म्स जमीन, समुद्र, पनडुब्बी और हवा से लॉन्च संभव है, इसकी वारहेड क्षमता 200 से 300 किलोग्राम का पारंपरिक विस्फोटक है और इसकी मारक क्षमता पिनपॉइंट अटैक, GPS/INS आधारित नेविगेशन, रडार गाइडेंस है।

“ब्रह्मोस” एक जॉइंट वेंचर है, लेकिन अब इसका 83% हिस्सा स्वदेशी हो गया है। मिसाइल के इंजन, मार्गदर्शन प्रणाली और लॉन्चर अब भारत में ही तैयार किया जा रहा हैं। उत्तर प्रदेश के लखनऊ में नई “ब्रह्मोस” उत्पादन इकाई का उद्घाटन इसका उदाहरण है।

सूत्रों के अनुसार, ऑपरेशन सिंदूर के बाद कई देशों ने “ब्रह्मोस” में अपनी दिलचस्पी दिखाई है। अब तक 15 से अधिक देश इसकी खरीद में रुचि दिखा चुका हैं। इनमें दक्षिण एशिया, दक्षिण अमेरिका और मिडल ईस्ट के देश प्रमुख हैं। जनवरी 2022 में भारत ने फिलीपींस के साथ 375 मिलियन डॉलर की डील की थी। इसमें तीन कोस्टल डिफेंस बैटरियां भेजी जानी थीं। पहली खेप 2023 में भेज दी गई और दूसरी 2025 में भेजे जाने की योजना है। वहीं, 450 मिलियन डॉलर की इस डील पर पिछले एक दशक से बातचीत चल रही है। इंडोनेशिया समुद्री सीमा की सुरक्षा के लिए “ब्रह्मोस” के नेवल संस्करण में रुचि दिखा रहा है। वियतनाम चीन के खिलाफ अपनी रणनीतिक मजबूत करने के लिए ब्रह्मोस को खरीदना चाहता है। वह इसका उपयोग अपनी थलसेना और नौसेना दोनों में करना चाहता है। वहीं, थाईलैंड, मलेशिया, सिंगापुर, ब्रुनेई  ने दक्षिण चीन सागर के आस-पास के देश हैं जो चीन की आक्रामक नीति से चिंतित हैं। “ब्रह्मोस” को वे अपनी कोस्टल डिफेंस रणनीति में शामिल करना चाहते हैं। मिडल ईस्ट देश में सऊदी अरब, UAE, कतर, ओमान और मिस्र जैसे देशों में “ब्रह्मोस” की मारक क्षमता और बहुप्रयोगिता आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। इसे संभावित क्षेत्रीय संघर्षों के लिए रणनीतिक हथियार के रूप में देखा जा रहा हैं। दक्षिण अमेरिका में ब्राजील, अर्जेंटीना, चिली और वेनेजुएला जैसे देशों ने हाल ही में भारत से “ब्रह्मोस” को लेकर जानकारी मांगी है। उनके लिए यह मिसाइल समुद्री और जमीनी सीमाओं की सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।

“ब्रह्मोस”  की तेज रफ्तार दुश्मन की रडार प्रणाली को भ्रमित कर देती है और बेहद कम ऊंचाई से उड़ान भर सकती है, जिससे इसकी पहचान मुश्किल हो जाती है। “ब्रह्मोस”  जमीन, समुद्र, पनडुब्बी और एयरक्राफ्ट से भी दागा जा सकता है। इसका टार्गेट हिटिंग रेश्यो लगभग 99.9% माना जाता है। “ब्रह्मोस” से हमला करने के बाद दुश्मन को प्रतिक्रिया देने का समय नहीं मिलता।

भारत के लिए  “ब्रह्मोस”  न केवल एक मिसाइल है, बल्कि यह एक कूटनीतिक हथियार भी बन चुका है। दक्षिण चीन सागर में चीन के प्रभुत्व को चुनौती देने में यह मिसाइल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। ब्रिटेन के एबरिस्टविथ यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर अहमद रिजवी उमर का मानना है कि, “ब्रह्मोस किसी भी देश की नौसेना के लिए गेमचेंजर साबित होगी। इसके आने से चीन का दबदबा टूट सकता है।”

“ब्रह्मोस” का डील्स होने पर भारत की डिफेंस एक्सपोर्ट्स में बढ़ोतरी होगी। फिलीपींस, वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देशों के साथ सामरिक संबंध मजबूत होंगे। लखनऊ और नागपुर जैसे शहरों में  “ब्रह्मोस”  उत्पादन इकाइयाँ खुलने से स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा।  “ब्रह्मोस”  के माध्यम से आत्मनिर्भर भारत अभियान को मजबूती मिलेगी। 

सूत्रों के अनुसार, DRDO अब  “ब्रह्मोस”  का अगला संस्करण विकसित करने में लगा हुआ है, जिसे “ब्रह्मोस-NG नाम दिया गया है। इसकी खासियत होंगी यह आकार में छोटा होगा, लेकिन उतना ही घातक रहेगा। इसका रेंज 800 किलोमीटर तक होगा और फाइटर जेट्स में तैनात करने योग्य रहेगा तथा स्टील्थ टेक्नोलॉजी से युक्त होगा।

जहां एक ओर  “ब्रह्मोस”  की सफलता की तारीफ हो रही है, वहीं कुछ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इसे क्षेत्रीय अस्थिरता का कारण भी बताया जा रहा है। खासतौर पर चीन और पाकिस्तान ने इस मिसाइल के प्रसार पर चिंता जताई है। पाकिस्तान के थिंक टैंक 'इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रेटेजिक स्टडीज' का कहना है कि भारत द्वारा  “ब्रह्मोस”  का निर्यात क्षेत्रीय शांति को खतरे में डाल सकता है। जबकि भारत बार-बार कह चुका है कि वह  “ब्रह्मोस”  को केवल उन्हीं देशों को देगा जो अंतरराष्ट्रीय कानूनों और क्षेत्रीय स्थिरता का सम्मान करता हैं।

ऑपरेशन सिंदूर ने  “ब्रह्मोस”  को सिर्फ एक हथियार नहीं, बल्कि एक ‘स्ट्रैटेजिक डिटरेंस’ बना दिया है। इसे भारत की रक्षा तकनीक, उसकी विदेश नीति, और आत्मनिर्भरता के संगम का अद्भुत उदाहरण कहा जा सकता है।



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