देश की सर्वोच्च अदालत ने एक अहम निर्णय में हाईकोर्ट और निचली अदालतों को कड़ी हिदायत दी है कि वे जमानत देने के मामलों में केवल आरोपी या उसके परिजनों द्वारा दी गई 'धनराशि जमा करने के आश्वासन' के आधार पर फैसला न करें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इस तरह की प्रथा न्याय प्रक्रिया को गुमराह कर सकती है और इसका दुरुपयोग किया जा रहा है।
28 जुलाई को बंबई हाईकोर्ट के एक फैसले को चुनौती देने वाली अपील की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह आदेश पारित किया। धोखाधड़ी के एक गंभीर मामले में आरोपी को जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वह 25 लाख रुपये की राशि जमा करेगा। आरोपी ने कोर्ट में शपथपत्र देकर यह आश्वासन दिया था, जिसके आधार पर उसे अंतरिम जमानत मिल गई। लेकिन जमानत पर रिहा होने के बाद आरोपी ने तयशुदा राशि जमा नहीं किया।
न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अदालत केवल शपथपत्र पर भरोसा कर जमानत नहीं दे सकती। इस प्रकार की रणनीतियां अदालतों को गुमराह करने और न्याय की प्रक्रिया को विफल करने की ओर ले जाती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि यह एक ‘प्रचलित लेकिन अनुचित चलन’ बनता जा रहा है, जिसे अब सख्ती से रोका जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “केवल आश्वासन के आधार पर जमानत देना कानून सम्मत नहीं है।” “निचली अदालतें और हाईकोर्ट जमानत याचिकाओं पर केवल मामले के गुण-दोष के आधार पर फैसला करें।” “आरोपियों द्वारा दिए जा रहे झूठे शपथपत्र से अदालतें गुमराह हो रही हैं, इसे तत्काल रोका जाना चाहिए।”
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से यह साफ हो गया है कि न्यायपालिका अब जमानत देने की प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और तथ्य आधारित बनाना चाहती है। आश्वासन या शपथपत्र के नाम पर यदि आरोपी बच निकलते हैं, तो यह न केवल पीड़ित पक्ष के साथ अन्याय है, बल्कि न्याय व्यवस्था की साख पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा करता है।
सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय एक मील का पत्थर साबित हो सकता है, जो जमानत की प्रक्रिया में चल रहे अनुचित प्रयोगों पर विराम लगाएगा। अब अदालतों को निर्देशित किया गया है कि वे मामले की गंभीरता, सबूतों और आरोपी के व्यवहार के आधार पर ही निर्णय लें न कि महज किसी शपथपत्र या रकम जमा करने के 'वादे' पर।
