भाजपा का इस बार कुम्हरार विधानसभा में कायस्थ उम्मीदवार नहीं - अब देखना होगा कि कायस्थ समाज एकजुट रहता है या नहीं?

Jitendra Kumar Sinha
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पटना शहर का हृदय कहा जाने वाला कुम्हरार विधानसभा क्षेत्र बिहार की राजनीति में एक प्रतीकात्मक महत्व रखता है। यह क्षेत्र केवल पटना का नहीं बल्कि पूरे राज्य के राजनीतिक मानस का प्रतिनिधित्व करता है। यहाँ की राजनीति का रंग जातीय समीकरणों से गहराई से प्रभावित होता है, परंतु शहरीकरण और मध्यमवर्गीय आकांक्षाओं के कारण यह सीट बिहार के ग्रामीण जातीय ढाँचे से कुछ अलग भी है।

कुम्हरार विधानसभा पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आता है और इसे राजधानी क्षेत्र के सबसे प्रतिष्ठित सीटों में गिना जाता है। यहाँ के मतदाता शिक्षित, जागरूक और सामाजिक रूप से सक्रिय हैं। फिर भी, बिहार की परंपरा के अनुरूप यहाँ जातीय पहचान चुनावी गणित में निर्णायक भूमिका निभाती है।

कुम्हरार सीट की पहचान बीते दो दशकों में भाजपा के गढ़ के रूप में बनी है। यह क्षेत्र पहले पटना पूर्व के नाम से जाना जाता था। 2010 के परिसीमन के बाद इसका नाम बदलकर कुम्हरार हुआ। इस सीट पर पिछले कई चुनावों से भाजपा को लगातार जीत मिलती रही है, जिसका बड़ा कारण यहाँ का कायस्थ समाज और शहरी मतदाताओं की भाजपा-समर्थक मानसिकता है।

भाजपा ने इस सीट को कभी हल्के में नहीं लिया है। अरुण कुमार सिन्हा जैसे लोकप्रिय विधायक ने लगातार छह बार जीतकर इस क्षेत्र में भाजपा की जड़ों को मजबूत किया। उनके निधन के बाद पार्टी ने अरुण कुमार सिन्हा की छवि और उनके द्वारा किए गए विकास कार्यों को ही आगे बढ़ाने की रणनीति अपनाई।

कुम्हरार की कुल आबादी करीब 4 लाख मतदाताओं की है। इनमें लगभग 1 लाख कायस्थ समाज के मतदाता हैं, जो इस सीट पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं। कायस्थों की राजनीतिक झुकाव पारंपरिक रूप से भाजपा के साथ रहा है और इसका लाभ पार्टी को यहाँ लगातार मिलता आया है।

कायस्थ वर्ग उच्च शिक्षित, नौकरीपेशा और मध्यमवर्गीय मानसिकता वाला समाज है। यह वर्ग प्रशासनिक नौकरियों, शिक्षा, मीडिया और व्यापार में अग्रणी है। भाजपा ने इस वर्ग को “राष्ट्रवादी, प्रशासनिक दक्ष और शहरी विचारधारा वाले समाज” के रूप में हमेशा अपने पाले में बनाए रखा है।

भूमिहार जाति भी परंपरागत रूप से भाजपा-जदयू समर्थक मानी जाती है। यह वर्ग आर्थिक रूप से मजबूत और राजनीतिक रूप से सक्रिय है। कुम्हरार में भूमिहार मतदाता भाजपा के लिए “साइलेंट सपोर्ट बेस” की भूमिका निभाते हैं।

अतिपिछड़ा वर्ग में नाई, धोबी, पासवान, कुर्मी-कुशवाहा जैसे कई उपजातियाँ शामिल हैं। ये मतदाता आम तौर पर जदयू या राजद की ओर झुकते हैं, परंतु कुम्हरार जैसे शहरी क्षेत्र में जातीय वफादारी की तुलना में स्थानीय मुद्दे और विकास कार्य अधिक प्रभावी होते हैं। भाजपा ने इस वर्ग तक पहुँचने के लिए नगर सेवाओं और शहरी योजनाओं को राजनीतिक पूंजी में बदला है।

राजद का कोर वोट बैंक, यादव और मुस्लिम मतदाता,  कुम्हरार में भी मौजूद हैं, परंतु इनकी संख्या सीमित है। यह क्षेत्र पारंपरिक रूप से राजद के ग्रामीण प्रभाव से बाहर है। हालांकि, राजद समय-समय पर यादव-मुस्लिम समीकरण को संगठित करने का प्रयास करता रहा है, लेकिन भाजपा की शहरी संगठित वोटिंग मशीनरी के सामने अब तक असफल रहा है।

कुम्हरार में भाजपा की सबसे बड़ी ताकत उसकी संगठनात्मक उपस्थिति और जातीय स्थिरता रही है। पार्टी ने इस सीट को केवल जातीय आधार पर नहीं, बल्कि विकास और सुशासन के मॉडल के रूप में भी प्रस्तुत किया है।

भाजपा ने हमेशा इस सीट से कायस्थ उम्मीदवार ही उतारा है। इससे समुदाय में “अपनापन” बना रहा। अरुण कुमार सिन्हा की लंबी राजनीतिक पारी ने इस वर्ग को भाजपा से भावनात्मक रूप से जोड़े रखा है।

पटना शहर की समस्याओं, जलजमाव, ट्रैफिक, सीवरेज, बिजली, जलापूर्ति, को भाजपा ने अपने नगर निगम और राज्य सरकार के नेटवर्क के माध्यम से संबोधित किया है। शहरी मतदाता “काम बोलता है” जैसे नारों से प्रभावित हुए हैं।

कुम्हरार में संघ (RSS), व्यापारी संघों, कायस्थ महासभा और शहरी मंडलों का मजबूत नेटवर्क है। यह नेटवर्क चुनाव के दौरान बूथ स्तर पर भाजपा के लिए वोट ट्रांसफर की गारंटी देता है।

राजद और कांग्रेस के लिए कुम्हरार अब भी कठिन चुनाव क्षेत्र है। यद्यपि पटना साहिब के मुस्लिम मतदाता और कुछ यादव बहुल वार्ड विपक्ष को आधार देते हैं, परंतु यह संख्या निर्णायक नहीं बन पाती है।

राजद की पहचान अभी भी ग्रामीण गरीबों और पिछड़े वर्गों की पार्टी के रूप में है। शहरी मतदाता वर्गीय और जातीय सीमाओं से ऊपर “विकास” और “भ्रष्टाचार-मुक्त शासन” की बात पर वोट करता है। यही कारण है कि राजद का “सामाजिक न्याय” का नारा यहाँ बहुत प्रभावशाली नहीं हो पाया।

कांग्रेस कभी पटना शहर की राजनीति में प्रभावशाली थी, लेकिन अब संगठन लगभग निष्क्रिय है। स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं की कमी, नेतृत्व का अभाव और संसाधनहीनता ने कांग्रेस को भाजपा-जदयू की राजनीति के परिधि में ला दिया है।

जदयू का प्रभाव यहाँ सीमित है। नीतीश कुमार की “सात निश्चय योजना” और “हर घर नल-जल” जैसी योजनाओं ने कुछ हद तक जदयू को मतदाताओं के बीच उपस्थित रखा है, लेकिन भाजपा के सहयोगी के रूप में यह पार्टी इस क्षेत्र में स्वतंत्र पहचान नहीं बना पाई।

कुम्हरार एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ जातीयता और आधुनिकता दोनों समानांतर चलता है। आईटी पार्क, कोचिंग संस्थान, निजी अस्पताल, और अपार्टमेंट कल्चर के विस्तार ने नए शहरी वर्ग को जन्म दिया है। यह वर्ग न तो परंपरागत जातीय निष्ठाओं में बंधा है, न ही क्षेत्रीय दलों की “जाति बनाम वर्ग” राजनीति में विश्वास करता है।

भाजपा ने इस वर्ग को राष्ट्रवाद, करिश्माई नेतृत्व और विकास के एजेंडे से जोड़े रखा है। यही कारण है कि जब बिहार के अन्य क्षेत्रों में जातीय लहरें उठती हैं, कुम्हरार अपेक्षाकृत स्थिर और भाजपा समर्थक बना रहता है।

2020 में भाजपा ने यहाँ 60% से अधिक वोट हासिल किया था। यह बिहार की सबसे बड़ी जीतों में से एक थी। विपक्षी उम्मीदवारों को यहां से मजबूत पकड़ नहीं मिल पाई।

भाजपा इस बार 2025 चुनाव के लिए संजय गुप्ता को उम्मीदवार बनाया है। अब देखना होगा कि कायस्थ समाज की एकजुटता बना रहता है या नहीं।

राजद और कांग्रेस का गठबंधन यदि शहरी मुद्दों और बेरोजगारी जैसे विषयों को धार दे सके, तो कुछ हद तक भाजपा को चुनौती मिल सकती है। 

युवा मतदाता, जो 18 से 25 वर्ष के बीच हैं, उनकी संख्या अब लगभग 60 हजार है। ये मतदाता सोशल मीडिया और रोजगार जैसे मुद्दों पर संवेदनशील हैं। भाजपा को इस वर्ग तक अपने “विकास बनाम वादे” के संदेश को मजबूती से पहुँचाना होगा।

कायस्थ समाज बिहार की राजनीति में सदैव निर्णायक भूमिका में रहा है। यह वर्ग शिक्षित, सरकारी नौकरियों में उच्च हिस्सेदारी रखने वाला और सामाजिक रूप से गतिशील रहा है। कुम्हरार में कायस्थों की बड़ी संख्या ने इस क्षेत्र को “कायस्थ राजनीति की राजधानी” बना दिया है। लेकिन इस बार कायस्थ उम्मीदवार भाजपा ने नहीं दिया है। 

हालांकि जातीय समीकरण अब भी निर्णायक हैं, परंतु कुम्हरार में विकास का विमर्श जातीय समीकरण से टकरा रहा है। सड़कों, ड्रेनेज, बिजली, स्मार्ट सिटी योजनाओं का क्रियान्वयन, शहरी अपराध नियंत्रण, स्वास्थ्य और शिक्षा संस्थानों का विस्तार, ट्रैफिक प्रबंधन। इन सब मुद्दों पर भाजपा लगातार सक्रिय रही है। विपक्ष इन मुद्दों को लेकर स्पष्ट एजेंडा नहीं बना सका।

पटना जैसे शहरों में अब चुनावी प्रचार सोशल मीडिया पर अधिक निर्भर हो गया है। कुम्हरार में ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप समूहों में राजनीतिक बहसें आम हैं। भाजपा का आईटी सेल यहाँ बेहद सक्रिय है, जो माइक्रो-टार्गेटिंग रणनीति से काम करता है। विपक्ष की डिजिटल उपस्थिति कमजोर है, जिससे उसे युवाओं तक पहुँचने में कठिनाई होती है।

कुम्हरार विधानसभा को समझना दरअसल बिहार के शहरी राजनीतिक मानस को समझना है। यहाँ जातीय समीकरण हैं, परंतु विकास और नेतृत्व के प्रतीक अधिक प्रभावी हैं। भाजपा ने इस सीट को केवल जातीय राजनीति से नहीं, बल्कि संगठन, छवि और विकास के समन्वय से अपने पाले में बनाए रखा है। विपक्ष को यदि इस किले को भेदना है, तो उसे कायस्थ और शहरी वर्ग दोनों को साथ लाने के लिए नई सामाजिक और राजनीतिक रणनीति बनानी होगी।

2025 का चुनाव यह तय करेगा कि क्या भाजपा अपनी परंपरागत पकड़ बरकरार रख पाती है या कुम्हरार में कोई नया राजनीतिक समीकरण जन्म लेता है। लेकिन फिलहाल, कुम्हरार भाजपा की सबसे सुरक्षित और प्रतीकात्मक शहरी सीटों में से एक बनी हुई है जहाँ जातीय गणित और विकास का समीकरण दोनों भाजपा के पक्ष में हैं।



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