बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मी अब पूरे उफान पर है। रविवार को एनडीए गठबंधन द्वारा सीट बंटवारे की औपचारिक घोषणा होते ही पटना में भाजपा और जदयू दोनों के प्रदेश कार्यालयों में कार्यकर्ताओं की भीड़ उमड़ पड़ी। हर ओर चर्चा थी — कौन सीट किसे मिली, किसे टिकट मिला और किसे नहीं। राजनीति के इस मौसम में हर कार्यकर्ता के मन में उत्साह, उम्मीद और चिंता तीनों साथ नज़र आए।
भाजपा कार्यालय में सुबह से ही समर्थकों का जमावड़ा शुरू हो गया था। कुछ कार्यकर्ता सीट बंटवारे को लेकर रोमांचित थे, तो कुछ चेहरे पर निराशा के भाव लिए चर्चा कर रहे थे। दोपहर तक माहौल पूरी तरह राजनीतिक हो गया था — कार्यकर्ता अपने नेताओं को फोन कर रहे थे, किसी से पूछ रहे थे कि टिकट पक्का हुआ या नहीं, तो कोई यह जानने में लगा था कि उसका इलाका भाजपा के खाते में गया या जदयू के।
कार्यालय परिसर से बाहर चाय की दुकानों पर भी माहौल चुनावी हो चला था। कुछ कार्यकर्ता पिछली बार के नतीजों पर चर्चा कर रहे थे — “पिछली बार इतने वोट से ही जीत पाए थे जब सहनी साथ थे।” वहीं, कुछ ने मुस्कुराते हुए माहौल को हल्का किया, “महाराज, एतना टेंसल काहे लेले हैं? चाय पीजिए, आउ जाइए नेता जी के प्रचार में। बाकि फोन पर अब हालचाल बताईएगा।” प्याली खाली हुई तो चर्चा भी खत्म — यह बिहार की राजनीति का असली ज़मीनी रंग है।
उधर जदयू कार्यालय का नज़ारा भी कम दिलचस्प नहीं था। एक कोने में कार्यकर्ता विपक्षी उम्मीदवारों के टिकट पर बहस कर रहे थे। कोई कह रहा था, “का जी, इ बार विधायक जी के टिकट मिलत हई?”, तो दूसरा जवाब देता, “लगित त न हव, लेकिन अपन तय हो गेलव।” यह बातचीत न सिर्फ हंसी-मज़ाक से भरी थी, बल्कि उसमें स्थानीय राजनीति की गहराई भी झलक रही थी।
इसी दौरान मीनापुर विधानसभा क्षेत्र से आए कुछ कार्यकर्ता “बाहरी हटाओ, मीनापुर बचाओ” का नारा लगाते हुए पहुंचे। हाथों में तख्तियाँ थीं और चेहरे पर नाराज़गी। थोड़ी देर तक नारेबाजी होती रही, फिर एक वरिष्ठ नेता बाहर आए, प्रदर्शनकारियों से बात की और स्थिति शांत हो गई। यह बिहार की राजनीति का परिचित दृश्य था — जहां असहमति भी संवाद के ज़रिए सुलझाई जाती है।
शाम होते-होते जैसे ही सीटों की सूची सार्वजनिक हुई, भाजपा और जदयू दोनों कार्यालयों में फिर चर्चा शुरू हो गई। अब बहस टिकटों से आगे बढ़कर इस पर पहुंच गई कि कौन जीतेगा, कौन हारेगा और कौन बागी बनेगा। कार्यकर्ताओं का मानना था कि अब असली चुनौती बागियों को साधने और नाराज़ कार्यकर्ताओं को मनाने की होगी।
राजनीति के इस नए दौर में गठबंधन का समीकरण तय हो चुका है, पर खेल अभी बाकी है। टिकट वितरण के बाद जो बिखराव दिखता है, उसे एकजुट करना नेताओं की अगली परीक्षा होगी। बिहार का चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि जनभावनाओं की परीक्षा है, और इस बार भी जनता ही तय करेगी कि किसकी रणनीति मैदान में टिकती है।
