बिहार की राजनीति हमेशा से एक ऐसे रंगमंच की तरह रही है जहाँ किरदारों का परिवर्तन, उनकी भूमिकाओं का विस्तार और राजनीतिक समीकरणों का बदलना मात्र कुछ घंटों की बात हुआ करती है। यहाँ सत्ता के गलियारों में कदमों की धूप-छाँह हर पल अपने रूप बदलती है। ऐसे में जब अचानक एक ऐसा निर्णय सामने आए जिसमें वर्षों से विशेष सावधानी, सख्ती और नियंत्रण के साथ गृह विभाग अपने पास रखने वाले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार स्वयं “दान” करते प्रतीत हों, तो स्वाभाविक रूप से सवाल उठता हैं कि क्या यह महज एक राजनीतिक समझदारी है या फिर किसी गहरी रणनीति?
बिहार राजनीति में गृह विभाग को हमेशा एक शक्ति-स्रोत माना गया है। कारण है कि कानून व्यवस्था ही वह आधार है जिससे शासन की सफलता या असफलता का मूल्यांकन किया जाता है। नीतीश कुमार ने 2005 से अपने शासन की छवि ‘सुशासन’ के आधार पर ही निर्मित की थी और इसी सुशासन का सबसे मजबूत स्तंभ था “गृह विभाग”।
जब नीतीश कुमार की शासन शुरू हुई तो उस समय बिहार में अपराध का ग्राफ अपने चरम पर था। फिर धीरे-धीरे कानून व्यवस्था में सुधार हुआ। सड़कें बनीं, पुलिस को सशक्त किया गया, प्रशासनिक तंत्र को सक्रिय किया गया। ऐसी स्थिति में गृह विभाग उनके लिए केवल एक पोर्टफोलियो नहीं था बल्कि यह उनका राजनीतिक आधार, उनकी साख और उनका सबसे बड़ा ब्रांड था।
जब भी विरोधी दल प्रश्न उठाते थे कि “कानून व्यवस्था बिगड़ रही है”, “अपराध बढ़ा है”, “पुलिस कमजोर है”, तो नीतीश कुमार उसी विभाग के जरिए मजबूत जवाब देते थे। यही कारण था कि नीतीश ने यह विभाग कभी किसी को नहीं दिया। यह उनका ‘व्यक्तिगत नियंत्रण वाला मंत्रालय’ था।
क्या नीतीश कुमार वाकई में ‘राजा हरिश्चंद्र’ बन गए क्या? यह सवाल पूरे बिहार के मन में घूम रहा है। जबकि यथार्थ इससे काफी अलग और जटिल दिख रहा है।
जो लोग नीतीश कुमार को करीब से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि वह हार्ड बारगेनर हैं। कभी भी बिना अपने हित को सुरक्षित किए कोई निर्णय नहीं लेते हैं। उनके हर कदम में दूरदर्शिता और संतुलन होता है।
गृह विभाग का ‘त्याग’ भी किसी दानवीरता की कथा नहीं दिखता है। यह रणनीति भी कहीं न कहीं सीधी, सटीक और सुविचारित है।
नीतीश ने सारे राजनीतिक जीवन में एक बात स्पष्ट की है कि वे सत्ता को कभी हल्के में नहीं लेते हैं। सत्ता से बाहर रहना उनकी शैली नहीं है। बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में उन्होंने हमेशा अपने लिए सुरक्षित स्थान ढूँढ़ा है, कभी NDA में जाकर, कभी UPA में जाकर और कभी खुद का मोर्चा बनाकर। ऐसे में उनका गृह विभाग छोड़ना यह संकेत देता है कि उन्होंने BJP के साथ कोई बड़ा ‘पावर समझौता’ किया है, जिसकी कीमत भविष्य में वसूली जा सकती है। क्योंकि नीतीश कुमार बिना गहरी गणना के कुछ नहीं करते हैं। उनके कारनामे बताता है कि वे भले शांत-सौम्य दिखते हों, लेकिन भीतर से बेहद सख्त और चतुर रणनीतिकार हैं।
यह प्रश्न इस पूरे विवाद का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है कि गृह विभाग BJP क्यों लेना चाहती थी? चुनाव बाद सरकार गठन के बाद अब गृह विभाग BJP के पास है इसका अर्थ है कि अपराध बढ़े तो वे खुद सुधार दिखा सकता हैं। अपराध घटे तो इसका श्रेय भी उन्हें मिलेगा और अगर स्थिति बिगड़ी तो दोष JDU पर नहीं, भाजपा के मंत्री पर आएगा, इससे BJP को सरकारी ढांचे में भी ‘मजबूती’ दिखेगी।
BJP जानती है कि JDU छोटी पार्टी है, लेकिन नीतीश का व्यक्तित्व और प्रशासकीय अनुभव बड़ा है। गृह विभाग लेकर BJP स्पष्ट संदेश दी है कि अब सरकार में दोनों ध्रुव बराबरी के हैं। नीतीश अकेले शक्ति केंद्र नहीं रहे।
BJP के लिए सम्राट चौधरी एक ऐसा नाम हैं जो आक्रामक हैं, तीखे बोलते हैं, विपक्ष को खुलेआम चुनौती देते हैं और राजनीतिक रूप से अतिशय महत्वाकांक्षी भी हैं। उन्हें गृह विभाग देकर BJP ने यह संकेत दिया है कि सम्राट चौधरी अब बिहार BJP का ‘चेहरा’ हैं और भविष्य के लिए संभावित मुख्यमंत्री।यह निर्णय जितना साहसिक है, उतना ही जोखिम भरा भी। अगर कानून व्यवस्था सुधरी, पुलिस की छवि बेहतर हुई, अपराध नियंत्रण में आए और गृह विभाग में प्रशासनिक दक्षता दिखी तो भाजपा कह सकेगी कि “हमने बिहार को सुधार दिया, हम ही मुख्य विकल्प हैं।” यह आगामी चुनाव में उन्हें बड़ा लाभ देगा।
अगर नीतीश कुमार के पास रहता तो यही वह पंक्ति है जो BJP के लिए सबसे बड़ा खतरा है। नीतीश की प्रशासनिक साख इतनी मजबूत है कि अगर अपराध बढ़ा या कोई बड़ी घटना हुई तो जनता की पहली प्रतिक्रिया यही होगी कि “नीतीश के समय ऐसा नहीं होता था।” BJP इस तुलना के दबाव से बच नहीं पाएगी और विपक्ष इसे हथियार बनाकर प्रहार करेगा।
सम्राट चौधरी को गृह विभाग देकर BJP ने उन्हें उभारने का मौका तो दिया है, लेकिन जोखिम भी अत्यधिक है। अगर वे सफल हुए, तो वे बिहार BJP के निर्विवाद नेता बन जाएंगे। अगर असफल हुए तो राजनीतिक कॅरियर पर गहरी चोट भी पड़ सकती है।
नीतीश कुमार कभी भी किसी मुद्दे पर जल्दबाजी नहीं करते हैं। बाहरी तौर पर वे शांत दिखते हैं, लेकिन भीतर से हमेशा शतरंज की बिसात पर अगली चाल सोचते रहते हैं। अगर स्थिति बिगड़ती है, तो वे कह सकते हैं कि “देखिए, मैंने गृह विभाग भाजपा को दिया था। अब जनता फैसला करे कि किसके समय कानून व्यवस्था बेहतर थी।” यह राजनीतिक रूप से अत्यंत प्रभावी तर्क बनेगा।
भाजपा अब सिर्फ आलोचक नहीं बनी रह सकती है। अब विभाग उनके पास है यानि जिम्मेदारी भी उनकी है। यह नीतीश की पसंदीदा राजनीति है कि “साझेदार बनो तो बराबरी से, आलोचक नहीं।”
अंततः कोई भी राजनीतिक निर्णय तभी सार्थक है जब उसका लाभ जनता को मिले। बीते दशकों में स्थिति बहुत सुधरी है, लेकिन चुनौतियाँ अभी भी हैं, अपराध, जातीय तनाव, नक्सली क्षेत्र, युवा बेरोजगारी जनित हिंसा, महिलाओं की सुरक्षा और सड़क से लेकर थाने तक का भ्रष्टाचार,लोग आज भी सुरक्षा और प्रशासनिक दक्षता को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं।
नीतीश कुमार हो या भाजपा, लोगों के लिए महत्व इस बात का है कि क्या राज्य में स्थिरता है? क्या अपराध कम हो रहे हैं? क्या पुलिस काम कर रही है? क्या सरकार जिम्मेदार है? चाहे बदलाव कोई भी करे जनता केवल परिणाम देखती है।
राजनीति के विद्यार्थी और विश्लेषक इस कदम को केवल ‘मंत्रिमंडलीय फेरबदल’ मानकर भूल जाएँगे, तो यह सबसे बड़ी भूल होगी। यह एक मास्टरस्ट्रोक, रिस्क मूव और सत्ता संतुलन का गहन खेल है। यह निर्णय तीन स्तरों पर बिहार की राजनीति को प्रभावित करेगा, पहला सत्ता का संतुलन (नीतीश बनाम भाजपा), दूसरा चुनावी नैरेटिव (कानून व्यवस्था से विकास बनाम सुशासन बनाम आक्रामक नेतृत्व) और तीसरा उत्तराधिकारी और नेतृत्व मॉडल (नीतीश की छवि बनाम सम्राट चौधरी का नया उभरता रूप)।
BJP की बाजी न मायने रखती है, न नीतीश कुमार का त्याग, न सम्राट चौधरी की आक्रामकता और न राजनीतिक सौदे। असली मायने रखता है बिहार की शांति, सुरक्षा और विकास। अगर गृह विभाग का यह हस्तांतरण बिहार के लिए बेहतर परिणाम लाता है, तो यह निर्णय ऐतिहासिक साबित होगा। लेकिन अगर स्थिति बिगड़ी, तो राजनीति की आग इतने तेज भड़क सकती है कि आने वाले वर्षों तक उसके धुएँ से बिहार जूझता रह जाएगा।
