बिहार की राजनीति जितनी जटिल है, उतनी ही उलझी हुई रस्साकशी और अनकहे समीकरणों से भरी हुई है। यहाँ सत्ता का खेल कभी सीधा नहीं चलता है, हर कदम पर नए गठजोड़, नई मजबूरियाँ, नए संतुलन और नई उलझनें सामने आती हैं। पिछले दो दशकों में इन उलझनों के केंद्र में एक ही नाम सबसे अधिक दिखाई देता है “नीतीश कुमार”, जिन्हें बिहार की राजनीति में ‘सुशासन बाबू’ के नाम से पहचान मिली है, मगर व्यवहार में वे बिहार की राजनीति के सबसे कुशल शतरंज खिलाड़ी साबित हुए हैं।
20 साल में 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर नीतीश कुमार ने न सिर्फ एक नया इतिहास लिखा है, बल्कि बिहार की सत्ता के चरित्र और गठबंधन राजनीति की बदलती दिशा का भी साफ संकेत दिया है। यह शपथ जितनी चौंकाने वाली है, उतनी ही गहरे विश्लेषण की मांग भी करती है, क्योंकि इस बार नीतीश कुमार सिर्फ मुख्यमंत्री नहीं बने, बल्कि बिहार की सत्ता-समीकरणों के केंद्र में बैठा वह ध्रुव बन गए हैं जिसके चारों ओर भाजपा, जदयू, लोजपा, हम, रालोजद, राजद और कांग्रेस जैसी पार्टियों की रणनीतियाँ घूम रही हैं।
इस पूरे घटनाक्रम को सिर्फ बिहार के नजरिए से देखना गलत होगा, यह शपथ केंद्र की राजनीति, 2029 की तैयारियों और पूर्वी भारत में भाजपा के विस्तार की रणनीति से भी गहरे तौर पर जुड़ी हुई है।
बिहार की राजनीति जहाँ गणित हर बार बदलता है, पर खिलाड़ी वही रहता है। बिहार की राजनीति में कोई भी समीकरण स्थायी नहीं है। यहाँ राजनीतिक दोस्तियाँ मौसम की तरह बदल जाती हैं और नीतीश कुमार इस कला के सबसे उस्ताद खिलाड़ी माने जाते हैं।
बीते 20 वर्षों में वे भाजपा के साथ भी रहे, राजद के साथ भी, अकेले चुनाव भी लड़े, ‘महागठबंधन’ के चेहरा भी बने और अब फिर वापस एनडीए में लौटकर 10वीं बार मुख्यमंत्री बन गए। यह सब यूँ ही नहीं हुआ है, इसके पीछे एक गहरी संरचना है।
लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दशकों से बिहार की राजनीति में दो ध्रुव रहे हैं। इसके अलावा ऐसा कोई नेता नहीं उभर पाया जो राज्यव्यापी स्वीकार्यता और प्रशासनिक विश्वसनीयता रखता हो। बड़े मतदान क्षेत्रों में लोकप्रियता, जातीय समीकरणों का कौशल, और राजनीतिक अनुभव, यह तीनों गुण नीतीश कुमार के पास हमेशा रहा है।
बिहार के चुनाव जातीय जटिलताओं से भरा है। किसी भी पार्टी के अकेले पूर्ण बहुमत पाने की संभावना बेहद कमजोर रहती है। यही कारण है कि नीतीश कुमार जैसे नेता की मांग हमेशा बनी रही है। कई राज्यों में किंगमेकर बनते हैं, लेकिन बिहार में नीतीश कुमार दोनों भूमिका निभाते हैं।कभी किंगमेकर बनकर भाजपा या राजद को केंद्र में रखते हैं और कभी खुद किंग बनकर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाते हैं। यह द्वंद्वात्मक मॉडल बिहार की राजनीति की एक अनूठी विशेषता है।
नीतीश कुमार की 10वीं शपथ एक असाधारण लेकिन असहज जीत है। इस बार नीतीश कुमार ने जिस परिस्थिति में 10वीं बार शपथ ली, वह पहले से कई गुना अलग और उलझी हुई थी। बिहार का जनादेश एनडीए को मिला जरूर, लेकिन उसके भीतर बहुत सारी परतें छिपी हुई थीं। जदयू की सीटें लगभग दोगुनी हो गईं। यह नीतीश के नेतृत्व की स्वीकार्यता का संकेत भी है। लेकिन साथ ही यह भी ध्यान देना चाहिए कि भाजपा 89 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी बनी है। इसका मतलब है जनादेश भाजपा के पक्ष में ज्यादा झुका हुआ था।
चुनाव से पहले भाजपा ने स्पष्ट रूप से कहा था कि “हम नीतीश को सीएम चेहरा घोषित नहीं कर रहे।” यह वही भाजपा है जिसने 2015 से पहले तक स्पष्ट घोषणा की थी कि नीतीश मुख्यमंत्री होंगे। लेकिन इस बार ऐसा नहीं किया। इसके कई कारण हैं, जिनमें सबसे प्रमुख हैं जदयू को अलग कर भाजपा सरकार नहीं बना सकती थी। नीतीश के पास पाला बदलने का विकल्प नहीं था। इसलिए भाजपा को भरोसा था कि वे स्थिर रहेंगे। जदयू और टीडीपी जैसी पार्टियाँ केन्द्र सरकार की रीढ़ बनी हुईं है। इसलिए भाजपा जदयू को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। बंगाल में भाजपा को मजबूत चेहरा चाहिए, और पूर्वी भारत में विपक्षी एकता को टूटने नहीं देना था। बिहार में खटपट बंगाल रणनीति को नुकसान पहुँचाती।
मंत्रिमंडल गठन में भाजपा ने दिखा दिया कि “बड़ा कौन है”। नीतीश की शपथ लेकर खुशी मनाने वाले लोग शायद इस बात को समझ नहीं पाए कि असली राजनीति तो मंत्रिमंडल बंटवारे में हुई। 27 मंत्रियों में 14 भाजपा के, 8 जदयू के और बाकी छोटे सहयोगियों के। यह पहली बार हुआ है कि जदयू सत्ता में जूनियर पार्टनर की तरह दिख रही है।
20 साल में पहली बार नीतीश कुमार ने गृह विभाग किसी और को दिया है। यह सिर्फ मंत्रालय नहीं है बल्कि यह पूरी प्रशासनिक शक्ति है। गृह विभाग का मतलब है पुलिस, कानून-व्यवस्था, एसआईटी, प्रशासनिक तंत्र, खुफिया इनपुट और ट्रांसफर-पोस्टिंग नेटवर्क। यह विभाग एक तरह से राजनीतिक हथियार भी है। भाजपा अब सीधे प्रशासनिक नियंत्रण की स्थिति में है। सम्राट चौधरी भाजपा में बेहद आक्रामक नेता माने जाते हैं। उनका गृह मंत्री बनना नीतीश के लिए सहज स्थिति नहीं है। विजय कुमार सिन्हा को भूमि, राजस्व और खनन मंत्रालय जैसे शक्तिशाली विभाग मिलना भी इस बात का संकेत है कि भाजपा बिहार में अब सिर्फ सहयोगी नहीं, बल्कि सत्ता का वास्तविक केंद्र बनना चाहती है।
चिराग पासवान का उदय, क्यों बढ़ गया अचानक कद? चिराग पासवान का बिहार की राजनीति में तेजी से उभरना नीतीश कुमार के लिए एक और बड़ी चुनौती है। उनके ‘शेर’ वाले पोस्टरों ने शपथ दिवस पर सबसे अधिक चर्चा बटोरी है। चिराग पासवान को युवा चेहरा माना जाता है। दलित वोटों में गहरी पैठ है। भाजपा का समर्थन उन्हें और मजबूत बनाता है। वह खुद को “मॉडर्न बिहारी आइकन” के रूप में पेश कर रहे हैं।
भाजपा ऐसी स्थिति में चिराग को भविष्य का चेहरा भी बना सकती है। यह नीतीश के लिए राजनीतिक संकेत है कि “सत्ता अभी तुम्हारे पास है, पर भविष्य में नहीं भी हो सकती है ।” नीतीश कुमार की राजनीति मजबूरी से ज्यादा ‘व्यवहारिकता’ दिखता है। बहुत लोग कहते हैं कि नीतीश “मजबूरी में गठबंधन बदलते हैं”, लेकिन सच यह है कि नीतीश कुमार बहुत व्यवहारिक और रणनीतिक नेता हैं। वे हमेशा उस दिशा में कदम बढ़ाते हैं जहाँ उनकी सत्ता सुरक्षित रहे, प्रशासनिक नियंत्रण बना रहे, उनके वोट बैंक को नुकसान न पहुँचे और उनकी भूमिका ‘किंगमेकर’ बनी रहे। यह कहना गलत नहीं होगा कि लंबे अनुभव ने उन्हें इतना व्यावहारिक बना दिया कि “नीतीश कुमार अब किसी के भी साथ जा सकते हैं, बस वक्त और राजनीतिक गणित अनुकूल होना चाहिए।”
चुनावी वादे पूरा करना आसान नहीं होगा। यह चुनाव लोक-लुभावन वादों से भरा हुआ था। नीतीश ने स्वयं बहुत सारे बड़े-बड़े वादे किए। रोजगार, उद्योग, कृषि सुधार, बुनियादी ढाँचा, भ्रष्टाचार उन्मूलन, शिक्षा में सुधार, महिला सुरक्षा, पंचायत और नगरीय विकास। अब चुनौती यह है कि जनता समझ रही है कि “दावे बहुत हुए, अब काम चाहिए।”
यह सवाल भी उठ रहा है कि अगर नीतीश ने 20 साल शासन किया है, तो अब भी क्यों वादों की जरूरत पड़ी? इसका जवाब यही है कि बिहार की विकास गति अब भी धीमी है। बेरोजगारी बेहद गंभीर है, निवेश नहीं आ पा रहा है, पलायन जारी है, अपराध फिर बढ़ा है, उद्योग नगण्य हैं और बाढ़–सूखा–संकट हर साल आता है।
डबल इंजन सरकार पर क्या ‘डबल जिम्मेदारी’ पूरी हो पाएगी? भाजपा और जदयू दोनों कहते हैं कि “डबल इंजन की सरकार में विकास तेज होगा।” सैद्धांतिक रूप से यह बात सही है क्योंकि केंद्र से बजट आसानी से आता है। परियोजनाओं पर तेज काम होता है। राजनीतिक टकराव कम रहता है, लेकिन वास्तविकता है कि देश में कई राज्यों में भाजपा की डबल इंजन सरकार है। अगर बिहार हर बार केन्द्र से पैकेज लेता रहेगा तो अन्य राज्यों में असंतोष बढ़ेगा। सवाल यह है कि “क्या बिहार कर्ज लेकर विकास करेगा?” “क्या राजनीति में वादों के कारण अर्थव्यवस्था दबाव में नहीं आएगी?” अगर ऐसा हुआ तो यह लम्बे समय में बिहार के लिए खतरनाक होगा।
भविष्य की राजनीति में क्या भाजपा धीरे–धीरे नीतीश की जगह ले लेगी? यह सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। क्योंकि आज नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं, लेकिन राजनीति का भविष्य साफ संकेत दे रहा है कि भाजपा मजबूत हो रही है। जदयू का आधार सिकुड़ रहा है। चिराग एक नया OBC+दलित+युवा चेहरा बनकर उभर रहे हैं। भाजपा के पास कई आक्रामक नेता हैं।बिहार में भाजपा पहली बार इतने बड़े पैमाने पर सत्ता में है, इसलिए यह मान लेना गलत नहीं होगा कि “आज 10वीं बार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं, लेकिन अगले चुनाव में भाजपा किसी नए चेहरे को आगे कर सकती है।”
नीतीश कुमार ने भले ही 10वीं बार शपथ लेकर इतिहास बनाया हो, लेकिन आने वाला समय उनके लिए पहले की तुलना में कहीं कठोर है। भाजपा चाहती है कि अगला मुख्यमंत्री उसका हो। यह नीतीश के लिए बड़ी चुनौती है। यह तीनों नेता गठबंधन में रहते हुए अपनी-अपनी जातीय राजनीति चमकाएँगे और नीतीश कुमार उनके बीच में फँस सकते हैं।
अब जनता को परिणाम चाहिए वादों से बात नहीं बनेगी। गृह विभाग भाजपा के पास जाने से नीतीश कुमार की राजनीतिक पकड़ कमजोर होगी। इतिहास गवाह है कि “जदयू–भाजपा गठबंधन कभी स्थायी नहीं रहा।” भविष्य में भी खटास की संभावना बनी रहेगी।
नीतीश कुमार की 10वीं शपथ बिहार की राजनीति के इतिहास में एक मील का पत्थर है। लेकिन यह उनकी सबसे कठिन पारी भी है। भाजपा ने साफ संकेत दिया है कि सत्ता में वह ‘बड़ा भाई’ है। प्रशासनिक पकड़ उसी के पास है और भावी मुख्यमंत्री भी शायद उसका ही होगा। जदयू को फिलहाल सत्ता जरूर मिली, लेकिन राजनीतिक शक्ति कम हो गई है। नीतीश को वादों पर काम करना होगा। गठबंधन को संतुलित रखना होगा। भाजपा के बढ़ते प्रभाव को नियंत्रित करना होगा और जनता में विश्वास बनाना होगा।
