मुंशी प्रेमचंद की कहानी “कफन” महज कहानी नहीं है बल्कि एक दर्पण है, जो समाज की उस भयावह सच्चाई को दिखाती है जहाँ गरीबी, बेबसी, संवेदनहीनता और नशा एक साथ मिलकर इंसान को इंसानियत से दूर कर देता है। कहानी में घीसू और माधव अपनी मरती हुई पत्नी/बहू की सुध लेने की जगह शराब पीने में रम जाता है। एक तरफ मौत, दूसरी तरफ नशा का उत्सव, यह विरोधाभास कहानी को अमर बनाता है।
लेकिन, क्या यह केवल कहानी थी? नहीं। 17 नवम्बर, 2025 को यह कहानी फिर जीवित हो उठी, पटना के फतुहा श्मशान घाट में। जहाँ एक ओर लाश जल रही थी… दूसरी ओर नशे का धुआँ उड़ रहा था। यह दृश्य केवल विचलित ही नहीं करता, बल्कि भीतर तक हिला देता है कि समाज किस दिशा में जा रहा है।
पटना से कुछ दूरी पर स्थित फतुहा घाट गंगा किनारे बसे उन श्मशान स्थलों में से एक है, जहाँ दिन भर किसी न किसी की चिता जलती रहती है। मृत्यु यहाँ अपरिचित नहीं है, लेकिन मौत के बीच भी जीवन जैसे अपना तमाशा जारी रखता है।
17 नवम्बर के दोपहर का समय था एक तरफ एक ताजा चिता जल रही थी। दूसरी तरफ लकड़ी सजाई जा रही थी दूसरी अंतिम यात्रा के लिए। थोड़ी दूरी पर तीसरी बारी के इंतजार में खड़ी एक भीड़, चेहरों पर थकान, उदासी, किंतु मोबाइल में स्क्रॉल करते कुछ लोग और इसी भीड़ में, एक कोने में पाँच लड़कों का एक समूह बैठा था, जिनके हाथ में कोल्ड ड्रिंक की खाली बोतलें थीं। लेकिन उनमें कोल्ड ड्रिंक नहीं था। उनमें धुआँ भरने का इंतजाम था।
कुछ लड़के बोतल में थोड़ा पानी डालते, फिर उसमें धुआँ भरते, और फिर फूँक मारते हुए गाढ़ा ‘धुआँ’ खींचते। धीमे-धीमे, मजे लेते हुए, हँसते हुए। न कोई भय, न कोई शर्म, न कोई संवेदना। आगे चिता की आग से उठता धुआँ और थोड़ा आगे बैठकर नशे के धुएँ में डूबते लड़के। यह विरोधाभास किसी भी संवेदनशील मन को झकझोर देने के लिए पर्याप्त था।
जबकि एक पत्रकार-नजर, लेखन-नजर या समाज-नजर से देखा जाए तो यह दृश्य प्रेमचंद के “कफन” का सजीव पुनः अभिनय था।
1918 के आस-पास लिखी गई कहानी और 2025 का युग, दोनों में सौ साल से अधिक का अंतर है। फिर भी मानव व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखता। प्रेमचंद की कहानी में एक ओर घर में बहू प्रसव पीड़ा में मर रही है। दूसरी ओर घीसू–माधव आग के पास बैठकर शराब पी रहा है। “कफन” के नाम पर मिले पैसे भी शराब में उड़ा देते हैं।
वहीं फतुहा के श्मशान में एक तरफ चिता धधक रही है। दूसरी तरफ अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही है। पर जिनके अपने दुनिया छोड़ दिए थे, वही युवा कुछ कदम दूर नशे की तलाश में मगन थे। सवाल उठता है कि क्या समय बदला है या साधन। पहले शराब, आज कोल्ड ड्रिंक की बोतल में भरा धुआँ। पहले ‘कफन के पैसे’, आज बोतल की जुगाड़। पर नशे का आनंद वही। संवेदनहीनता वही। मानव स्वभाव वही। और यह समानता भयावह है, क्योंकि यह समाज की दिशा पर प्रश्नचिन्ह लगाती है।
बिहार में शराबबंदी ने शराब की उपलब्धता पर रोक जरूर लगाई है, लेकिन नशे की आदत मरी नहीं है।लोग नशा के नए रास्ते खोज लिया है नशीले धुएँ, कोल्ड ड्रिंक बोतल का ‘होममेड स्मोक सेट’, पाउडर, सुंघने वाले पदार्थ और ‘धर्म–प्रसाद’ के नाम पर विदेशी बीजों का सेवन। फतुहा घाट पर लड़कों का “धुआँ” किसी रहस्य की तरह नहीं था, यह आज के युवाओं में बढ़ते स्ट्रीट-नशे का एक सामान्य रूप बन चुका है।वे कहते भी हैं “शराब तो बंद है, लेकिन यह तो बस धुआँ है… भगवान शिव का प्रसाद जैसा…” यह ‘प्रसाद’ का खेल समाज की संवेदनशीलता और धार्मिक आस्थाओं दोनों का उपहास करता है।
श्मशान घाट वह जगह है जहाँ जीवन की अंतिम सच्चाई सामने होती है। किसी भी इंसान को यहाँ आकर थोड़ी देर के लिए ही सही, जीवन का सार समझ आ जाता है। लेकिन क्या आज की पीढ़ी इस आत्मबोध से दूर हो चुका है?
मृत्यु का दृश्य मानसिक दबाव पैदा करता है। कुछ लोग इससे भागने के लिए नशे का सहारा लेते हैं। जहाँ दो लड़के धुआँ खींच रहे हों, तीसरा भी उनकी नकल कर लेता है। आदत इतनी गहरी है कि अंतिम संस्कार में भी नहीं छूटती है। युवा सोचते हैं कि “मौत तो बूढ़ों की होती है, हम तो अभी जिएँगे…” जीवन-मृत्यु के प्रति सम्मान की कमी, श्मशान जैसे स्थान भी ‘सामान्य जगह’ बन गए।
क्या समाज संवेदनहीन हो चुका है? यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण है। जहाँ कभी श्मशान घाट में लोग चुप रहते थे, श्रद्धा रखते थे, वहीं आज कई लोग वहाँ मोबाइल पर रील देखते हैं, धुआँ खींचते हैं, हँसते-ठिठियाते हैं और सेल्फी लेते हैं। यह बदलाव मात्र यूँ ही नहीं आया है। समाज धीरे-धीरे संवेदना खोता जा रहा है।
संवेदनहीनता का कारण है निरंतर सूचना, मनोरंजन और कंटेंट का ओवरलोड, जीवन के मूल्य पर कम होती बातचीत, परिवारों में अनुशासन और संस्कार की कमी, सोशल मीडिया का प्रभाव और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता की कमी। श्मशान जैसे स्थान भी आज अपने मूल अर्थ खोते जा रहा है।
युवाओं में यह प्रवृत्ति क्यों बढ़ती जा रही है? क्या यह केवल साहस और स्टाइल का मामला है? या इसके पीछे गहरी मनोवैज्ञानिक वजहें छिपी हैं? कई युवा खुद को ‘कूल’, ‘दमदार’, या ‘अलग’ दिखाना चाहता है। नशा उनके लिए पहचान का माध्यम बन जाता है। शिक्षा, करियर, परिवार, हर जगह दबाव। नशा आसान ‘एस्केप’ लगता है। माता–पिता काम में व्यस्त, बच्चे मोबाइल और दोस्तों में खोए। भावनाओं की दूरी नशे को जगह देती है। अनेक वीडियो नशे को ‘स्टाइल’ बनाकर दिखाते हैं। युवा देखकर उसी की नकल करने लगते हैं। किशोरावस्था में हर चीज ‘ट्राय’ करने की चाह होती है। लेकिन यह ट्रायल कई बार जिन्दगी को गहरे अंधेरे में धकेल देता है।
श्मशान एक आध्यात्मिक स्थल माना जाता है। यहाँ मन शांत होता है, अहंकार टूटता है, और जीवन का अस्थायी स्वरूप समझ आता है। लेकिन जब उसी स्थल पर धुआँ भरा जा रहा हो, बोतलें पास हो, हँसी-ठिठोली चल रही हो, मोबाइल रीलें बन रही हों, तो यह केवल अपराध नहीं, एक पूरी संस्कृति पर आघात है। यह चोट है संस्कारों पर, परम्पराओं पर, भावनात्मक मूल्यों पर और परिवारिक जिम्मेदारियों पर।
जब लेखक ने यह दृश्य देखा, वह विचलित था। लेकिन बाकी लोग…? कुछ लोग तमाशा देख रहे थे, कुछ लोग अनदेखा कर रहे थे, कुछ हँस रहे थे और कुछ वीडियो भी बना रहे थे। लेकिन इसे रोकने की हिम्मत किसी में नहीं थी और यही सबसे बड़ी समस्या है कि हम देखते हैं पर बोलते नहीं हैं। हम जानते हैं लेकिन रोकते नहीं हैं। हम समझते हैं पर जिम्मेदारी नहीं लेते हैं। जबकि सभी लोग जानते हैं कि चुप्पी, नशे को बढ़ाती है।
बिहार में शराबबंदी लागू है। नशीले पदार्थों के सेवन पर अलग कानून हैं। सार्वजनिक जगहों पर नशा करना अपराध है। श्मशान घाट पर धुआँ सेवन करना स्पष्ट रूप से अवैध है, पर लगता है कि निगरानी नहीं होने से यह लगातार हो रहा है। यह प्रशासन, समाज और परिवार तीनों की जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे कृत्यों को रोका जाए। समस्या केवल कानून का मामला नहीं, यह सामाजिक और सांस्कृतिक सुधार से जुड़े मुद्दा भी है।
प्रेमचंद ने कहानी के अंत में एक सवाल छोड़ा था कि क्या घीसू-माधव निर्दयी थे या परिस्थितियों के शिकार? आज के समय में भी सवाल वही है कि क्या फतुहा घाट के वे युवा बुरे थे? या समाज ने उन्हें ऐसा बना दिया? जबकि सच यह है कि हम सब कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। यदि हम आज नहीं जागे, तो “कफन” केवल कहानी नहीं, बल्कि समाज की वास्तविकता बन जाएगी।
फतुहा श्मशान का वह दृश्य सिर्फ एक दृश्य नहीं था बल्कि यह समाज की वर्तमान मानसिकता की रिपोर्ट है। एक ओर चिता से उठता धुआँ, जो जीवन की नश्वरता का संदेश देता है। दूसरी ओर बोतल से उठता धुआँ, जो जीवन के मूल्य के प्रति उपेक्षा का प्रतीक है। कहानी “कफन” में घीसू-माधव नशे में डूबे थे, आज फतुहा के घाट पर लड़के धुएँ में डूबे थे। समय बदला है, पर इंसान की मानसिकता नहीं।
