रूस के सर्वोच्च न्यायालय ने एक ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए तालिबान को "आतंकी संगठन" की सूची से हटा दिया है। यह निर्णय उस पृष्ठभूमि में लिया गया है जहाँ 2003 से तालिबान को रूस में आतंकी संगठन माना जाता रहा है। यह कदम रूस की अफगानिस्तान के साथ बदलती रणनीतिक सोच और कूटनीतिक समीकरणों की झलक देता है।
इतिहास की पृष्ठभूमि:
तालिबान को 2003 में रूस ने आतंकी संगठन घोषित किया था। इसके पीछे मुख्य कारण था 1980 के दशक में सोवियत संघ और अफगान मुजाहिदीनों के बीच हुआ संघर्ष। जब सोवियत सेना अफगानिस्तान में मौजूद थी, तब मुजाहिदीनों ने उसके खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया था। इन मुजाहिदीनों को ही तालिबान का पूर्ववर्ती रूप माना जाता है। इसलिए रूस ने सुरक्षा कारणों से तालिबान को आतंकी करार दिया था।
नया फैसला और उसके मायने:
अब दो दशक बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि तालिबान को आतंकी संगठन की सूची में बनाए रखने का कोई स्पष्ट और वर्तमान कारण नहीं है। हालांकि, यह स्पष्ट किया गया है कि यह निर्णय तालिबान सरकार को आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं देता। लेकिन इससे रूस और तालिबान शासित अफगानिस्तान के बीच संवाद और सहयोग के रास्ते खुल सकते हैं।
यह फैसला ऐसे समय पर आया है जब रूस लगातार अफगानिस्तान में स्थिरता को लेकर चिंतित है और क्षेत्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर अफगान नेतृत्व से संपर्क बनाए रखना चाहता है। इस निर्णय से दोनों देशों के बीच उच्च-स्तरीय बैठकों और कूटनीतिक संवाद में असहजता कम होगी।
आर्थिक और क्षेत्रीय प्रभाव:
रूस के इस कदम को दक्षिण एशिया और मध्य एशिया की कूटनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है। अफगानिस्तान, जो वर्तमान में गंभीर आर्थिक संकट और अंतरराष्ट्रीय अलगाव का सामना कर रहा है, उसे रूस जैसे देश की ओर से यह कदम एक सकारात्मक संकेत के रूप में मिल सकता है। इसके माध्यम से रूस, चीन और ईरान की तरह अफगानिस्तान में अपनी कूटनीतिक और आर्थिक पकड़ मजबूत कर सकता है।
विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम अफगानिस्तान के खनिज संसाधनों में रूस की संभावित रुचि को भी इंगित करता है। इसके अलावा, अफगानिस्तान के जरिए मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के बीच व्यापारिक गलियारों को बढ़ावा देने की रणनीति भी रूस के हित में हो सकती है।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएं:
इस फैसले को लेकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रिया मिली-जुली है। कुछ पश्चिमी देश इस निर्णय को एक “तथ्यगत यथार्थवाद” के तौर पर देख रहे हैं, जबकि कुछ देशों ने आशंका जताई है कि इससे तालिबान को अंतरराष्ट्रीय मान्यता की दिशा में प्रोत्साहन मिल सकता है, बिना उनके मानवाधिकारों के रिकॉर्ड में किसी ठोस सुधार के।
भारत सहित कई देश अभी भी तालिबान के साथ सतर्क रवैया अपनाए हुए हैं, और इस निर्णय के बाद क्षेत्रीय सुरक्षा को लेकर नई चर्चाएं शुरू हो सकती हैं।
रूस का यह निर्णय न केवल उसकी अफगान नीति में बदलाव को दर्शाता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि वैश्विक राजनीति में स्थायी दुश्मन या दोस्त नहीं होते, बल्कि केवल राष्ट्रीय हित सर्वोपरि होते हैं। जहां एक ओर यह कदम क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ा सकता है, वहीं दूसरी ओर इससे तालिबान को अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि सुधारने की जिम्मेदारी भी और अधिक गंभीरता से निभानी होगी।
अगले कुछ महीनों में यह देखा जाएगा कि यह निर्णय दोनों देशों के आपसी संबंधों को किस दिशा में ले जाता है, और क्या इससे अफगानिस्तान की जनता को वास्तविक लाभ मिल पाता है या नहीं।