आज के समय में अपने घर का सपना हर आम आदमी देखता है। वह वर्षों की कमाई, जीवन भर की बचत और बैंकों से लोन लेकर एक फ्लैट खरीदता है, ताकि अपने परिवार को एक स्थायी छत दे सके। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है कि आप जिस 1000 स्क्वायर फीट फ्लैट के लिए भारी-भरकम कीमत चुका रहे हैं, उसमें से केवल 600 स्क्वायर फीट ही वास्तव में आपके उपयोग में आता है? यानि 40% हिस्सा सिर्फ नाम के लिए होता है, जिसमें सीढ़ियां, लिफ्ट, लॉबी, क्लबहाउस, गार्डन जैसी वो सुविधाएं आती हैं जिन्हें आप हर दिन इस्तेमाल भी नहीं करते। इसे ही 'लोडिंग फैक्टर' कहा जाता है और यह अब एक गंभीर चिंता का विषय बन चुका है।
एनारॉक प्रॉपर्टी कंसल्टेंट्स की ताजा रिपोर्ट के अनुसार, देश के सात सबसे बड़े महानगरों में अपार्टमेंट्स का औसत लोडिंग फैक्टर 2019 में 31% था, जो अब 2025 में बढ़कर 40% तक पहुंच गया है। यह वृद्धि सीधे तौर पर फ्लैट के कारपेट एरिया को प्रभावित करती है, यानि उस क्षेत्र को, जिसमें आप वास्तव में रह सकते हैं, फर्नीचर रख सकते हैं, अपने परिवार के साथ समय बिता सकते हैं। यदि हम सीधे शब्दों में कहें, तो आपकी जेब से जो पैसा निकल रहा है, उसके बदले में आपको अब कम स्थान मिल रहा है।
दिल्ली में जहां पहले 69% कारपेट एरिया मिलता था, वह अब घटकर 60-61% पर आ गया है। मुंबई में यह और भी चौंकाने वाला है, जहां 59% से भी कम कारपेट एरिया बचा है। बैंगलोर, पुणे, हैदराबाद, चेन्नई और कोलकाता जैसे प्रमुख शहरों में भी स्थिति कुछ खास अलग नहीं है। बैंगलोर का कारपेट एरिया 67% से घटकर 57% तक पहुंच चुका है। चेन्नई में यह अब 64%, कोलकाता में 61% और पुणे व हैदराबाद में यह लगभग 60% तक सिमट चुका है।
बात केवल आंकड़ों की नहीं है, बल्कि उस उपभोक्ता की है जो अपने जीवन की सबसे बड़ी खरीदारी करते वक्त यह मानकर चलता है कि उसे जितने क्षेत्र का वादा किया गया है, उतना ही वह इस्तेमाल भी कर पाएगा। मगर हकीकत कुछ और ही होती है। बिल्डर 1000 स्क्वायर फीट का सपना बेचता है, लेकिन असल में फ्लैट के अंदर केवल 600 स्क्वायर फीट का ही उपयोग करने लायक क्षेत्र मिलता है। बाकी का 400 स्क्वायर फीट कॉमन एरिया के नाम पर आपसे वसूला जाता है, जिसमें लिफ्ट, सीढ़ियां, लॉबी, टेरेस, क्लब हाउस, गार्डन आदि आते हैं।
यह जानना जरूरी है कि “लोडिंग फैक्टर” क्या होता है। यह सुपर-बिल्ट-अप एरिया और कारपेट एरिया के बीच का अंतर होता है। कारपेट एरिया वह होता है जहां आप कालीन बिछा सकते हैं, यानी जो सच में आपके काम का है। जबकि सुपर-बिल्ट-अप एरिया में उन सभी स्थानों को जोड़ दिया जाता है जो आम उपयोग में आते हैं।
रियल एस्टेट रेगुलेटरी अथॉरिटी (रेरा) के नियमों के अनुसार, बिल्डर को कारपेट एरिया का उल्लेख करना जरूरी होता है, लेकिन लोडिंग फैक्टर पर कोई स्पष्ट कानून नहीं है। यही कारण है कि बिल्डर्स इस ‘खुले खेल’ का फायदा उठाकर उपभोक्ताओं को भ्रमित करता हैं।
अब प्रश्न उठता है कि यह लोडिंग फैक्टर आखिर क्यों बढ़ रहा है? इसका सीधा उत्तर है- आधुनिक सुविधाओं की बढ़ती मांग। आज का उपभोक्ता सिर्फ एक चारदीवारी वाला घर नहीं चाहता। वह चाहता है कि उसकी हाउसिंग सोसाइटी में जिम हो, क्लबहाउस हो, पार्क हो, इनडोर गेम्स का इंतजाम हो, बच्चों के लिए प्ले एरिया हो, भव्य लॉबी हो, सुरक्षा के लिए हाईटेक कैमरे हों और साथ ही एक प्रीमियम अनुभव भी हो। लेकिन इस सुविधा की कीमत सिर्फ मानसिक संतोष तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह आपकी जेब और फ्लैट के वास्तविक आकार पर सीधा असर डालती है।
इन सुविधाओं की लागत बिल्डर सीधे-सीधे लोडिंग फैक्टर के जरिए वसूलता है। और जब लोडिंग बढ़ता है, तो कारपेट एरिया घटता है। अब यह पूरी प्रक्रिया उपभोक्ता को नुकसान में डालती है क्योंकि वह सोचता है कि वह 1000 स्क्वायर फीट के फ्लैट में रह रहा है, जबकि असल में उसे केवल 600 स्क्वायर फीट ही मिल रहा है।
इससे न केवल उसका रहन-सहन प्रभावित होता है, बल्कि भविष्य में जब वह फ्लैट बेचना चाहे तो भी दिक्कत आती है। एक होशियार खरीदार यह जरूर देखता है कि फ्लैट का कारपेट एरिया कितना है। और जब उसे पता चलता है कि 1000 स्क्वायर फीट के नाम पर केवल 600 स्क्वायर फीट का उपयोग करने योग्य क्षेत्र है, तो वह उस प्रॉपर्टी की कीमत को घटाकर देखता है। इस तरह मकान खरीदने वाले को दोहरी मार पड़ती है। पहला एक बार खरीदते समय और दूसरा बेचते समय।
भारतीय रियल एस्टेट बाजार में यह एक तरह का अघोषित छलावा बन चुका है। हालांकि कुछ डेवलपर्स पारदर्शिता बरतते हुए केवल कारपेट एरिया के आधार पर मूल्य निर्धारण करते हैं, लेकिन बहुसंख्यक बिल्डर्स अब भी सुपर-बिल्ट-अप एरिया के आधार पर कीमत तय करते हैं, जिससे उपभोक्ता भ्रम में पड़ जाता है।
रेरा कानून ने कई मायनों में सुधार किया है लेकिन लोडिंग फैक्टर को लेकर कोई सीमा तय नहीं करना उपभोक्ता के हितों की अनदेखी है। एक खरीदार के लिए यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि वह जो क्षेत्र खरीद रहा है, उसमें से कितना वास्तव में उसका उपयोग का है और कितना हिस्सा केवल ‘झांसा’ है। इसके लिए सरकार को चाहिए कि वह लोडिंग फैक्टर की अधिकतम सीमा तय करे, ताकि बिल्डर्स इस नियम का दुरुपयोग न कर सकें।
इसके साथ ही उपभोक्ताओं को भी सतर्क रहना होगा। उन्हें केवल ब्रोकर्स या डेवलपर्स की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, बल्कि हर पहलू की जांच करनी चाहिए। उन्हें फ्लैट की योजना, निर्माण नक्शा, मंजूरियों, कारपेट एरिया के सटीक आंकड़े और प्रोजेक्ट की पारदर्शिता का मूल्यांकन खुद करना चाहिए।
इसके अलावा, ऐसे कानून की आवश्यकता है, जो डेवलपर्स को बाध्य करे कि वे केवल कारपेट एरिया के आधार पर ही विक्रय मूल्य निर्धारित करें। इससे न केवल पारदर्शिता आएगी, बल्कि उपभोक्ताओं को यह भी समझ में आएगा कि वह अपने पैसों के बदले क्या और कितना पा रहा है।
आज जब भारत में रियल एस्टेट सेक्टर फिर से गति पकड़ रहा है, तब यह और भी जरूरी हो जाता है कि आम नागरिकों को ऐसे छिपे हुए खतरों के बारे में जागरूक किया जाए। एक मकान केवल चार दीवारें नहीं होता है, वह एक सपना होता है, जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि। और इस सपने को सच करते वक्त किसी भी प्रकार की धोखाधड़ी, भ्रम या चालाकी के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए।
तो अगली बार जब आप किसी बिल्डर से फ्लैट खरीदने जाएं, तो उससे सिर्फ यह मत पूछिए कि ‘कितने स्क्वायर फीट का फ्लैट है’, बल्कि यह पूछिए कि ‘उसमें से कितने स्क्वायर फीट का मैं असल में उपयोग कर सकूंगा?’ यही एक सवाल आपके लाखों रुपये बचा सकता है। सपनों के घर को हकीकत में बदलने से पहले उसकी सच्चाई जरूर जानिए, वरना सपनों के साथ-साथ हकीकत भी संकुचित हो सकती है।
