पिछले कुछ दशकों में जलवायु परिवर्तन ने पूरी दुनिया को अपने भयावह असर से झकझोर कर रख दिया है। सूखा, बाढ़, समुद्र स्तर में वृद्धि, और मौसमी घटनाएं अब असामान्य नहीं रहीं। लेकिन हाल ही में गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस में पेश एक शोध ने, जलवायु परिवर्तन से जुड़े एक और खतरनाक आयाम की ओर ध्यान आकर्षित किया है “पिघलते ग्लेशियरों के कारण ज्वालामुखी विस्फोटों का खतरा”। यह बात अब सिद्ध हो चुका है कि ग्लेशियरों के पिघलने से सिर्फ समुद्र का स्तर ही नहीं बढ़ रहा है, बल्कि पृथ्वी के भीतर की भूगर्भीय गतिविधियां भी प्रभावित हो रही हैं, जिससे ज्वालामुखी अधिक विस्फोटक और बार-बार फटने लगा है।
गोल्डश्मिट कॉन्फ्रेंस, जो पृथ्वी रसायन शास्त्र के क्षेत्र की एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी है, में वैज्ञानिकों ने एक चौंकाने वाला शोध प्रस्तुत किया है। इस शोध में बताया गया है कि दुनिया के 245 सक्रिय ज्वालामुखी ऐसे क्षेत्रों में स्थित है जहाँ ग्लेशियर मौजूद है या पास के 5 किलोमीटर के दायरा में फैला है। विशेष रूप से दक्षिणी चिली के छह ज्वालामुखियों पर अध्ययन किया गया है, जिसमें मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी प्रमुख था। शोधकर्ताओं ने पाया है कि जैसे-जैसे ग्लेशियर पिघल रहा हैं, वैसे-वैसे इन ज्वालामुखियों की गतिविधि तेज होता जा रहा है और विस्फोटों की तीव्रता में भी इजाफा हो रहा है।
ग्लेशियरों का भारी वजन पृथ्वी की सतह और उसके नीचे की मैग्मा परतों पर दबाव बनाए रखता है। यह दबाव ज्वालामुखी के अंदर गैसों और लावा को नियंत्रित करता है, जिससे विस्फोट नहीं होता है या बहुत सीमित होता है। लेकिन जब ग्लेशियर पिघलता है, यह दबाव अचानक कम हो जाता है, जिससे मैग्मा और गैस ऊपर की ओर तेजी से बढ़ता है और विस्फोट हो सकता है। इस प्रक्रिया को वैज्ञानिक “डिकंप्रेशन मेल्टिंग” कहते हैं, जिसमें दबाव के घटने से मैग्मा ज्यादा तेजी से पिघलने और ऊपर की ओर बढ़ने लगता है।
ऐसा नहीं है कि यह केवल सैद्धांतिक अनुमान है। आइसलैंड में 2010 में हुआ एयाफ्जाल्लाजोकुल ज्वालामुखी विस्फोट इसका जीता-जागता उदाहरण है। उस समय भी वैज्ञानिकों ने पाया था कि ग्लेशियरों के पिघलने के बाद दबाव में गिरावट आई है और ज्वालामुखी विस्फोट हुआ है।
वैज्ञानिकों ने विशेष रूप से दुनिया के उन क्षेत्रों की पहचान की है जहाँ ग्लेशियर और ज्वालामुखी दोनों मौजूद है। यह क्षेत्र हैं अंटार्कटिका, रूस का कमचटका प्रायद्वीप, न्यूजीलैंड का दक्षिणी द्वीप, उत्तर अमेरिका के रॉकी पर्वत और अलास्का, आइसलैंड और नॉर्वे के ग्लेशियर क्षेत्रों, दक्षिणी चिली और एंडीज पर्वत श्रृंखला। इन क्षेत्रों में ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण भूगर्भीय हलचलें बढ़ रही हैं, जिससे वहां बसे समुदायों के लिए खतरा कई गुना बढ़ गया है।
दक्षिणी चिली का मोचो-चोशुएंको ज्वालामुखी, जो वर्षों से शांत था, अब फिर से सक्रियता के संकेत दे रहा है। यह ज्वालामुखी एक भारी ग्लेशियर से ढका हुआ है। शोधकर्ताओं ने पाया कि इसके नीचे की मैग्मा चेंबर पर से दबाव कम हो रहा है, जिससे इसमें उबाल सा आ गया है। यदि यह ज्वालामुखी विस्फोट करता है तो इसका प्रभाव सिर्फ स्थानीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर भी होगा, जैसे कि हवाई यातायात में बाधा, वायुमंडलीय प्रदूषण और जलवायु पर प्रभाव।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि ज्वालामुखी विस्फोट केवल स्थानीय आपदा नहीं हैं, ये वैश्विक जलवायु को भी प्रभावित कर सकता है। विस्फोटों के दौरान वायुमंडल में भारी मात्रा में सल्फर डाइऑक्साइड, राख और गैस जाता है, जो सूरज की किरणों को रोककर ग्लोबल कूलिंग का कारण बन सकता है। लेकिन जब यह विस्फोट अक्सर और तीव्र होता है, तो वह ओजोन परत को नुकसान, एसिड रेन और फसल उत्पादन में गिरावट, जैसी गंभीर समस्याएं भी ला सकता है। शोधकर्ताओं का मानना है कि मानवजनित ग्रीनहाउस गैस इस पूरे संकट का मूल कारण हैं। कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, और नाइट्रस ऑक्साइड जैसे गैसों के कारण धरती का औसत तापमान बढ़ रहा है। इसका सीधा असर ग्लेशियरों पर हो रहा है, जो पहले स्थिर था, अब वह रिकॉर्ड गति से पिघल रहा है।
हिमालय के ग्लेशियर हर साल औसतन 20 मीटर पीछे हट रहा है। ग्रीनलैंड और अंटार्कटिका से प्रति वर्ष 500 गीगाटन बर्फ समुद्र में मिल रही है। अलास्का के अधिकांश ग्लेशियर अब तक 90% तक सिकुड़ चुका है। यह सब संकेत है कि यह जिस ओर बढ़ रहा है, वह एक आपदा की ओर है।
इसका समाधान है ग्रीनहाउस गैसों में कटौती कोयला, तेल और गैस का उपयोग सीमित करना। नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (सौर, पवन, जलविद्युत) को बढ़ावा देना। सैटेलाइट और सेंसर आधारित निगरानी तंत्र विकसित करना। संभावित विस्फोट क्षेत्रों को पहले ही चिन्हित करना। जोखिम वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को स्थानांतरित करना। आपातकालीन योजनाएं तैयार करना। संयुक्त राष्ट्र और वैश्विक जलवायु निकायों को मिलकर कदम उठाने होंगे। अमीर और प्रदूषणकारी देशों को अधिक जिम्मेदारी लेनी होगी।
शोधकर्ताओं ने स्पष्ट कहा है कि अगर अभी कदम नहीं उठाए गए, तो भविष्य में और भी तीव्र, अधिक विनाशकारी और बारंबार होने वाले ज्वालामुखी विस्फोटों का सामना करना पड़ेगा। यह सिर्फ प्राकृतिक घटनाएं नहीं रहेगी, बल्कि मानवजनित जलवायु परिवर्तन की कीमत बन जाएंगी।
ग्लेशियरों का पिघलना अब केवल समुद्र के किनारों को ही नहीं डुबो रहा है, बल्कि पृथ्वी के भीतर सोई हुई ज्वालामुखीय शक्तियों को भी जगा रहा है। यह एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें एक आपदा, दूसरी बड़ी आपदा को जन्म देती है। इसलिए, यह समय है जब नीति-निर्माताओं, वैज्ञानिकों और आम जनता को मिलकर निर्णायक कदम उठाने होंगे।
