भारत एक ऐसा देश है जिसकी सांस्कृतिक और शैक्षणिक विरासत सदियों पुरानी है। तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालयों ने न केवल भारत को बल्कि पूरी दुनिया को ज्ञान का प्रकाश दिया। लेकिन स्वतंत्रता के बाद जिस प्रकार से भारतीय शिक्षा व्यवस्था को राजनैतिक स्वार्थ और वोटबैंक की राजनीति का शिकार बनाया गया, उसका सबसे बड़ा उदाहरण है कांग्रेस पार्टी द्वारा किए गए निर्णय।
यह लेख किसी राजनीतिक दुर्भावना से प्रेरित नहीं, बल्कि एक विश्लेषण है कि कैसे दशकों तक सत्ता में रही कांग्रेस सरकारों ने शिक्षा व्यवस्था को अपने हितों के लिए मोहरा बनाया और इसके दूरगामी दुष्परिणाम आज देश भुगत रहा है।
अंग्रेजी माध्यम और भारतीय भाषाओं की उपेक्षा
आज़ादी के बाद भारत को अपने सांस्कृतिक और भाषाई गौरव को बनाए रखते हुए शिक्षा नीति बनानी चाहिए थी। लेकिन कांग्रेस सरकार ने अंग्रेजी को प्रशासन और उच्च शिक्षा का केंद्र बना दिया। इससे भारत की अधिकांश जनता, जो ग्रामीण और भारतीय भाषाओं से जुड़ी थी, शिक्षा व्यवस्था से कटती चली गई।
सामाजिक इंजीनियरिंग और आरक्षण की राजनीति
कांग्रेस ने शिक्षा को समान अवसर देने का माध्यम न बनाकर, उसे जातिगत आरक्षण की राजनीति में उलझा दिया। सामाजिक न्याय का मुखौटा पहनकर कांग्रेस ने आरक्षण को वोटबैंक बनाने का साधन बनाया। इससे प्रतिभा आधारित शिक्षा व्यवस्था कमजोर हुई और मेधावी छात्रों में हताशा फैली।
नई शिक्षा नीति की अनुपस्थिति
कांग्रेस ने 1986 के बाद शिक्षा नीति में कोई ठोस बदलाव नहीं किया। यह 34 वर्षों तक चली एक अप्रासंगिक नीति थी, जो बदलते वैश्विक परिदृश्य के अनुसार बच्चों को तैयार नहीं कर सकी। शिक्षा का स्तर गिरता गया, जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था तकनीक और नवाचार की ओर बढ़ती रही।
सरकारी स्कूलों की बदहाली
कांग्रेस शासन में सरकारी स्कूल भ्रष्टाचार, अनुपस्थित शिक्षकों और बुनियादी ढांचे की कमी से जूझते रहे। जबकि निजी स्कूलों को बढ़ावा दिया गया, जिससे शिक्षा व्यापार बनती चली गई। गरीब और निम्नवर्गीय बच्चे सरकारी स्कूलों में रह गए, जहां उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिलना मुश्किल था।
वामपंथी विचारधारा का प्रभाव
कांग्रेस के संरक्षण में शिक्षा संस्थानों, विशेष रूप से इतिहास, समाजशास्त्र और साहित्य के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा को बढ़ावा मिला। भारत के गौरवपूर्ण इतिहास को दबाया गया, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की भूमिका को तोड़ा-मरोड़ा गया, और देश के युवाओं को आत्मग्लानि से भर दिया गया।
पढ़ाई कम, राजनीति ज़्यादा
कॉलेज और विश्वविद्यालय कांग्रेस शासन में राजनीति का अड्डा बन गए। छात्र संगठनों को बढ़ावा दिया गया, जिनका काम पढ़ाई कम और हड़ताल-जुलूस ज़्यादा रहा। इससे शिक्षा का माहौल बुरी तरह प्रभावित हुआ।
शिक्षकों की भर्ती में भ्रष्टाचार
राज्य और केंद्र सरकारों में शिक्षकों की नियुक्तियों में भारी भ्रष्टाचार हुआ। काबिलियत के स्थान पर रिश्वत, जाति और सिफारिश ने जगह ले ली। इससे शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई।
कांग्रेस सरकारों की शिक्षा नीति के कारण भारत में न तो कौशल आधारित शिक्षा को बढ़ावा मिला, न ही विद्यार्थियों को आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुसार तैयार किया गया। नतीजा ये हुआ कि भारत में डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या बढ़ती रही और शिक्षा का असली उद्देश्य – सोचने की शक्ति और आत्मनिर्भरता – खो गया।
अब समय आ गया है कि शिक्षा को राजनीतिक चश्मे से नहीं, राष्ट्र निर्माण के दृष्टिकोण से देखा जाए। शिक्षा व्यवस्था को भारतीय मूल्यों, आधुनिक तकनीक और समावेशी सोच के साथ पुनर्निर्मित करने की ज़रूरत है — ताकि भारत एक बार फिर विश्वगुरु बन सके।
