21वीं सदी में जब विश्व ग्लोबलिजेशन, तकनीक और मानवाधिकारों की नई परिभाषाओं से गुजर रहा है, वहीं कई देश अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान को बनाए रखने के लिए कट्टर धार्मिक परंपराओं पर पुनर्विचार कर रहा है। इसी संदर्भ में मध्य एशिया के पांच मुस्लिम देशों ने सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं द्वारा चेहरा ढंकने यानि बुर्का या नकाब पहनने पर प्रतिबंध लगाया है। हाल ही में कजाकिस्तान ने इस सिलसिले में नया कानून पारित कर यह स्पष्ट संदेश दिया कि धार्मिक कट्टरता के नाम पर किसी भी विदेशी परिधान या परंपरा को स्वीकार नहीं किया जाएगा।
2025 में कजाकिस्तान के राष्ट्रपति कासिम जोमार्ट तोकायेव ने एक ऐतिहासिक कानून पर हस्ताक्षर किया है, जिसके तहत सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा पूरी तरह ढकने वाले कपड़ों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इस कानून के पीछे मुख्य तर्क दिया गया है कि यह प्रतिबंध राष्ट्रीय सुरक्षा, सांस्कृतिक पहचान और धार्मिक कट्टरवाद के खिलाफ एक कदम है। राष्ट्रपति ने यह भी स्पष्ट किया है कि यह कानून इस्लाम विरोधी नहीं है, बल्कि देश की पारंपरिक संस्कृति को संरक्षित करने का प्रयास है।
कजाकिस्तान के राष्ट्रपति कासिम जोमार्ट तोकायेव ने अपने संबोधन में कहा है कि- "काले पर्दे और चेहरे को छुपाने वाले वस्त्र हमारी कजाक संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं। यह विदेशी धार्मिक प्रभावों की देन हैं, जिन्हें अब हम अपनी पहचान पर हावी नहीं होने देंगे।"
मध्य एशियाई क्षेत्र में धार्मिक कट्टरता और विदेशी धार्मिक परंपराओं के प्रसार को रोकने के लिए कई देश पहले ही बुर्का और नकाब पर प्रतिबंध लगा चुका है।
किर्गिजस्तान में राष्ट्रपति सदिर जापारोव की सरकार ने जनवरी 2025 में बुर्के पर प्रतिबंध लागू किया है। सरकार ने इसे देश की पारंपरिक संस्कृति की रक्षा का मामला बताया है। कानून में उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना तय किया गया है।
ताजिकिस्तान में राष्ट्रपति इमोमाली राखमोन की सरकार ने 2023 में विदेशी पोशाकों पर रोक लगाई थी। ताजिक सरकार ने कहा था कि नकाब और बुर्का ताजिक संस्कृति का हिस्सा नहीं हैं और यह कट्टर धार्मिक संगठनों के प्रभाव का परिणाम हैं।
उजबेकिस्तान ने पहले ही नकाब और बुर्का पहनने को प्रतिबंधित किया हुआ है। देश में इसे सार्वजनिक स्थलों पर पहनने की अनुमति नहीं है। वहाँ की सरकार इसे महिलाओं की स्वतंत्रता और सामाजिक समरसता के लिए आवश्यक मानती है।
तुर्कमेनिस्तान में आधिकारिक तौर पर बुर्का बैन नहीं किया गया है, लेकिन वहाँ की सरकार अनौपचारिक रूप से इस पर रोक लगाती है। देश में धार्मिक कट्टरता के किसी भी रूप को प्रोत्साहित नहीं किया जाता है।
2025 में नया कानून बनाकर कजाकिस्तान ने इस सूची में औपचारिक रूप से प्रवेश कर लिया है। सरकार ने पारंपरिक वस्त्रों को बढ़ावा देने की बात कही और नकाब-बुर्के को विदेशी धार्मिक प्रभाव बताया।
इस प्रतिबंध को लेकर मुस्लिम जगत में दो तरह की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। एक ओर इसे धार्मिक स्वतंत्रता के हनन के रूप में देखा जा रहा है, तो दूसरी ओर इसे कट्टरवाद पर नकेल कसने की पहल कहा जा रहा है। कजाकिस्तान के राष्ट्रपति ने स्पष्ट किया है कि नकाब या बुर्का इस्लाम में अनिवार्य नहीं है। यह एक सामाजिक परंपरा है जिसे समय-समय पर धार्मिक पहचान से जोड़ दिया गया है।
प्रश्न उठता है कि क्या महिलाओं के वस्त्र चयन को सरकार नियंत्रित कर सकती है? क्या बुर्का पहनना धार्मिक स्वतंत्रता है या सामाजिक दबाव? और क्या ऐसे प्रतिबंध धर्मनिरपेक्षता और संविधान के अनुकूल हैं?
समर्थन में लागों का तर्क है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के दृष्टिकोण से आतंकवादी नकाब का दुरुपयोग कर सकता हैं। सांस्कृतिक रक्षा के लिए, स्थानीय परंपराएं, विदेशी प्रभावों से ग्रस्त हो रही हैं। महिला सशक्तिकरण के प्रति, नकाब महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में शामिल होने से रोकता है।
विरोध में तर्क दिया जा रहा है कि यह धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है, हर व्यक्ति को अपना पोशाक चुनने का अधिकार है। महिलाओं की स्वायत्तता में हस्तक्षेप हो रहा है, जबकि सभी महिलाएं दबाव में बुर्का नहीं पहनती है। भेदभाव की आशंका है, ऐसा करने से मुस्लिम महिलाओं को अलग-थलग किया जा सकता है।
सिर्फ मध्य एशिया ही नहीं, बल्कि श्रीलंका में भी बुर्के पर प्रतिबंध लागू किया गया है। यह प्रतिबंध 2019 के चर्च हमलों के बाद लगाया गया है, जब नकाब पहने कुछ चरमपंथियों ने विस्फोट किए थे। सुरक्षा कारणों से सरकार ने यह कदम उठाया है और इसे सांप्रदायिक तनाव को रोकने का उपाय बताया है।
इस्लाम में महिलाओं के लिए पर्दा अनिवार्य बताया गया है, लेकिन इसकी व्याख्या अलग-अलग क्षेत्रों और समुदायों में भिन्न है। कहीं सिर ढकना ही पर्याप्त माना जाता है, तो कहीं चेहरे को ढंकना भी जरूरी समझा जाता है। क़ुरान में स्पष्ट रूप से नकाब या बुर्का का उल्लेख नहीं है, बल्कि 'हिजाब' और 'जिलबाब' शब्दों का प्रयोग हुआ है, जिनका अर्थ होता है, संपूर्णता और मर्यादा के साथ कपड़े पहनना।
मध्य एशियाई देशों के इन फैसलों के पीछे एक बड़ा कारण 'अरबीकरण' को रोका जाना भी है। कई विद्वानों का मानना है कि नकाब या बुर्का मूलत: अरब परंपरा का हिस्सा हैं, जो मध्य एशिया की लोक संस्कृति में पहले कभी नहीं थे। यह प्रभाव 1990 के दशक के बाद बढ़ा है, जब धार्मिक शिक्षा और प्रचारक समूहों ने इस्लाम की कट्टर व्याख्याओं को फैलाना शुरू किया।
इन देशों की महिलाओं की राय भी इस मुद्दे पर बंटी हुई है। कुछ महिलाएं इसे दमनकारी कानून मानती हैं, वहीं कुछ इसे अपने समाज की मूल पहचान को बचाने का साहसिक कदम मानती हैं। एक महिला का कहा है कि “मैं हमेशा से चाहती थी कि बुर्का ना पहनूं, लेकिन सामाजिक दबाव था। अब सरकार के इस कदम से मुझे आजादी महसूस हो रही है।” दूसरी ओर एक युवती का कहना है कि “मेरा बुर्का मेरा चुनाव है, इसे कोई मुझसे छीन नहीं सकता। यह मेरी पहचान है।”
कजाकिस्तान, किर्गिजस्तान, ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान की पारंपरिक महिलाओं की पोशाकें आमतौर पर रंगीन, खुले चेहरे और सिर को ढकने वाली होती है। इन्हें पहनते समय चेहरे को छुपाने की कोई बाध्यता नहीं होती है। यह पोशाक स्थानीय संस्कृति, मौसम और कार्य की आवश्यकताओं के अनुसार बनाई गई हैं।
आजकल कई देश सुरक्षा कारणों से चेहरे को स्पष्ट रूप से पहचानने योग्य बनाए रखना चाहता हैं। नकाब या बुर्का में चेहरा ढंका होने से CCTV पहचान असंभव हो जाता है, जिससे अपराध और आतंकवाद की निगरानी में समस्या आती है। ऐसे में यह प्रतिबंध केवल संस्कृति ही नहीं बल्कि सुरक्षा का भी विषय बन जाता है।
मध्य एशियाई देशों में बुर्का बैन केवल एक धार्मिक पोशाक पर प्रतिबंध नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श का हिस्सा है। यह विमर्श उस द्वंद्व को दर्शाता है जो आधुनिकता, पारंपरिकता, स्वतंत्रता और सामूहिक सुरक्षा के बीच चल रहा है। इन देशों की सरकारें अब यह स्पष्ट संदेश देना चाहती हैं कि वे धार्मिक पहचान के नाम पर किसी भी कट्टर या विदेशी प्रभाव को अपने समाज में स्वीकार नहीं करेंगी। बुर्का बैन इसी चेतना का प्रतिफल है। एक नई सांस्कृतिक पहचान की खोज जिसमें चेहरे पर पर्दा नहीं, बल्कि खुलापन और आत्मविश्वास हो।
