वाणी, संगीत और ज्ञान की तांत्रिक देवी है - “मातंगी देवी”

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय सनातन परंपरा में देवी स्वरूपों की विविधता अद्भुत है। एक ओर जहां मां काली विकराल रूप में अधर्म का संहार करती हैं, वहीं दूसरी ओर मां सरस्वती ज्ञान की निर्मल धारा बहाती हैं। लेकिन जब सरस्वती तांत्रिक रूप में प्रकट होती हैं, तब वे मातंगी कहलाती हैं। दस महाविद्याओं में से एक अत्यंत रहस्यमयी और प्रभावशाली देवी है।

मातंगी न केवल संगीत, वाणी, लेखन, तर्क और कला की अधिष्ठात्री देवी है, बल्कि वह सांकेतिक रूप से उस ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती हैं जो शब्द, नाद और संप्रेषण से संबंधित है। उनकी उपासना व्यक्ति को वाक्-सिद्धि, विद्वत्ता, लेखन-कौशल और कलात्मक श्रेष्ठता प्रदान करती है।

मातंगी देवी का वर्णन प्राचीन ग्रंथों में अत्यंत प्रभावशाली रूप में किया गया है। उनका शरीर हरा होता है, जो प्रकृति, समृद्धि और सौंदर्य का प्रतीक है। उनके हाथों में होती है वीणा, जो सरस्वती के समान संगीत और ज्ञान का प्रतीक है। वह कभी कमल के आसन पर, तो कभी शमशान भूमि में बैठी हुई दिखाई देती हैं। यह द्वैत का प्रतीक है, जो यह दर्शाता है कि ज्ञान और कला दोनों ही जीवन और मृत्यु के मध्य पुल की तरह हैं। उनका रहस्यपूर्ण सौंदर्य और मंद मुस्कान साधक के मन में एकाग्रता, स्थिरता और भक्ति का संचार करता है।

जहां वैदिक परंपरा में सरस्वती देवी को शुद्धता, सात्विकता और ब्रह्मज्ञान की देवी माना गया है, वहीं मातंगी देवी उस ज्ञान की तांत्रिक और लौकिक व्याख्या करती हैं। सरस्वती जहां ब्राह्मणों की देवी हैं, वहीं मातंगी उन अछूतों, दीनों और उपेक्षितों की अधिष्ठात्री हैं जो समाज की मुख्यधारा से बाहर हैं। उनकी पूजा नियमों से बंधी नहीं होती, वह नियंत्रण और सीमाओं से परे हैं। तंत्र में यह माना जाता है कि जो चीजें समाज अस्वीकार करता है, वे तांत्रिक साधना के लिए सबसे उपयुक्त होती हैं। इसीलिए अवशिष्ट (उच्छिष्ट) भोजन, उपेक्षित वस्त्र, श्मशान भूमि, यह सभी मातंगी साधना में स्वीकार्य हैं।

पौराणिक कथाओं में वर्णन मिलता है कि जब देवी पार्वती ने भगवान शिव के साथ एक मनोरंजक खेल के अंतर्गत तांत्रिक रूप में प्रकट होने की इच्छा की, तब उन्होंने मातंगी रूप धारण किया।

एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार देवताओं ने भगवान विष्णु के साथ भोज किया, और बचे हुए अन्न को एक कन्या ने ग्रहण किया। वह कन्या हरी वर्ण की थी और उसी से प्रकट हुईं मातंगी देवी। इसीलिए उन्हें उच्छिष्ट चांडालिनी भी कहा जाता है, यानि वह देवी जो समाज के छोड़े हुए, तिरस्कृत अंश को अपनाकर उसे दिव्यता प्रदान करती हैं।

मातंगी देवी की साधना अत्यंत प्रभावशाली माना जाता है। तांत्रिक मत के अनुसार, जो व्यक्ति संगीत, लेखन, भाषण, कला, रंगमंच, शिक्षा, पत्रकारिता, या राजनीति से जुड़ा है, उसके लिए यह साधना विशेष फलदायक होती है।

साधना का मंत्र:
ॐ ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं मतंग्यै नमः।

साधना के लिए शांत, एकांत और पवित्र स्थान होना चाहिए। साधक को हरा या पीला वस्त्र पहनकर साधना करना चाहिए। माता को हरे फल, हरी मूँग की दाल, मेहंदी, हरी इलायची अर्पण करना चाहिए। साधना काल के लिए गुप्त नवरात्रि, वसंत पंचमी, पूर्णिमा उपर्युक्त समय होती है। साधना का जप माला तुलसी या रुद्राक्ष माला पर करना चाहिए। 

मातंगी साधना से व्यक्ति की वाणी में माधुर्य, तर्क में तेज, और लेखन में प्रखरता आती है। यदि कोई विद्यार्थी या कलाकार इस साधना को श्रद्धापूर्वक करे, तो उसे अद्भुत सफलता प्राप्त होती है।

मातंगी देवी को वाक्-सिद्धि की देवी कहा जाता है। यह एक ऐसी सिद्धि है जिससे साधक जो भी बोले, वह सत्य सिद्ध हो जाता है, उसमें प्रभाव रहता है, और लोगों पर गहरा असर पड़ता है।

भारतीय राजनीति, कानून, और वकालत के क्षेत्र में कई साधक मातंगी की पूजा करके भाषण-कला और वकालत में अद्भुत सफलता प्राप्त करते हैं।

भारतीय साहित्य जगत में कई कवियों और लेखकों ने माता मातंगी की साधना करके अपनी कविता, उपन्यास और निबंधों में विलक्षणता प्राप्त किया है। उनके लेखन में नाद, सौंदर्य और सत्य का अद्भुत समन्वय होता है। यह सिद्धि उनके विचारों को शब्दों में इस प्रकार ढालती है कि वे पाठकों के हृदय में उतर जाता हैं।

मातंगी उपासना, लोगों को भाषाई स्पष्टता, विचारों की धार और प्रभावशाली अभिव्यक्ति प्रदान करती है।  मातंगी उपासना से व्यक्ति को विवेकशील और सत्यपरक वक्ता बनने की शक्ति मिलती है।

मातंगी का हरा रंग केवल एक रंग नहीं होता है, बल्कि एक गहरा संकेत है- यह प्रकृति, हरियाली, जीवन और पुनर्जन्म का प्रतीक है। वह दर्शाती हैं कि ज्ञान की जड़ें प्रकृति में हैं। वह याद दिलाती हैं कि जब हम प्रकृति के संगीत को सुनना शुरू करते हैं, तभी हम सच्चा संगीत रच सकते हैं। उनकी उपासना प्रकृति के साथ सामंजस्य, हरित चेतना, और जीवन के संगीत को समझने का आह्वान करती है।

मातंगी की उपासना सामान्य मंदिरों में नहीं होती है, फिर भी कुछ स्थानों पर उनकी उपस्थिति विशेष रूप से मानी जाती है। हैदराबाद की मातंगी मंदिर, वाराणसी में गुप्त तांत्रिक पीठ, दक्षिण भारत के कुछ काली मंदिरों में मातंगी का तांत्रिक रूप पूजा जाता है। इन स्थानों पर विशेषकर गुप्त नवरात्रि या संगीत के अवसरों पर विशेष पूजन और यज्ञ होता हैं।

मातंगी देवी केवल शब्दों की देवी नहीं है, वे नाद ब्रह्म की अनुभूति कराती हैं। वेदों में कहा गया है कि "नादो ही ब्रह्म", यानि ध्वनि ही ब्रह्म है। जब शब्द आत्मा के अंदर उतरता है, जब विचार कला में बदलता है, जब लेखनी मन के भावों को कागज पर उकेरती है, तो समझना चाहिए कि मातंगी देवी प्रसन्न हैं।

मातंगी देवी की उपासना केवल एक तांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, बल्कि स्वयं को जानने और अभिव्यक्त करने की कला है। वह देवी हैं जो किसी के वश में नहीं, बल्कि अपनी वाणी के माध्यम से दुनिया को प्रभावित करने का बल देती हैं।

वर्तमान युग में जब शब्दों की कीमत कम होती जा रही है, तब मातंगी की साधना हमें सच बोलने, अच्छा गाने, सुंदर लिखने और विवेक से बोलने की प्रेरणा देती है।



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