सृष्टि की मूल चेतना और सौंदर्य की दिव्य अधिष्ठात्री हैं - “त्रिपुरसुंदरी”

Jitendra Kumar Sinha
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हिन्दू तांत्रिक परंपरा की दस महाविद्याओं में त्रिपुरसुंदरी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। उन्हें राजराजेश्वरी, ललिता, कामेश्वरी और श्रीविद्या की अधिष्ठात्री देवी कहा जाता है। त्रिपुरसुंदरी का तात्पर्य है, तीनों लोकों की सुंदरता का प्रतिनिधित्व करने वाली देवी। वह न केवल भौतिक सौंदर्य की प्रतीक हैं, बल्कि आंतरिक ज्ञान, संतुलन और पूर्णता की भी मूर्ति हैं।

त्रिपुरसुंदरी न तो पूर्ण रूप से त्याग में लीन तपस्विनी हैं, न ही केवल भोग-विलास में रमी हुई। वह उन दोनों के बीच स्थित वह दिव्य बिंदु हैं जहाँ योग और भोग एक हो जाते हैं। यही कारण है कि श्रीविद्या साधना में उन्हें सर्वोच्च ब्रह्मस्वरूपिणी माना गया है।

त्रिपुरसुंदरी का रूप सौम्य है, किंतु उसमें असाधारण प्रभाव और शक्ति है। उनका वर्ण लाल होता है जो प्रेम, कामना, ऊर्जा और शक्ति का प्रतीक है। वह लाल वस्त्रों में, चार भुजाओं से सुशोभित, कमलासन पर विराजमान रहती हैं। उनके हाथों में पाश, अंकुश, सूक्ष्म धनुष और पुष्पबाण होता हैं, जो दर्शाता हैं कि वह मन, इंद्रियाँ, वासना और मोह पर नियंत्रण रखती हैं।

उनका मुखमंडल अत्यंत आकर्षक, कोमल और शांत होता है। उनकी मुस्कान साधक के हृदय में प्रेम और करुणा भर देती है। त्रिपुरसुंदरी को बालार्क की तरह चमकने वाली देवी कहा गया है अर्थात बाल सूर्य की तरह दीप्तिमान।

त्रिपुरसुंदरी केवल एक देवी नहीं है, वह एक तत्व हैं- सृष्टि की मूल चेतना। अद्वैत वेदांत में जिस ब्रह्म की बात की गई है, वही श्रीविद्या में त्रिपुरसुंदरी बनकर प्रकट होती हैं। वह त्रिकोणमय श्रीचक्र के केंद्र बिंदु,  बिंदुस्थान,  पर विराजती हैं।

त्रिपुर का अर्थ है तीन शहर या अवस्थाएं वह है जागृत (बाह्य चेतना), स्वप्न (अंतर्मन), सुषुप्ति (गहन निद्रा), त्रिपुरसुंदरी इन तीनों अवस्थाओं की स्वामिनी हैं। वही इन अवस्थाओं से परे जाकर चतुर्थ अवस्था, तुरीय, में ले जाती हैं। यह सौंदर्य केवल शारीरिक नहीं, बल्कि चैतन्य का सौंदर्य है, ब्रह्म की दिव्यता का सौंदर्य।

त्रिपुरसुंदरी की साधना का मूल है श्रीचक्र। श्रीचक्र एक अत्यंत रहस्यमयी और शक्तिशाली यंत्र है, जिसे साक्षात ब्रह्मांड की ज्यामिति कहा गया है। इसमें नौ त्रिकोण होता हैं,  पांच नीचे की ओर (शक्ति) और चार ऊपर की ओर (शिव)। इनके समागम से 43 उप-त्रिकोण बनते हैं और केंद्र में बिंदु है, जहाँ त्रिपुरसुंदरी निवास करती हैं।

श्रीचक्र को प्रतिदिन देखना, उसका ध्यान करना और उसकी पूजा करना साधक को भौतिक और आध्यात्मिक दोनों लक्ष्यों की प्राप्ति करवाता है।

त्रिपुरसुंदरी की साधना को श्रीविद्या साधना कहा जाता है। यह सामान्य भक्तों के लिए नहीं, बल्कि अत्यंत गंभीर और निष्ठावान साधकों के लिए आरक्षित माना जाता है।

साधना के मूल तत्व हैं गुरु दीक्षा- बिना योग्य गुरु के यह साधना निष्फल माना जाता है। श्रीविद्या एक गुरुमुख परंपरा है। मंत्र- प्रमुख रूप से शोडशी मंत्र और पंचदशी मंत्र का प्रयोग होता है। श्रीचक्र आराधना- यंत्र पूजा का विशेष स्थान होता है और सात्विक जीवनचर्या- संयम, पवित्रता और नियम अत्यंत आवश्यक हैं।

त्रिपुरसुंदरी की साधना का फल है आंतरिक सौंदर्य की अनुभूति, आत्मबोध और आत्म-साक्षात्कार, भौतिक सुख-संपत्ति की प्राप्ति (सौंदर्य, धन, प्रेम, यश) और अंत में परमात्मा से एकत्व।

अन्य महाविद्याएं जहाँ या तो उग्र हैं (भैरवी, धूमावती, बगलामुखी) या अत्यंत वैराग्यपूर्ण (तारा, मातंगी), वहीं त्रिपुरसुंदरी एक संतुलन का प्रतीक हैं। वे भोग और योग दोनों को स्वीकार करती हैं, परंतु उन्हें आध्यात्मिक विकास की दिशा में बदलती हैं। उनका दर्शन कहता है कि संसार को त्यागो नहीं, बल्कि उसे ब्रह्ममयी दृष्टि से देखो। उनके अनुसार यह संसार माया नहीं, बल्कि साक्षात शक्ति है, जो ब्रह्म की अभिव्यक्ति है।

त्रिपुरसुंदरी की पूजा केवल तांत्रिक साधकों तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत के कई प्राचीन मंदिरों और परंपराओं में इनका पूजन व्यापक रूप से होता रहा है। 

प्रमुख मंदिर में त्रिपुरसुंदरी मंदिर, उदयपुर (त्रिपुरा)-  यह शक्ति पीठों में एक है और यहां की मूर्ति महा सुंदरी स्वरूप में विराजमान है। राजराजेश्वरी मंदिर, तमिलनाडु- दक्षिण भारत में श्रीविद्या उपासना का बड़ा केंद्र है। 

साहित्यिक स्वरूप में ललिता सहस्रनाम, ललिता त्रिशती, तंत्रराज, श्रीविद्यार्णव तंत्र जैसे ग्रंथ त्रिपुरसुंदरी की महिमा का विस्तार करता हैं। आदिशंकराचार्य द्वारा रचित सौंदर्य लहरी त्रिपुरसुंदरी की आराधना का काव्यात्मक शिखर है।

आज जब जीवन में असंतुलन, तनाव, भोगवाद और दिशाहीनता बढ़ती जा रही है, त्रिपुरसुंदरी की साधना एक दिशा प्रदान करती है। वह जीवन को न तो नकारती हैं, न ही केवल मोक्ष की कठोर मांग करती हैं। वे कहती हैं-  “संसार को स्वीकारो, उसे पवित्र बनाओ और उसमें ब्रह्म को देखो।”

त्रिपुरसुंदरी सशक्त नारीत्व की प्रतीक हैं, न तो केवल घरेलू, न ही केवल शक्ति की मूर्ति, बल्कि दोनों का संतुलन। आज की स्त्री के लिए वे एक आदर्श हैं-  सुंदर, शक्तिशाली, प्रेममयी और आत्मनिर्भर।

त्रिपुरसुंदरी की साधना मन को संयमित, इंद्रियों को नियंत्रित और उद्देश्य को स्पष्ट करती है। यह साधना न केवल ध्यान और पूजा का मार्ग है, बल्कि जीवन शैली का रूपांतरण भी है।

त्रिपुरसुंदरी महाविद्याओं की सम्राज्ञी हैं क्योंकि वे पूर्णता की देवी हैं। वे बताती हैं कि सत्य केवल जंगलों की गुफाओं में नहीं, बल्कि जीवन के प्रत्येक पल में है- यदि दृष्टि दिव्य हो।

उनका संदेश है –

“भोग से मत डरो, लेकिन उसमें मत डूबो। योग से मत भागो, लेकिन उसे आडंबर मत बनाओ। जीवन को प्रेमपूर्वक जियो, जागरूक होकर।”

त्रिपुरसुंदरी की उपासना जीवन को एक नया दृष्टिकोण देती है, जहाँ सौंदर्य, शक्ति और ज्ञान एक हो जाता है। वह नारी का सर्वोच्च रूप हैं, वह शक्ति का शांत मुखमंडल हैं, वह तत्त्वज्ञान की मुस्कान हैं।



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