नारीवाद या 'स्त्री वर्चस्व'? — भारत में नारीवाद की सच्चाई और भ्रम

Jitendra Kumar Sinha
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आज अगर कोई पुरुष सोशल मीडिया पर यह कह दे कि “मैं महिलाओं का सम्मान करता हूँ, लेकिन मैं फेमिनिस्ट नहीं हूँ”, तो उसे पितृसत्तावादी, स्त्री विरोधी और ‘मिसोजिनिस्ट’ ठहरा दिया जाता है। क्या वाकई अब महिला सम्मान का मतलब सिर्फ “फेमिनिज्म” में यकीन करना ही रह गया है?


भारत में नारीवाद, जो कभी महिलाओं को शिक्षा, संपत्ति अधिकार, विवाह में सहमति और कार्यस्थल पर सुरक्षा दिलाने का औजार था — आज धीरे-धीरे एक राजनीतिक एजेंडा, लिंग युद्ध और पुरुषों को नीचा दिखाने की विचारधारा में तब्दील होता जा रहा है।


नारीवाद का उद्देश्य: पहले और अब

जिस नारीवाद की शुरुआत महिलाओं को समान अधिकार दिलाने से हुई थी, उसका आज का चेहरा विकृत हो चुका है।

पहले के नारीवादी कहते थे:

  • “हमें समान अधिकार चाहिए।”
    आज के ‘वोक फेमिनिस्ट’ कहते हैं:

  • “पुरुष हर समस्या की जड़ हैं।”

यह बदलाव कोई मामूली विचलन नहीं है, बल्कि विचारधारा का अधोपतन है।


भारत में यह और अधिक विकृत क्यों हुआ?

भारत में महिलाओं के खिलाफ अन्याय रहे हैं, यह कोई नहीं नकारता — दहेज हत्या, घरेलू हिंसा, बाल विवाह जैसी विकृतियाँ सच थीं। लेकिन भारत का मूल समाज कभी पूरी तरह स्त्रीविरोधी नहीं रहा। यहां सीता, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा होती है। यहां रानी लक्ष्मीबाई, अन्ना चांडी और मदर टेरेसा जैसी महिलाओं को देवियों की तरह सम्मान मिला। तो फिर भारत में यह ज़हर कैसे घुला कि "हर पुरुष उत्पीड़क है और हर स्त्री पीड़िता"? जवाब है — पश्चिमी नारीवाद की नक़ल


“इंडिपेंडेंट” बनने के नाम पर परिवार से विमुखता

आज की फेमिनिस्ट विचारधारा कहती है कि:

  • “परिवार एक पितृसत्तात्मक ढांचा है”

  • “गृहिणी होना महिला की स्वतंत्रता का हनन है”

  • “बच्चा पैदा करना करियर की रुकावट है”

यह सोच हमारी संस्कृति के बिल्कुल विपरीत है। भारत में स्त्री का अर्थ शक्ति, त्याग, धैर्य और करुणा था। अब उसे सिखाया जा रहा है कि यदि तुम करियरिस्ट, सिंगल, बोल्ड और पुरुषों से बेहतर नहीं हो — तो तुम अधूरी हो। यह मानसिकता महिलाओं को सशक्त नहीं कर रही, उन्हें विनाश की ओर ले जा रही है।


नारीवाद बनाम पुरुष विरोध

आज भारत में कई ऐसे कानून हैं जो एकतरफा हैं —

  • धारा 498A: एक महिला की शिकायत पर पुरुष और उसके पूरे परिवार को जेल भेजा जा सकता है।

  • पॉक्सो कानून: कभी-कभी झूठे आरोपों में किशोर लड़कों की ज़िंदगी तबाह हो जाती है।

  • तलाक और घरेलू हिंसा केस: हजारों पुरुष बिना सुनवाई के सालों तक कोर्ट में घिसते हैं।

इनमें बहुत-से मामले झूठे निकलते हैं। लेकिन फेमिनिस्ट लॉबी कभी यह नहीं कहती कि झूठे केस पर महिलाओं को भी सज़ा होनी चाहिए। क्योंकि उनके लिए “हर महिला सच्ची है और हर पुरुष गुनहगार”। क्या यह न्याय है?


फेमिनिज्म अब 'पावर' का खेल बन गया है, न कि 'समानता' का

अब सोशल मीडिया पर फेमिनिज्म सिर्फ "पुरुषों को लताड़ने", "मर्दों का मज़ाक उड़ाने", "ट्रेंडिंग हैशटैग" और "लड़की होना मेरी ताकत है" टाइप नारेबाज़ी तक सीमित हो गया है।

कोई यह नहीं पूछता कि:

  • कितनी महिलाएं फिजिकली डिमांडिंग काम करना चाहती हैं?

  • कितनी महिलाएं छत्तीसगढ़ की कोल माइंस या कश्मीर की बॉर्डर पर ड्यूटी करना चाहती हैं?

  • कितनी महिलाएं शादी के बाद अपने माता-पिता को छोड़ने को तैयार हैं (जैसे वे पति से अपेक्षा रखती हैं)?

समान अधिकारों की बात करनी है तो समान जिम्मेदारियों की भी बात करनी होगी।


वास्तविक सशक्तिकरण क्या है?

असली महिला सशक्तिकरण तब होता है जब:

  • वह अपनी शिक्षा, प्रतिभा और मेहनत से कुछ हासिल करे

  • वह परिवार और करियर के बीच संतुलन बनाए

  • वह अधिकारों के साथ कर्तव्यों को भी समझे

  • वह पुरुषों से नफरत न करे, बल्कि समानता के साथ सहयोग करे


भारत को फेमिनिज्म नहीं, संतुलित नारीवाद चाहिए — जो पुरुषों को दुश्मन नहीं माने, बल्कि समाज में दोनों को बराबरी का साथी समझे।

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