राजा भोज ने जैसे ही सिंहासन पर बैठने का प्रयास किया, सिंहासन की दूसरी पुतली प्रकट हुई। उसका नाम था चित्रलेखा। चित्रलेखा ने राजा भोज को रोकते हुए कहा कि वे अभी इस सिंहासन पर बैठने योग्य नहीं हैं, क्योंकि यह सिंहासन उसी को स्वीकार करता है जो राजा विक्रमादित्य जैसे आदर्श, न्यायप्रिय और त्यागी हो। यह कहकर वह एक कथा सुनाने लगी, जो राजा विक्रमादित्य के न्याय और विवेक की अद्भुत मिसाल थी।
चित्रलेखा ने बताया कि एक बार एक गांव में दो व्यक्ति एक बालक को लेकर दरबार में आए। दोनों का दावा था कि वह बालक उनका पुत्र है। मामला जटिल था क्योंकि कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं था। दोनों की बातें सुनकर दरबार में हलचल मच गई। मंत्रीगण भी निर्णय नहीं कर पा रहे थे कि बालक का असली पिता कौन है। राजा विक्रमादित्य ने बड़ी शांतता से दोनों की बातें सुनीं। फिर उन्होंने उस बालक से धीरे-से बात की और उसके हावभाव पर ध्यान दिया। उन्होंने दोनों व्यक्तियों से कुछ साधारण से प्रश्न पूछे, जैसे बच्चे के स्वभाव, उसकी आदतें, उसकी पसंद-नापसंद आदि। एक व्यक्ति इन प्रश्नों में झूठ बोलता पकड़ा गया, जबकि दूसरा भावुक होकर उस बच्चे की बातों में खो गया।
विक्रमादित्य ने यह समझ लिया कि असली पिता कौन है। लेकिन उन्होंने सीधा निर्णय न देकर दोनों को एक परीक्षा से गुजारा। उन्होंने बालक को दो हिस्सों में बांटने की बात कही। यह सुनकर एक व्यक्ति चुप रहा, जबकि दूसरा व्यक्ति रो पड़ा और बोला कि वह बालक उसे दे दिया जाए, बस उसका जीवन बचा रहे। तभी विक्रमादित्य ने फैसला सुनाया कि जो व्यक्ति अपने पुत्र की जान की परवाह करता है, वही उसका सच्चा पिता है। पूरा दरबार राजा के न्याय से हतप्रभ रह गया।
चित्रलेखा ने कहा कि राजा विक्रमादित्य में केवल न्याय का ही भाव नहीं था, बल्कि सहानुभूति और विवेक भी था। उन्होंने कभी किसी को उसकी स्थिति या जाति के आधार पर नहीं परखा। हर किसी को समान न्याय दिया। चाहे वह गरीब हो या अमीर, ब्राह्मण हो या चांडाल। उन्होंने न्याय को धर्म का रूप माना।
चित्रलेखा बोली कि जब तक राजा भोज में वैसा ही न्याय, विवेक और त्याग का भाव नहीं आता, तब तक वे इस सिंहासन पर बैठने के अधिकारी नहीं हैं। यह कहकर वह अदृश्य हो गई और राजा भोज पीछे हट गए। उन्हें समझ आ गया कि केवल गद्दी पर बैठ जाना ही राजा होना नहीं होता, बल्कि राजा बनने के लिए आत्मबल, सहानुभूति और निष्पक्ष न्याय की भावना आवश्यक होती है।
