बिहार के वैशाली जिले के राजाधाकर प्रखंड का सरसई गांव एक ऐसी अनोखी मान्यता और परंपरा के लिए प्रसिद्ध है, जो देश-दुनिया के लिए कौतूहल का विषय बना हुआ है। यहां चमगादड़ों की न केवल पूजा होती है, बल्कि ग्रामीण मानते हैं कि ये चमगादड़ उनकी रक्षा करते हैं और गांव में समृद्धि लाने वाले देवी लक्ष्मी के प्रतीक हैं।
सरसई गांव में पीपल और बथुआ के पुराने पेड़ों पर हजारों की संख्या में चमगादड़ बसेरा बनाए हुए हैं। यह चमगादड़ गांव के एक प्राचीन तालाब के पास रहता है, जिसका निर्माण तिरहुत के शासक राजा शिव सिंह ने वर्ष 1402 में लगभग 50 एकड़ भूमि पर करवाया था। यह तालाब और उसके चारों ओर फैली हरियाली अब इन चमगादड़ों का स्थायी निवास बन चुका है।
गांव के बुजुर्ग गणेश सिंह बताते हैं कि चमगादड़ों का जहां वास होता है, वहां कभी धन की कमी नहीं होती है। यही वजह है कि गांव के लोग इनकी पूजा करते हैं, और किसी भी शुभ कार्य से पहले इनका आशीर्वाद लेना जरूरी मानते हैं। उनका यह भी कहना है कि कुछ चमगादड़ों का वजन 5 किलोग्राम तक होता है, जो कि सामान्यतः कहीं और देखने को नहीं मिलता है।
गांव में एक जनश्रुति है कि मध्यकाल में जब वैशाली क्षेत्र में महामारी फैली थी और सैकड़ों लोगों की जान चली गई थी, तभी अचानक बड़ी संख्या में चमगादड़ यहां आया और उसके बाद से कभी कोई महामारी नहीं फैली। ग्रामीणों का मानना है कि चमगादड़ों के शरीर से निकलने वाली गंध वातावरण में फैले हानिकारक विषाणुओं को नष्ट कर देती है, जिससे यह क्षेत्र रोग-मुक्त रहता है।
सरसई पंचायत के मुखिया बताते हैं कि इन चमगादड़ों को देखने के लिए हर दिन सैकड़ों पर्यटक यहां आते हैं। इसके बावजूद सरकार की ओर से किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी गई है। साफ-सफाई, शौचालय, बैठने की व्यवस्था और सुरक्षा जैसी बुनियादी सुविधाओं का अब भी अभाव है। ग्रामीण पिछले 15 वर्षों से इस क्षेत्र को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने की मांग कर रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
सरसई गांव का यह चमगादड़ों वाला क्षेत्र केवल जैव विविधता की दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और धार्मिक महत्ता की दृष्टि से भी अनमोल है। यदि सरकार और प्रशासन इसका सही तरीके से विकास करें, तो यह स्थान राज्य के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक बन सकता है।
