भारत एक लोकतांत्रिक देश है, जहाँ जनता ही सर्वोच्च मानी जाती है। संविधान ने जनता को अधिकार दिया है कि वे अपने प्रतिनिधि चुनें और सरकार बनाएँ। लेकिन सात दशकों से अधिक के सफर में यह सवाल लगातार उठता रहा है कि “देश में भ्रष्टाचार का असली जिम्मेदार कौन है - जनता, सरकार या राजनीतिक पार्टियाँ?”
आज भारत की सामाजिक संरचना, आर्थिक व्यवस्था और राजनीतिक संस्कृति पर भ्रष्टाचार की गहरी छाप है। गाँव से लेकर महानगर तक, पंचायत से लेकर संसद तक और छोटे पदाधिकारी से लेकर बड़े मंत्री तक, भ्रष्टाचार की परछाई हर जगह दिखाई देती है।
भारत में भ्रष्टाचार कोई नई समस्या नहीं है। प्राचीन साहित्य और इतिहास में भी रिश्वतखोरी और बेईमानी की घटनाएँ दर्ज हैं। लेकिन स्वतंत्र भारत में भ्रष्टाचार का संगठित रूप पहली बार कांग्रेस शासनकाल में सामने आया। नेहरू काल में भले ही भ्रष्टाचार का स्तर छोटा था, लेकिन समय के साथ यह व्यापक रूप लेने लगा। इंदिरा गांधी के समय आपातकाल और सत्ता केंद्रीकरण ने भ्रष्टाचार को नया राजनीतिक संरक्षण दिया। बोफोर्स घोटाला (राजीव गांधी काल) ने जनता के विश्वास को गहरा आघात पहुँचाया। इसके बाद हर दशक में नए-नए घोटाले सामने आते रहे- शेयर बाजार घोटाला, चारा घोटाला, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला आदि। यानि भ्रष्टाचार की जड़ें सत्ता और राजनीति से पोषित हुईं है।
भारतीय लोकतंत्र में चुनाव सबसे बड़ा पर्व माना जाता है। लेकिन यही चुनाव भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी नर्सरी बन चुका है। गाँव-देहात में वोट खरीदने के लिए नोट, दारू और साड़ी तक बाँटी जाती है। चुनाव आयोग के नियमों के बावजूद, काले धन का बेहिसाब इस्तेमाल किया जाता है। प्रत्याशी लाखों-करोड़ों खर्च करके टिकट लेते और चुनाव लड़ते हैं। बाद में यही नेता सत्ता में आने पर घोटालों के जरिये पैसा वसूलते हैं। यही कारण है कि आज आम आदमी के लिए चुनाव सिर्फ “त्योहार” नहीं बल्कि “बाजार” बन चुका है।
अक्सर भ्रष्टाचार के लिए नेताओं और अधिकारियों को दोष देते हैं। लेकिन क्या जनता पूरी तरह निर्दोष है? कई बार लोग काम निकलवाने के लिए खुद रिश्वत देना पसंद करते हैं। पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक जनता पैसे और जाति के आधार पर वोट देती है। मुफ्त योजनाओं (रेबड़ी संस्कृति) को जनता हाथों-हाथ लेती है, भले ही उससे राज्य की आर्थिक हालत क्यों न बिगड़े। इस तरह जनता भी भ्रष्टाचार की इस श्रृंखला की सह-अपराधी (accomplice) बन जाती है।
हाल के वर्षों में राजनीतिक दलों ने जनता को लुभाने के लिए मुफ्त योजनाओं की बाढ़ ला दी है। कांग्रेस ने कर्नाटक और हिमाचल में चुनाव जीतने के लिए मुफ्त बिजली, महिला भत्ता और बेरोजगारी भत्ता का वादा किया। ममता बनर्जी ने बंगाल में “लक्ष्मी भंडार” और “छात्रवृत्ति योजना” चलाकर वोटरों को बाँधे रखा। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी देकर राजनीति का नया मॉडल बनाया। हेमंत सोरेन ने झारखंड में तरह-तरह की सब्सिडी योजनाएँ शुरू की। नतीजा यह हुआ कि राज्य सरकारें कर्मचारियों को वेतन देने लायक भी पैसे से खाली होने लगी।
राजनीतिक संरक्षण के बिना नौकरशाही में भ्रष्टाचार असंभव है। किसी भी सरकारी योजना में कमीशन कल्चर आम हो चुका है। कहा जाता है कि बिहार में योजनाओं के क्रियान्वयन से पहले ही संबंधित अधिकारियों और मंत्रियों को मोटी रकम पहुँचा दी जाती है। थाने और अंचल कार्यालय में बिना रिश्वत कोई काम नहीं होता है। बेउर जेल के अधीक्षक और बेतिया के डीईओ पर हुई छापेमारी इसका बड़ा उदाहरण है, जहाँ गिनती मशीनें नोटों से भर गईं। यानि नौकरशाही जनता की सेवा करने के बजाय रिश्वतखोरी का जाल बुन चुकी है।
बिहार लंबे समय से भ्रष्टाचार के लिए बदनाम रहा है। लालू प्रसाद का चारा घोटाला भारत के इतिहास के सबसे बड़े घोटालों में गिना जाता है। नीतीश कुमार ने “सुशासन बाबू” की छवि बनाई थी, लेकिन जमीनी हकीकत अलग है। प्रखंड या थाने में बिना घूस दिए कोई काम संभव नहीं। योजनाओं की रकम बंटने से पहले ही कमीशन के रूप में ऊपर तक पहुँच जाती है। सरकार दावा करती है कि “न्याय के साथ विकास” हो रहा है, लेकिन जनता जानती है कि भ्रष्टाचार ही असली प्रशासन है।
भ्रष्टाचार की इस बीमारी से मीडिया और न्यायपालिका भी अछूते नहीं हैं। मीडिया के कई हिस्से पेड न्यूज़ चलाते हैं। न्यायिक फैसलों में भी कई बार प्रभाव और पैसे की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं। बड़े उद्योगपति और नेता आसानी से जमानत पा जाते हैं, लेकिन आम आदमी वर्षों तक जेल में सड़ता रहता है।
भ्रष्टाचार को खत्म करना आसान नहीं है, लेकिन असंभव भी नहीं है। चुनावी खर्च पर कड़ी निगरानी, काले धन पर रोक, ईमानदार उम्मीदवारों को बढ़ावा, लोकपाल और लोकायुक्त को मजबूत करना, भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों पर त्वरित कार्रवाई, समयबद्ध जांच, जनता की जागरूकता, जनता को समझना होगा कि रिश्वत लेना-देना दोनों अपराध है। वोट केवल जाति, धर्म या पैसे के आधार पर नहीं बल्कि विकास और ईमानदारी के आधार पर देना होगा। प्रौद्योगिकी का उपयोग, ई-गवर्नेंस, ऑनलाइन सेवाएँ, कैशलेस ट्रांजैक्शन से पारदर्शिता बढ़ेगी।
भ्रष्टाचार की जिम्मेदारी किसी एक पर डालकर नहीं बचा जा सकता है। सरकार और पार्टियाँ अगर ईमानदार रहें तो निचले स्तर तक सुधार आ सकता है। जनता अगर खुद रिश्वत न दे और गलत नेता को वोट न दे, तो राजनीतिक दलों को मजबूर होना पड़ेगा। पदाधिकारी अगर काम को सेवा समझकर करें, तो व्यवस्था बदल सकती है। यानि यह समस्या सामूहिक है और इसका समाधान भी सामूहिक प्रयासों से ही संभव है।
आज भारत का हर नागरिक इस सच्चाई को जानता है कि भ्रष्टाचार राजनीति, प्रशासन और समाज की जड़ों में गहराई तक पैठ बना चुका है। सवाल यही है कि क्या इसे बदलना चाहते हैं? अगर सरकार और राजनीतिक पार्टियाँ ईमानदार होगी, तो नौकरशाही भी ईमानदार होगी। और अगर जनता अपने वोट की कीमत समझेगी, रिश्वत और मुफ्त की लालच से बचेगी, तभी बदलाव संभव है।
