“श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग” (दिव्यता और मोक्षदायिनी महिमा)

Jitendra Kumar Sinha
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भारत की आध्यात्मिक चेतना में यदि किसी नगर का सर्वोच्च स्थान है, तो वह है काशी। यह केवल एक नगरी नहीं है, बल्कि मोक्ष की वह अंतिम सीढ़ी है, जहाँ आत्मा ब्रह्म से मिलती है। और इस ब्रह्मपथ की अगुवाई करते हैं स्वयं त्रिलोकीनाथ भगवान शिव, जो यहाँ विश्वनाथ के रूप में विराजमान हैं। श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग न केवल द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख है, बल्कि ब्रह्मांड के प्रारंभ और अंत की साक्षी बनी इस नगरी में शिव का यह रूप स्वयंभू और सृष्टि से भी पूर्व का बताया गया है।

‘काशी’ को अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है, अर्थात वह स्थान जिसे महाप्रलय में भी शिव नहीं छोड़ते। जब समस्त सृष्टि जल में विलीन हो जाती है, तब भी काशी उनके त्रिशूल पर विराजमान रहती है। स्कन्द पुराण के काशी खंड में वर्णित यह तथ्य काशी को केवल एक भौगोलिक स्थल नहीं, बल्कि आध्यात्मिक ब्रह्मलोक बनाता है।

भगवान शिव ने स्वयं देवी पार्वती से कहा है कि  "यह नगरी मेरे हृदय की प्रिय है, इसे मैंने स्वयं अपनी लीला से प्रकट किया है।"  "यह आनन्दवन है, जहाँ मैं शक्ति सहित नित्य निवास करता हूँ।"

श्री विश्वनाथ, अर्थात विश्व के नाथ, इस ज्योतिर्लिंग में केवल प्रतीकात्मक रूप में नहीं, साक्षात शिव के रूप में निवास करते हैं। यह शिवलिंग न किसी यज्ञ से प्रकट हुआ है, न किसी तप से। यह तो स्वयं निराकार परब्रह्म का साकार रूप है।

पार्वती जी ने जिन शब्दों में विश्वनाथ की स्तुति की है, वह बताता है कि यह कोई साधारण तीर्थ नहीं है- 

"चर अरु अचर नाग नर देवा।
सकल करहिं पद पंकज सेवा॥"

काशी के केंद्र में स्थित मणिकर्णिका घाट केवल एक शवदाह स्थल नहीं है, यह वह स्थल है जहाँ मरण भी मोक्ष का माध्यम बन जाता है। भगवान शिव स्वयं मृत्युकाल में जीव के कान में ‘तारक मंत्र’ का उपदेश करते हैं। इसलिए कहा गया है-  "काशी में मरण नहीं होता, केवल मुक्ति होती है।"

इस स्थान की पवित्रता की कहानी महाविष्णु और भगवान शिव के संवाद से भी जुड़ी है, जहाँ भगवान विष्णु ने तप करके इस स्थल को ‘मोक्ष का केंद्र’ बनाने की प्रार्थना की थी।

विश्वनाथ मंदिर का इतिहास उतना ही दर्दनाक है, जितना गौरवशाली। 1669 ई. में मुगल आक्रांता औरंगजेब ने मंदिर को ध्वस्त कर वहाँ ज्ञानवापी मस्जिद बनवायी। प्राचीन शिवलिंग को ‘ज्ञानवापी कुएं’ में सुरक्षित रखा गया। 1777 में मालवा की रानी अहिल्याबाई होल्कर ने कुछ दूर स्थित स्थान पर भव्य मंदिर का निर्माण कराया। महाराजा रणजीत सिंह ने मंदिर की छतों और शिखरों को सोने से मंडवाया, जिससे यह ‘स्वर्णमंदिर’ भी कहलाने लगा।

काशी क्षेत्र में पाँच प्रमुख तीर्थ विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग को चहुँओर से घेरे हुए हैं। यह है, श्री दशाश्वमेध, श्री लोलार्क, श्री बिन्दुमाधव, श्री केशव और श्री मणिकर्णिका। इन्हीं के कारण यह क्षेत्र ‘अविमुक्त क्षेत्र’ कहलाता है, जहाँ ईश्वर और प्रकृति (शक्ति) दोनों का वास होता है।

शिव महापुराण में यह वर्णित है कि जब इस सृष्टि का आरंभ नहीं हुआ था, तब केवल एकमेवाद्वितीयम् ब्रह्म था। उसी ब्रह्म ने इच्छा की कि "मैं एक से अनेक हो जाऊँ।" उस इच्छा से शिव (पुरुष) और शक्ति (प्रकृति) प्रकट हुए। दोनों ने काशी की रचना की और वहाँ निवास किया। फिर विष्णु और ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई और सृष्टि का विस्तार प्रारम्भ हुआ। काशी सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व भी विद्यमान थी और प्रलय के बाद भी रहेगी।

शिव महापुराण में वर्णन है कि पाशुपत योग की साधना काशी क्षेत्र में करने से मनुष्य को भुक्ति (सांसारिक सुख) और मुक्ति (आध्यात्मिक उन्नति) दोनों प्राप्त होता है। काशी में शिव के जितने अनुष्ठान, व्रत, दान होता है, उनका प्रतिफल अनन्त होता है। शिव कहते हैं- "काशी में मेरा वास मुझे अत्यंत प्रिय है। मैं यहाँ स्थायी रूप से निवास करता हूँ।"

श्रद्धा, भक्ति और साधना से काशी में जीवन एक तीर्थ बन जाता है।  कहा गया है—

"काशी क कर ले जो निवास।
भवसागर से होय उद्धार पास॥"

वहाँ पिण्डदान करने से पितरों को मोक्ष मिलता है। श्राद्ध, यज्ञ, जप, तप, दान आदि सारे कर्म वृद्ध गुण से फलदायी हो जाता है। यहाँ का एक-एक कण भी पुण्यवर्धक है।

काशी की महिमा मुख्यतः स्कन्द पुराण के काशी खण्ड में विस्तृत रूप से वर्णित है। यह खंड बताता है कि कैसे महाविष्णु ने काशी क्षेत्र में तपस्या की। कैसे ब्रह्मा ने कमल से उत्पन्न होकर सृष्टि की रचना की। कैसे काशी की पंचक्रोशी भूमि शिव के त्रिशूल पर टिकी है। यहाँ प्रत्येक वृक्ष, नदी, शिवलिंग, घाट सबमें दिव्यता समाई है।

द्वादश ज्योतिर्लिंगों में श्री विश्वनाथ का स्थान सर्वाधिक विशेष माना गया है क्योंकि यह स्वयंभू है- किसी ऋषि, यज्ञ, या तप से उत्पन्न नहीं हुआ है। यह मोक्षदायी है-  मृत्यु यहाँ मुक्ति देती है। यह कालातीत है-  समय की सीमा में बंधा नहीं है। यह त्रिगुणातीत है-  सत्व, रज, तम से परे है। यह सर्वव्यापी है काशी में होकर भी यह समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है।

शिवमहापुराण में स्पष्ट कहा गया है कि "जो बालक हो, वृद्ध हो, स्त्री हो, पापी हो या पुण्यात्मा,  यदि उसकी मृत्यु काशी में होती है, तो उसे शिव का साक्षात मार्गदर्शन और मुक्ति प्राप्त होती है।"

यहाँ तक कि रजस्वला स्त्री, असंस्कारित व्यक्ति, रोगी, पतित या अपराधी भी यदि काशी में मृत्यु को प्राप्त होता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

काशी की पंचक्रोशी यात्रा पाँच कोस के घेरे में होती है, जहाँ भक्त पाँच दिनों तक परिक्रमा करते हैं। यह यात्रा 88 मंदिरों से होकर गुजरती है। हर स्थल पर विशेष पूजन और ध्यान किया जाता है। यह यात्रा पापों के नाश और आत्मशुद्धि का प्रतीक बन चुकी है।

काशी में केवल भगवान शिव नहीं हैं, बल्कि माँ अन्नपूर्णा भी पूर्ण रूप से पूज्य हैं। कहते हैं- "जब अन्न का संकट आया, तब शिव ने स्वयं माँ अन्नपूर्णा से भोजन माँगा।" माँ ने उन्हें अपने हाथों से भोजन कराया। तभी से शिव कहते हैं-  "मैं अन्न बिना अन्नपूर्णा के एक क्षण भी नहीं रह सकता।"

काशी केवल एक तीर्थ या मंदिर नहीं है, वह ईश्वर की चेतना का केंद्र है। विश्वनाथ केवल शिवलिंग नहीं है, बल्कि परब्रह्म का मूर्त स्वरूप हैं। यहाँ हर घाट, हर शिवलिंग, हर मंदिर, एक जीवित धर्मग्रंथ है। जो विश्वनाथ के चरणों में शीश नवाता है, उसका जीवन कर्मबन्धन से मुक्त होकर मोक्ष की ओर अग्रसर होता है।



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