आभा सिन्हा, पटना
भारत भूमि पर धार्मिक स्थलों की अनगिनत कथाएं, जनश्रुतियां और अद्भुत घटनाएं सुनने को मिलती हैं। इनमें से कई कथाएं इतनी जीवंत और प्रेरणादायी होती हैं कि वे पीढ़ियों तक लोगों की आस्था का केंद्र बनी रहती हैं। बिहार के शेखपुरा जिले के बरबीघा प्रखंड के कुशेड़ी गांव स्थित “पंचवदन स्थान मंदिर” भी ऐसा ही एक धार्मिक और ऐतिहासिक स्थल है, जिसके बारे में मान्यता है कि यहां आने वाला कोई भी भक्त खाली हाथ नहीं लौटता।
"पंचवदन" नाम सुनते ही एक अद्वितीय शिवरूप की कल्पना मन में आकार लेने लगती है। यहां स्थापित शिवलिंग को पंचमुखी शिवलिंग कहा जाता है। यह पांच मुख भगवान शिव के अलग-अलग स्वरूपों और शक्तियों का प्रतीक हैं। ईशान मुख- ज्ञान और आध्यात्मिकता का प्रतीक, तत्पुरुष मुख- भक्ति और करुणा का प्रतीक, अघोर मुख- बुराइयों के विनाशक, वामदेव मुख- सृजन और पालन का प्रतीक, और सद्योजात मुख- आरंभ और नई ऊर्जा का प्रतीक। कुशेड़ी गांव के इस मंदिर में स्थित पंचमुखी शिवलिंग ग्रेनाइट पत्थर से बना है और इसका ऐतिहासिक महत्व 14वीं शताब्दी से जुड़ा हुआ है।
जनश्रुति के अनुसार, 14वीं शताब्दी में गांव के माधो तिवारी नामक एक श्रद्धालु हर महीने बैद्यनाथ धाम जाते और वहां भगवान शिव का जलाभिषेक करते थे। उम्र बढ़ने के बाद भी उनका यह सिलसिला नहीं टूटा। एक दिन भगवान भोलेनाथ ने स्वप्न में उन्हें आदेश दिया कि गांव के उत्तर दिशा में एक विशेष स्थान पर खुदाई कराएं। आदेशानुसार, उन्होंने ग्रामीणों के सहयोग से खुदाई शुरू कराई और वहां से निकला पंचमुखी ग्रेनाइट शिवलिंग। माधो तिवारी जी ने इसे भोलेनाथ की विशेष कृपा माना और उसी क्षण से इसकी पूजा शुरू हो गई। यह घटना पूरे इलाके में चर्चा का विषय बन गई और श्रद्धालु दूर-दूर से यहां आने लगे।
शिवलिंग की स्थापना के बाद गांव के ही छड्डू गुरुजी ने यहां एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। मंदिर की बनावट उस समय की ग्रामीण स्थापत्य कला का सुंदर उदाहरण है। 1908 में एक अंग्रेज द्वारा तैयार की गई क्षेत्रीय सर्वेक्षण रिपोर्ट में भी इस मंदिर का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जो इसके ऐतिहासिक महत्व को प्रमाणित करता है।
सावन के महीने में मंदिर का दृश्य अद्वितीय होता है। सुबह की पहली किरण के साथ ही कांवड़िए और स्थानीय भक्त गंगाजल या अन्य पवित्र जल लेकर मंदिर पहुंचते हैं। चारों ओर "हर-हर महादेव" और "बोल बम" के जयघोष गूंजते हैं। मंदिर प्रांगण में भजन-कीर्तन, ढोल-मंजीरे और शंखनाद से वातावरण आध्यात्मिक हो उठता है। सोमवार को भक्तों की संख्या दोगुनी-तिगुनी हो जाती है।
स्थानीय लोगों और मंदिर समिति के पदाधिकारियों का कहना है कि बाबा पंचवदन इतने दयालु हैं कि यहां आने वाला कोई भी भक्त खाली हाथ नहीं लौटता है। किसी की आर्थिक समस्या हो, कोई संतान सुख की इच्छा रखता हो, या किसी रोग से मुक्ति चाहता हो, सच्ची श्रद्धा और आस्था से बाबा के दरबार में आने वाला हर भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होते देखता है।
मंदिर परिसर की संरचना बेहद साधारण है लेकिन आध्यात्मिक ऊर्जा से भरपूर है। मंदिर के ठीक बाहर एक विशाल पेड़ है, जिसकी छाया में भक्त विश्राम करते हैं। बगल में एक पुराना कुआं है, जिसका जल अब भी साफ और पवित्र माना जाता है। दक्षिण दिशा में कुछ वर्ष पूर्व एक छोटा पोखर बनवाया गया है। मंदिर के बगल में एक दुर्गा मंदिर भी है, जहां नवरात्र में भव्य आयोजन होता है।
शारदीय नवरात्र में दुर्गा मंदिर में मां दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की जाती है। सप्तमी से नवमी तक यहां का माहौल किसी उत्सव से कम नहीं होता है। ढोल-नगाड़ों की गूंज, भक्तों की भीड़, रात्रि में गरबा और भजन-कीर्तन। यह सभी इस क्षेत्र के सांस्कृतिक जीवन का अभिन्न हिस्सा हैं।
पिछले कई दशकों से यह मंदिर विवाह और अन्य सामाजिक आयोजनों का भी केंद्र रहा है। ग्रामीण मानते हैं कि बाबा पंचवदन के आशीर्वाद से यहां होने वाले विवाह जीवनभर सुख-शांति प्रदान करते हैं।
यह स्थान न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह पीढ़ियों को जोड़ने का माध्यम है। यहां की परंपराएं स्थानीय लोककथाओं, गीतों और रीतियों में गहराई से समाई हुई हैं। यह मंदिर लोगों की पहचान और सामूहिक स्मृति का हिस्सा बन चुका है।
बरबीघा का बाबा पंचवदन केवल एक शिवलिंग नहीं है, बल्कि आस्था, परंपरा, इतिहास और चमत्कार का जीवंत प्रतीक हैं। सावन हो या नवरात्र, विवाह हो या कोई मनोकामना, यहां आने वाले हर भक्त को एक अनोखी शांति, संतोष और आशा का अनुभव होता है। बाबा की महिमा का यह संदेश पूरे क्षेत्र में फैला है कि "जो भी आया, खाली हाथ न गया"।
