रेगिस्तान में बसी सभ्यता: जैसलमेर की रेत से निकले हड़प्पा के 4500 साल पुराने अवशेष

Jitendra Kumar Sinha
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राजस्थान का जैसलमेर जिला, जिसे आमतौर पर "स्वर्ण नगरी" कहा जाता है, अब एक और पहचान के साथ सामने आया है, “हड़प्पा सभ्यता के एक गुप्त अध्याय के रूप में”। हाल ही में, “रातडिया री डेरी” नामक स्थान पर हुई पुरातात्विक खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार मरुस्थलीय इलाकों तक भी था, जहाँ जीवन की संभावनाओं की कल्पना भी कठिन होती है। 

धार मरुस्थल की रेत के नीचे दबे इन अवशेषों ने हजारों वर्षों पुराने इतिहास का दरवाजा खोल दिया है। यह अवशेष केवल ईंटों, बर्तनों और औजारों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वह एक समृद्ध, जटिल और व्यवस्थित समाज की गवाही देता है, जिसने जलविहीन इलाके में भी अपने लिए एक ठोस सांस्कृतिक आधार बनाया।

यह स्थल जैसलमेर जिला के रामगढ़ तहसील से 60 किलोमीटर दूर और सादेवाला गांव से लगभग 17 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। इस स्थान की भौगोलिक स्थिति इसे रणनीतिक रूप से भी महत्त्वपूर्ण बनाता है क्योंकि यह भारत-पाकिस्तान सीमा के काफी समीप है। इस तरह यह स्थल प्राचीन व्यापार मार्गों और सभ्यताओं के परस्पर संपर्क के बिंदु के रूप में उभर कर सामने आता है।

“रातडिया री डेरी” की खोज ने राजस्थान के पुरातत्व मानचित्र पर एक नया केन्द्र जोड़ा है, जो उत्तर राजस्थान और गुजरात के बीच फैले धार क्षेत्र में स्थित पहला हड़प्पा सभ्यता से जुड़ा पुरास्थल है।

यह महत्वपूर्ण खोज भारतीय संस्कृति विभाग के शोधार्थी दिलीप कुमार सैनी, इतिहासकार पार्थ जगानी, प्रो. जीवन सिंह खरकवाल (जनजातीय शोध संस्थान, राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर), डॉ. तमेघ पंवार, डॉ. रविंद्र देवरा, चत्रासिंह 'जाम' रामगढ़ और प्रदीप कुमार गर्ग की संयुक्त मेहनत का परिणाम है।

इन शोधकर्ताओं ने आधुनिक पुरातात्विक तकनीकों, स्थानिक सर्वेक्षण और सामग्री विश्लेषण के माध्यम से इस क्षेत्र में गहन अध्ययन किया। उनका मानना है कि “रातडिया री डेरी” से प्राप्त सामग्री हड़प्पा सभ्यता के नगर व्यवस्था, सामाजिक ढांचा, व्यापार प्रणाली और सांस्कृतिक जीवन को समझने में एक नई दृष्टि प्रदान करता है।

हड़प्पा या सिंधु घाटी सभ्यता, जो लगभग 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व तक फली-फूली, दक्षिण एशिया की सबसे प्राचीन और समृद्ध नगर सभ्यताओं में से एक थी। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, राखीगढ़ी, लोथल, धोलावीरा जैसे नगर इसके प्रमुख केंद्र रहे हैं। इस सभ्यता की विशेषताएं थी, नियोजित नगर, जल निकासी व्यवस्था, परिष्कृत शिल्पकला, व्यापारिक संपर्क और लिपि की उपस्थिति।

“रातडिया री डेरी” से प्राप्त अवशेष इस बात का पुष्टि करता है कि यह सभ्यता केवल नदियों के किनारे तक सीमित नहीं थी, बल्कि उसने सूखे और कठिन इलाकों में भी अपना विस्तार किया था।

इस स्थल से अनेक प्रकार के पुरावशेष मिले हैं, जो हड़प्पा संस्कृति की प्रामाणिकता को सिद्ध करता हैं।  मृदभांड (Terracotta Pottery)- लाल लेपयुक्त बर्तन, कटोरे, घड़े, परफोरेटेड जार, यह सभी हड़प्पा संस्कृति के प्रमुख पात्रों में आता है। इन पर विशिष्ट लकीरें और बेलबूटों की कलाकारी से यह स्पष्ट होता है कि यह बर्तन न केवल उपयोगी था, बल्कि सौंदर्यपरक भी था।टैराकोटा केक (Terracotta Cakes)- त्रिकोण और इडली के आकार के ये टैराकोटा केक, संभवतः धार्मिक अनुष्ठानों या घरेलू उपयोग में प्रयुक्त होता था। इसका रूप और संरचना अन्य हड़प्पा स्थलों से मेल खाता है। चर्ट से बने ब्लेड- 8 से 10 सेंटीमीटर के चर्ट पत्थर से बने यह ब्लेड दैनिक जीवन में कटाई, शिकार या घरेलू कार्यों में उपयोग किए जाते होंगे। यह उच्च तकनीकी ज्ञान और कारीगरी का परिचायक हैं। चूड़ियां और आभूषण- मिट्टी और शंख से बनी चूड़ियां, महिला शृंगार और सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रही होगी। इससे हड़प्पा समाज में महिलाओं के सौंदर्यबोध और आभूषणप्रियता का पता चलता है। भट्टी (Furnace)- स्थल के दक्षिणी भाग में एक भट्टी प्राप्त हुई है, जिसमें कॉलम की संरचना है। यह संभवतः धातु या मृदभांड निर्माण के लिए प्रयोग की जाती रही होगी। इस प्रकार की भट्टी पहले मोहनजोदड़ो और कानमेर जैसे स्थलों से भी प्राप्त हो चुका है। बैजन आकार की ईंटें- यह ईंटें गोलाकार संरचनाओं के निर्माण के लिए उपयुक्त थीं, जो शायद भंडारण कक्ष या धार्मिक स्थल रहे होंगे।

जैसलमेर जैसे अति शुष्क क्षेत्र में हड़प्पा संस्कृति का अस्तित्व यह संकेत करता है कि उस काल में पर्यावरणीय परिस्थितियाँ आज से कहीं अधिक अनुकूल रही होंगी, या हड़प्पावासी जल प्रबंधन और जीवन व्यवस्था के बेहद उन्नत साधन अपनाते थे। संभावना है कि इस क्षेत्र में किसी प्राचीन नदी या जलाशय का अस्तित्व रहा हो, जिसके आधार पर यह बस्ती विकसित हुई। मिट्टी के विश्लेषण और स्थलाकृतिक अध्ययन से इन सवालों के उत्तर निकाले जा सकते हैं।

इस स्थल की भौगोलिक स्थिति इसे विशेष संवेदनशील बनाती है, क्योंकि यह पाकिस्तान की सीमा से बेहद नजदीक है। यह संभव है कि यह क्षेत्र प्राचीन काल में भारत और मध्य एशिया के बीच व्यापार, संस्कृति और मानव प्रवास का केंद्र रहा हो। “रातडिया री डेरी” का अस्तित्व बताता है कि यह स्थान केवल सांस्कृतिक ही नहीं, बल्कि सामरिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण रहा होगा।

अब तक हड़प्पा संस्कृति के प्रमुख स्थल पंजाब, हरियाणा, सिंध, गुजरात और उत्तर-पश्चिम भारत तक सीमित माने जाते रहे हैं। लेकिन “रातडिया री डेरी” की खोज ने सिद्ध किया है कि हड़प्पा संस्कृति का प्रभाव राजस्थान के दूरस्थ मरुस्थलीय इलाकों तक था।

इससे पहले, कालीबंगा (हनुमानगढ़), बालाथल (उदयपुर), और घग्गर-हकरा नदी घाटी क्षेत्रों में भी हड़प्पा सभ्यता के चिन्ह मिले थे। लेकिन जैसलमेर की यह खोज एक अलग दिशा की ओर संकेत करती है, हड़प्पा संस्कृति का पश्चिमी रेगिस्तान में गहरा विस्तार।

“रातडिया री डेरी” की यह खोज राजस्थान के पुरातात्विक मानचित्र पर एक नया अध्याय जोड़ती है। यह न केवल सिंधु घाटी सभ्यता के फैलाव को रेखांकित करती है, बल्कि इस बात को भी स्थापित करती है कि भारत के पश्चिमी सीमावर्ती इलाके में सभ्यता और संस्कृति की गहराई थी।

आने वाले वर्षों में यदि इस स्थल पर और अधिक वैज्ञानिक खुदाई और कार्बन डेटिंग की जाती है, तो यह स्थल हड़प्पा युग की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संरचना को और अधिक स्पष्ट रूप से सामने लाने में सहायक होगा।



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