दक्षिण कोरिया ने एक ऐतिहासिक कदम उठाते हुए स्कूलों में मोबाइल फोन पर प्रतिबंध लगाने का कानून पारित कर दिया है। यह फैसला अगले साल मार्च से लागू होगा। संसद में इस विधेयक को भारी समर्थन मिला और इसे विपक्षी पीपुल्स पावर पार्टी के सांसद चो जंग-हुन लेकर आए। उनका कहना है कि युवाओं में सोशल मीडिया और मोबाइल की लत इतनी गहरी हो चुकी है कि यह उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन पर नकारात्मक असर डाल रही है।
आज का छात्र मोबाइल फोन पर घंटों बिताता है। सोशल मीडिया, ऑनलाइन गेमिंग और लगातार आने वाले नोटिफिकेशन बच्चों का ध्यान पढ़ाई से भटकाते हैं। दक्षिण कोरिया जैसे तकनीकी रूप से उन्नत देश में यह समस्या और भी गंभीर है। यहां इंटरनेट की तेज गति और गैजेट्स की आसान उपलब्धता ने बच्चों को और ज्यादा स्क्रीन पर आश्रित बना दिया है। नतीजा यह हुआ कि बच्चे कक्षा में बैठकर भी मोबाइल से चिपके रहते हैं।
चो जंग-हुन ने संसद में तर्क दिया है कि अगर अभी कठोर कदम नहीं उठाए गए तो आने वाली पीढ़ी गंभीर मानसिक और सामाजिक संकट का सामना करेगी। अध्ययनों में भी सामने आया है कि अत्यधिक मोबाइल उपयोग से बच्चों में नींद की कमी, आंखों की समस्याएं, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में गिरावट और सामाजिक कौशल में कमी हो रही है।
मोबाइल पर प्रतिबंध से सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बच्चों का ध्यान पढ़ाई की ओर लौटेगा। शिक्षक अब बिना किसी बाधा के पढ़ा पाएंगे और छात्र भी वास्तविक बातचीत और गतिविधियों में शामिल होंगे। इससे न केवल शैक्षिक गुणवत्ता बढ़ेगी बल्कि छात्रों के बीच आपसी संवाद और सहयोग की संस्कृति भी मजबूत होगी।
इस फैसले के विरोध में कुछ अभिभावक और विशेषज्ञ यह कह सकते हैं कि मोबाइल सुरक्षा के लिहाज से जरूरी है। कई माता-पिता अपने बच्चों से जुड़े रहने के लिए उन्हें मोबाइल देते हैं। लेकिन सरकार का कहना है कि इस दिशा में वैकल्पिक व्यवस्थाएं की जाएंगी ताकि आपात स्थिति में बच्चों और अभिभावकों के बीच संपर्क बना रहे।
कोरिया का यह कदम सिर्फ उसके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के लिए एक सीख है। भारत सहित कई देशों में भी छात्रों के बीच मोबाइल लत गंभीर चुनौती बन चुकी है। अगर शिक्षा के असली उद्देश्यों को बचाना है, तो डिजिटल अनुशासन जरूरी है।
दक्षिण कोरिया का यह फैसला शिक्षा जगत में एक नई बहस छेड़ सकता है। यह बच्चों के भविष्य को सुरक्षित करने का एक साहसिक कदम है। मोबाइल के शोर से बाहर निकलकर जब बच्चे किताबों, खेलों और आपसी बातचीत की ओर लौटेंगे, तभी असली घंटी बजेगी- “पढ़ाई की घंटी”।
