धर्म, भक्ति और प्रेम की पूर्णता है श्रीकृष्ण

Jitendra Kumar Sinha
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हर वर्ष भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि को संपूर्ण भारतवर्ष में हर्षोल्लास और श्रद्धा से मनाया जाता है “श्रीकृष्ण जन्माष्टमी”। यह पर्व धर्म, नीति, भक्ति और प्रेम के संपूर्ण दर्शन का प्रतीक है। कंस के अत्याचार, धर्म का पतन और अन्याय की अति ने जब पृथ्वी को बोझिल कर दिया था, तब विष्णु ने कृष्ण रूप में अवतार लिया। यशोदा के आँचल में झूलता यह बालक साक्षात परम ब्रह्म का अवतरण था। श्रीकृष्ण के जन्म की रात्रि में अंधकार, वर्षा और तूफान के बीच, श्रीकृष्ण का जन्म यह संकेत देता है कि, अंधकार चाहे जितना गहरा हो, ईश्वर का प्रकाश उसमें अपनी राह बना लेता है।

गोकुल और वृंदावन में कृष्ण की बाल लीलाएं रोचक हैं, इनकी लीला यह बताता है कि ईश्वर जब मानव रूप में आते हैं, तब वे अपने भक्तों के साथ खेलते हैं, हँसते हैं, और जीवन की लय में रमते हैं। माखन चोरी केवल एक बालक की चंचलता नहीं, बल्कि अहंकाररूपी मटकी को फोड़कर उसमें छिपी आत्मा की मिठास को प्रकट करने का संकेत है। कालिया नाग मर्दन यह बताता है कि जीवन में जहर फैलाने वाले अहंकार, क्रोध और लोभ जैसे नागों पर कैसे नियंत्रण पाया जा सकता है। गोवर्धन धारण प्रकृति के संरक्षण और सामूहिक एकता की शिक्षा देता है।

श्रीकृष्ण और गोपियों का रास लीला, भौतिक प्रेम नहीं, बल्कि अद्वैत प्रेम का अद्भुत रूप है। गोपियाँ आत्मा हैं, श्रीकृष्ण परमात्मा। यह लीला बताता है कि सच्चा प्रेम सीमाओं से परे होता है, उसमें न वासना होती है, न अधिकार होता है तो केवल समर्पण। राधा और कृष्ण के प्रेम को समझना, मन को संसार से हटाकर आत्मा के भावों से देखना होगा। यह प्रेम न याचक है, न स्वार्थी, यह है अहंकारविहीन पूर्ण समर्पण।

महाभारत का युद्ध केवल युद्ध नहीं था, यह मानवता और अधर्म के बीच का संघर्ष था। यहाँ श्रीकृष्ण राजनीति के गुरु, नीति के द्रष्टा और धर्म के मार्गदर्शक के रूप में सामने आता है। शांतिदूत बनकर हस्तिनापुर जाना, यह दर्शाता है कि युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए। अर्जुन को गीता का उपदेश देना, यह क्षण मानव सभ्यता का शाश्वत प्रकाशस्तंभ है।

गीता का ज्ञान बताता है "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।"  (तेरा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं)। यहाँ श्रीकृष्ण एक प्रेरक, एक सखा, एक मार्गदर्शक और एक ब्रह्मज्ञानी बनकर सामने आते है।




श्रीकृष्ण की भक्ति के अनेक स्वरूप हैं, वह है सखा भाव, वात्सल्य भाव, माधुर्य भाव, दास्य भाव। कोई उन्हें मित्र मानता है, कोई पिता, कोई प्रेमी और कोई स्वामी। मीरा ने उन्हें जीवनसाथी मानकर भक्ति की। सूरदास ने उनकी बाल लीलाओं में अपनी आँखें खो दीं। नरसी मेहता ने उन्हें परम पुरुष कहा। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें प्रेम की पूर्णता बताया। भक्ति का हर रूप कृष्ण में समाहित है, और वह हर रूप में भक्त को स्वीकार करते हैं।

श्रीकृष्ण का जीवन सिखाता है कि धर्म केवल सन्यास में नहीं है, बल्कि जीवन की गतिविधियों में भी होता है। क्योंकि वह राजा भी थे, योद्धा भी, कूटनीतिज्ञ भी और संत भी। उनके जीवन में संगीत, प्रेम, युद्ध, नीति, भक्ति, ज्ञान,  सब एक साथ समाहित हैं। उनका संदेश है "संसार से भागो मत, उसे ईश्वर की पूजा बना दो।"

आज जब नैतिक पतन, सामाजिक विघटन और मानसिक अशांति से लोग जूझ रहे हैं, श्रीकृष्ण का जीवन और उपदेश और भी प्रासंगिक हो जाता है। वह सिखाते हैं कि संकट में स्थिर रहो (जैसे अर्जुन के साथ किया), प्रेम में ईश्वर को खोजो (जैसे गोपियों ने किया), अधर्म के विरुद्ध खड़े हो जाओ (जैसे कंस और कुरुक्षेत्र में किया), श्रीकृष्ण की शिक्षा एक संपूर्ण जीवन पद्धति है, जहाँ राग है पर विराग भी है, जहाँ नीतियाँ हैं पर मर्यादा भी है।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, यह आत्मा के भीतर श्रीकृष्ण के अवतरण का प्रतीक है। यह पर्व अंदर छिपे कंस को समाप्त करने और कृष्ण को जाग्रत करने का अवसर देता है। इस दिन उपवास, भजन, रासलीला और गीता पाठ, भीतर के अधर्म को बाहर निकालने का माध्यम है।

भारत के कोने-कोने में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की भव्यता देखने लायक होती है, मथुरा और वृंदावन की सजीव लीलाएं, दही हांडी की उत्सवधर्मिता मुंबई और महाराष्ट्र में, इस्कॉन मंदिरों की रात्रि आरती और महाभोग, नृत्य-नाट्य और कीर्तन की अभिव्यक्ति। हर व्यक्ति श्रीकृष्ण को अपने तरीके से अनुभव करता है, यही उनकी पूर्णता है।

श्रीकृष्ण का जीवन कला भी है, ज्ञान भी, भक्ति भी और जीवन विज्ञान भी। वह सिखाता हैं प्रेम करो, पर आसक्ति नहीं, धर्म निभाओ - पर बिना हिंसा के, जीवन जियो - पर आत्मा को भूलो मत। उनके जीवन की सुंदरता इसी में है कि वह जीवन जीने का हर आयाम सिखाता है  प्रेम, धर्म, नीति, करुणा और आत्मज्ञान।

श्रीकृष्ण जन्म से परे हैं, मृत्यु से परे हैं, समय से परे हैं। श्रीकृष्ण केवल एक नाम नहीं, एक चैतन्य है। जो उनके साथ चल पड़ा, उसे जीवन की दिशा मिल गई। सूरदास ने कहा था "श्रीकृष्ण गुन गावत नन्दलाल, मन बस्यो मोरे नैनन माहि।"



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