जनआक्रोश - नेताओं के अहम पर जनता की चोट

Jitendra Kumar Sinha
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लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत जनता है। जब जनता मौन रहती है तो नेता अपने को अजेय मान लेते हैं, लेकिन जैसे ही जनता बोल उठती है, उसके स्वर से राजमहल की दीवारें हिल जाती हैं। हाल के दिनों में दो घटनाएँ “नेपाल में नेताओं के प्रति जनाक्रोश और भारत में उपराष्ट्रपति चुनाव में विपक्ष की पराजय” ने न केवल भारतीय राजनीति को गहरी सीख दी है बल्कि पूरी दुनिया के राजनेताओं को एक चेतावनी भी दी है। इन घटनाओं ने दिखा दिया है कि नेताओं का अहंकार और सत्ता का मद यदि जनता की पीड़ा और आकांक्षाओं को अनदेखा करता है तो उसका हश्र विनाश ही होगा।

नेपाल की भूमि ने एक ऐतिहासिक दृश्य देखा। आम जनता, विशेषकर युवा वर्ग, नेताओं के प्रति इस हद तक आक्रोशित हुआ है कि उसने सत्ता और प्रतिष्ठा के प्रतीक बने राजनेताओं के धन, बल और यश को सरेआम जला कर भस्म कर दिया। यह घटना केवल नेपाल तक सीमित नहीं रही, बल्कि पूरी दुनिया के राजनीतिक गलियारों में गूँज उठी। नेपाल की जनता ने अपने नेताओं को स्पष्ट संदेश दिया है कि राजनीति का मकसद जनसेवा है, न कि निजी सुख-सुविधा और परिवारवाद। युवाओं का यह आक्रोश नेताओं की उस मानसिकता पर प्रहार था, जिसमें वे स्वयं को जनता से ऊपर समझने लगते हैं। यह दृश्य एक नए युग की शुरुआत का संकेत है, जहाँ जनता अब नेताओं को “त्रिदेव” मानने को तैयार नहीं है।

भारत में मंगलवार को हुए उपराष्ट्रपति चुनाव ने विपक्ष की स्थिति को नग्न कर दिया। पराजय लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन जब हार का कारण केवल मतों की संख्या नहीं, बल्कि विपक्ष का आंतरिक विघटन और नेताओं का अहंकार हो, तो यह लोकतंत्र की सेहत के लिए गंभीर संकेत है। इस चुनाव ने विपक्ष की न केवल हार सुनिश्चित की बल्कि यह भी दिखा दिया कि जब नेता स्वयं के अहम और निजी महत्वाकांक्षा को पार्टी और लोकतांत्रिक मूल्यों से ऊपर रखते हैं, तो उनकी साख सड़क पर नीलाम हो जाती है।

इन दोनों घटनाओं ने यह साफ कर दिया है कि अब जनता नेताओं को भगवान नहीं मानती। यह 21वीं सदी का नया लोकतांत्रिक युग है जहाँ जनता का धैर्य टूटने पर नेताओं के लिए कोई भी ढाल काम नहीं आएगी। लोकतंत्र में जनता मालिक है और नेता सेवक। लेकिन जब सेवक अपने को स्वामी समझने लगे तो जनता उसे कठोर दंड देने से पीछे नहीं हटती।

यह केवल भारत या नेपाल की कहानी नहीं है। पूरी दुनिया में नेताओं का अहंकार जनता को झकझोर रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, श्रीलंका जैसे देशों में जनता का गुस्सा नेताओं के खिलाफ सड़कों पर दिख चुका है। श्रीलंका में जनता ने राष्ट्रपति भवन तक को घेर लिया और राष्ट्रपति को भागने पर मजबूर कर दिया। यह घटनाएँ दर्शाती हैं कि आज की वैश्विक राजनीति में जनता की आवाज को अनसुना करना आत्मघाती है।

राजनेताओं की सबसे बड़ी भूल यही है कि वे सत्ता में पहुँचते ही स्वयं को अजेय मान लेते हैं। उन्हें लगता है कि जनता उनके वादों को भूल जाएगी और वे धनबल, जाति-धर्म, या सत्ता के तंत्र से पुनः चुनकर आ जाएँगे। लेकिन नई पीढ़ी की चेतना ने यह भ्रम तोड़ दिया है। सोशल मीडिया, शिक्षा और वैश्विक संवाद ने जनता को पहले से अधिक जागरूक बना दिया है। अब जनता नेताओं के हर कदम पर नजर रखती है।

भारत को नेपाल की घटना से सीख लेनी चाहिए। युवाओं का आक्रोश यहाँ भी कम नहीं है। बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, जातिगत राजनीति, और नेताओं का अहंकार पहले से ही जनता को विचलित कर रहा है। यदि समय रहते भारतीय राजनेता चेत नहीं पाए तो यहाँ भी जनता का गुस्सा उभर सकता है। उपराष्ट्रपति चुनाव ने विपक्ष को आईना दिखा दिया है कि केवल सत्ता के लिए राजनीति करने का युग अब समाप्त हो रहा है। जनता को आज पारदर्शिता, निष्ठा और सेवा चाहिए।

भारत में विपक्ष की कमजोरी केवल संख्याओं की वजह से नहीं है बल्कि उसकी सबसे बड़ी कमजोरी नेताओं का अहंकार और असमंजस है। एक ओर जनता को एक मजबूत विपक्ष चाहिए जो सरकार को जवाबदेह बनाए, लेकिन विपक्ष अपने ही अंतर्विरोधों में उलझा हुआ है। यही कारण है कि जनता धीरे-धीरे उनसे दूरी बनाने लगी है। यदि विपक्ष खुद को पुनर्जीवित करना चाहता है तो उसे अहंकार त्याग कर जनता के मुद्दों पर ईमानदारी से काम करना होगा।

लोकतंत्र केवल नेताओं के भरोसे नहीं चलता। जनता को भी अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी। जनता यदि केवल जाति, धर्म और छोटी-छोटी रोटियों पर वोट डालती रही तो नेताओं का अहंकार और बढ़ेगा। जनता को अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने कर्तव्यों का भी बोध होना चाहिए। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता नेताओं को कठघरे में खड़ा करने का साहस जुटाएगी।

नेपाल और भारत की घटनाएँ केवल दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं हैं। यह पूरे विश्व के नेताओं को चेतावनी हैं कि सत्ता केवल सेवा का माध्यम है, स्वार्थ की दुकान नहीं। यदि नेता इस मूल मंत्र को भूलेंगे तो जनता उन्हें गद्दी से उतारने में देर नहीं करेगी। यह वैश्विक राजनीति के लिए एक निर्णायक क्षण है।

नेपाल का जनआक्रोश और भारत का उपराष्ट्रपति चुनाव, यह दोनों घटनाएँ मिलकर एक बड़ा संदेश देता है। यह संदेश है कि जनता अब और सहन नहीं करेगी। नेताओं का अहंकार चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, जनता के गुस्से के सामने वह ताश के पत्तों की तरह ढह जाएगा। यदि राजनेता स्वयं को “त्रिदेव” मानता है तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल है। असली त्रिदेव तो जनता है, जो रचती भी है, पालती भी है और संहार भी करती है।



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