लोकतंत्र की चुनौती - राजनीति और मर्यादा

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय राजनीति हमेशा से वाद-विवाद और मतभेद का केंद्र रहा है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहस होना स्वाभाविक है क्योंकि यही संवाद लोकतंत्र की आत्मा है। लेकिन जब यह संवाद मर्यादाओं को पार कर जाए और शालीनता को छोड़कर कटुता, व्यक्तिगत आक्षेप तथा अमर्यादित शब्दावली का रूप ले ले, तब यह केवल चुनावी लाभ-हानि का विषय नहीं रह जाता, बल्कि राष्ट्र के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने पर गहरा प्रहार करता है।

भारत की राजनीति का इतिहास बताता है कि भाषा और आचरण के स्तर पर उच्च आदर्श स्थापित किए गए थे। महात्मा गांधी सत्य, अहिंसा और शालीनता की भाषा बोलते थे। पंडित नेहरू के भाषणों में मतभेद तो स्पष्ट होता था, किंतु व्यक्तिगत कटाक्ष नहीं। अटल बिहारी वाजपेयी अपनी राजनीतिक विपक्ष को सम्मानजनक संबोधन देते हुए अपनी बात रखते थे। इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि राजनीति का अर्थ केवल सत्ता की प्राप्ति नहीं, बल्कि समाज को सभ्य और सुसंस्कृत दिशा देना भी है।

वर्तमान समय में राजनीतिक विमर्श जिस स्तर पर जा रहा है, वह चिंताजनक है। राहुल गांधी का आचरण और वक्तव्य, वोटर अधिकार यात्रा के दौरान उनके शब्दों में, जिस प्रकार की भाषा और व्यंग्य झलक रहा है, वह प्रधानमंत्री पद के दावेदार के लिए, शोभनीय नहीं कहा जा सकता है। आलोचना करना अधिकार है, लेकिन भाषा की सीमा लोकतंत्र की प्रतिष्ठा तय करती है। राजद की राजनीति, यह कोई नई बात नहीं है कि राजद और उसके नेताओं की भाषा कई बार मर्यादा से परे रही है। जातिगत समीकरणों पर आधारित कटाक्ष, विपक्षी दलों के लिए अपमानजनक संबोधन और सड़कछाप शब्दावली इस दल की राजनीतिक धरोहर मानी जाती रही है। अन्य दलों का व्यवहार, केवल कांग्रेस या राजद ही नहीं, बल्कि समय-समय पर सभी दलों के नेता भाषाई मर्यादाओं को तोड़ते रहे हैं।

भारत आज विश्व की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। आर्थिक प्रगति, सांस्कृतिक विविधता और राजनीतिक स्थिरता विश्व को प्रभावित कर रही है। लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय मंच पर  राजनेताओं के असंयमित वक्तव्य सामने आता है, तो यह छवि धूमिल होती है। विदेशी मीडिया इन भाषाई हमलों को ‘भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी’ के रूप में प्रस्तुत करता है। यह संदेश जाता है कि भारत की राजनीति अब विचारों का नहीं, बल्कि अपमान और कटाक्ष का खेल बन गया है।

भारत की मूल संस्कृति संवाद, सहिष्णुता और सम्मान की रही है। शास्त्र कहते हैं  “वाक् संयम ही मनुष्य का सबसे बड़ा आभूषण है।”  फिर भी राजनीति में यही वाणी संयम आज गायब होता जा रहा है। इससे यह प्रश्न उठता है कि क्या राजनीति हमारी संस्कृति के विपरीत दिशा में खड़ी हो गई है?

मर्यादाहीन राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान लोकतंत्र को होता है। मतदाता का मोहभंग तब होता है जब नेता गाली-गलौज और व्यक्तिगत हमले करते हैं, तब आम मतदाता राजनीति को एक गंदा खेल समझने लगता है। युवा पीढ़ी पर असर बुड़ा असर पड़ने लगता है, जब राजनीति को करियर के रूप में देखने वाले युवाओं के सामने गलत उदाहरण स्थापित होता है। संसदीय गरिमा का ह्रास तब होने लगता है जब संसद और विधानसभा में बहस विचारों की बजाय आरोप-प्रत्यारोप का मंच बन जाता है।

आज के नेता जानते हैं कि विवादास्पद बयान ज्यादा सुर्खियां बटोरता है। ट्विटर और फेसबुक पर त्वरित प्रतिक्रिया के लिए असंयमित भाषा का प्रयोग बढ़ा है। गाली-गलौज और जातिगत व्यंग्य से भीड़ में तात्कालिक तालियां मिल जाती हैं। नए नेताओं को वैचारिक और नैतिक शिक्षा देने वाली संस्थाएं समाप्त हो गई हैं।

चुनाव आयोग को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वह चुनावी भाषणों में अपमानजनक भाषा प्रयोग करने वाले नेताओं पर तुरंत कार्रवाई करे। पार्टियां अपने घोषणापत्र में राजनीतिक शुचिता और भाषा की मर्यादा पर बल दें। मतदाता को यह तय करना होगा कि वह केवल उसी नेता को वोट देगा जो शालीन और संस्कारी भाषा का प्रयोग करे। मीडिया को भी उत्तेजक और असंयमित वक्तव्यों को सनसनी बनाकर प्रस्तुत करने से बचना चाहिए।

लोकतंत्र केवल चुनाव जीतने का माध्यम नहीं है। यह उस सभ्यता और संस्कृति की आत्मा है जो भारत को विश्वगुरु बनाती है। अगर राजनीति की भाषा पतित हो जाएगी, तो लोकतंत्र की आत्मा भी क्षतिग्रस्त होगी।

आज जब भारत विश्व पटल पर अपनी ताकत साबित कर रहा है, तब नेताओं की भाषा और आचरण को भी उसी स्तर का होना चाहिए। व्यक्तिगत कटाक्ष, असंयमित भाषा और मर्यादाओं का उल्लंघन केवल राजनीति को खोखला नहीं बनाता है, बल्कि पूरे राष्ट्र की छवि को भी धूमिल करता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हर राजनीतिक दल भाषा की मर्यादा तय करे। जनता ऐसे नेताओं को नकारे और मीडिया जिम्मेदारी से व्यवहार करे।



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