“शर्कररे (करवीर) शक्तिपीठ” (माता सती की आँख गिरी थी)

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारतवर्ष की सनातन परंपरा में 51 शक्तिपीठों का अत्यंत पावन और महत्वपूर्ण स्थान है। यह वह दिव्य स्थल हैं जहाँ देवी सती के अंग गिरे थे और जिन स्थानों को साक्षात शक्ति के रूप में पूजा जाता है। इन शक्तिपीठों में कुछ आज के भारत में हैं तो कुछ वर्तमान पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका और नेपाल जैसे देशों में स्थित हैं। इन्हीं दुर्लभ और गूढ़ शक्तिपीठों में एक है “शर्कररे शक्तिपीठ”, जिसे करवीर शक्तिपीठ भी कहा जाता है। यह शक्तिपीठ आज के पाकिस्तान के सिंध प्रांत में, कराची के पास सुक्कर स्टेशन के निकट स्थित है।

यह वही स्थान है जहाँ माता सती की आँख गिरी थी। इसलिए इसे "दृष्टि की देवी" का स्वरूप भी माना जाता है। यहाँ की अधिष्ठात्री देवी महिषासुरमर्दिनी हैं और भैरव को “क्रोधिश” नाम से जाना जाता है। यह शक्तिपीठ न केवल भक्ति का केंद्र है, बल्कि हिन्दू संस्कृति, पुराणों और आध्यात्मिक चेतना का अनमोल धरोहर भी है।

शक्तिपीठों की स्थापना का मूल स्रोत शिवपुराण, देवी भागवत, तंत्रचूड़ामणि तथा कालिका पुराण जैसे ग्रंथ हैं। देवी सती की आत्माहुति के पश्चात जब भगवान शिव उनके मृत शरीर को लेकर तीनों लोकों में विलाप करते हुए घूम रहे थे, तब ब्रह्मांड में संतुलन बनाए रखने हेतु भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभक्त कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ शक्तिपीठों की स्थापना हुई।

“शर्कररे शक्तिपीठ” वह स्थान है जहाँ माता सती की आँख गिरी थी। आँख, दृष्टि का स्रोत है और इसलिए यहाँ देवी के दृष्टिपूर्ण, दिव्य दृष्टि, मोह भंजन और ज्ञान दायिनी स्वरूप की पूजा होती है।

इस शक्तिपीठ को दो नामों से जाना जाता है “शर्कररे और करवीर”। "शर्कररे" नाम संस्कृत मूल से आता है जिसका अर्थ है 'रेत' या 'रेतीली भूमि'। यह इस क्षेत्र की भौगोलिक प्रकृति की ओर संकेत करता है, क्योंकि सिंध क्षेत्र में बहती सिंधु नदी और उसकी सहायक धाराओं के कारण रेत और नमी की प्रचुरता है।

"करवीर" नाम भी अत्यंत रोचक है। "कर" का अर्थ है 'हाथ' और "वीर" का अर्थ 'शक्तिशाली योद्धा'। इस नाम से संकेत मिलता है कि यह स्थान शक्ति और युद्ध की देवी महिषासुरमर्दिनी का प्रत्यक्ष वास है, जो करों से दुष्टों का नाश करती हैं।

यह शक्तिपीठ देवी के महिषासुरमर्दिनी स्वरूप को समर्पित है। यह वही रूप है जिसमें माँ ने महिषासुर जैसे महादैत्य का संहार किया था। देवी के इस रूप में दस भुजाएँ हैं, जिनमें अनेक अस्त्र-शस्त्र हैं त्रिशूल, तलवार, चक्र, धनुष, गदा आदि। वह सिंह पर आरूढ़ हैं और उनके चरणों तले महिषासुर पराजित पड़ा है।

महिषासुरमर्दिनी का यह स्वरूप दुष्टता, अहंकार, अत्याचार, तमस और अधर्म के विरुद्ध धर्म, शक्ति, मर्यादा, ज्ञान और भक्ति की विजय का प्रतीक है। शर्कररे शक्तिपीठ में देवी के इसी उग्र और सौम्य मिश्रित स्वरूप की पूजा होती है।

प्रत्येक शक्तिपीठ में देवी के साथ एक भैरव की भी उपस्थिति अनिवार्य माना जाता है। शर्कररे शक्तिपीठ के भैरव का नाम “क्रोधिश” है। ‘क्रोधिश’ शब्द ‘क्रोध’ + ‘ईश’ से बना है, अर्थात क्रोध के ईश्वर। यह नाम प्रतीकात्मक है, यह भैरव उस अनियंत्रित, तामसिक ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करता है जो माता की शक्ति को नियंत्रित और संरक्षित करता है।

भैरव क्रोधिश शक्ति के संवाहक भी हैं और उनका पूजन साधकों को आंतरिक भय, मोह, शत्रुता और क्रोध से मुक्ति प्रदान करता है। क्रोधिश भैरव का आशीर्वाद पाने से साधक को दृढ़ संकल्प, आंतरिक साहस और आत्मानुशासन की प्राप्ति होती है।

1947 में भारत के विभाजन के पश्चात यह शक्तिपीठ पाकिस्तान के हिस्से में चला गया। आज यह सिंध प्रांत के सुक्कर जिले में स्थित है। यहाँ का सुक्कर स्टेशन कराची से लगभग 500 किलोमीटर की दूरी पर है। पाकिस्तान में रहने वाले कुछ हिन्दू परिवार इस पीठ की स्मृति को आज भी संजोए हुए हैं, परंतु नियमित पूजा और दर्शन अब पहले जैसे संभव नहीं हैं।

बहुसंख्यक हिन्दू भक्त इस शक्तिपीठ के केवल नाम और आख्यानों से ही जुड़ पाते हैं। भारतीय श्रद्धालुओं के लिए यह स्थल आज "कल्पनात्मक तीर्थ" बन गया है, क्योंकि वहाँ जाना लगभग असंभव है।

शर्कररे शक्तिपीठ का विशेष महत्व तांत्रिक साधकों के लिए भी है। माना जाता है कि यहाँ की शक्तिशाली ऊर्जा अत्यंत तीव्र है, जिससे तांत्रिक क्रियाएँ जल्दी फलित होती हैं। महानिर्वाण तंत्र, रुद्रयामल और तंत्रसार जैसे ग्रंथों में इस शक्तिपीठ की महिमा का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

काली साधना, त्राटक, नेत्र साधना और दृष्टि साक्षात्कार जैसी गूढ़ साधनाओं के लिए इस पीठ की कल्पना की जाती है। साधक यहाँ की देवी की कृपा से ‘त्रिकालदर्शी’ होने का वर मांगते हैं।

भारत में शक्तिपीठ यात्रा करने वाले भक्तों के लिए शर्कररे शक्तिपीठ की कल्पना, श्रद्धा का एक पवित्र खंड बनती है। चाहे वह इसे प्रत्यक्ष रूप में न देख सकें, परंतु मानसिक रूप से इस पीठ की आराधना उन्हें संपूर्ण शक्तिपीठ यात्रा का पुण्य प्रदान करती है। विशेषकर नवरात्र में शक्ति की नौ रूपों की पूजा के साथ इस शक्तिपीठ का ध्यान अवश्य किया जाता है।

शर्कररे शक्तिपीठ भारत के धार्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अध्ययनों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। सिंधु घाटी सभ्यता, महाभारत कालीन भूगोल, ऋग्वैदिक नदियाँ, और वैदिक यज्ञों के स्थल, इन सबका जुड़ाव इस क्षेत्र से है। ऐसे में इस शक्तिपीठ का अस्तित्व भारतीय इतिहास की एक अमूल्य कड़ी है।

भारत और पाकिस्तान के बीच यदि कभी धार्मिक धरोहरों पर समझौता होता है तो यह शक्तिपीठ विश्व धरोहर स्थल के रूप में स्थापित हो सकता है।

आज इंटरनेट और डिजिटल माध्यमों के द्वारा सनातन संस्कृति का प्रसार हो रहा है। ऐसे में शर्कररे शक्तिपीठ को लेकर नई पीढ़ी में जागरूकता बढ़ रही है। भारतीय विद्वान, सनातन प्रचारक और यूट्यूब चैनल्स अब इस शक्तिपीठ की जानकारी, इतिहास और मान्यताओं को फिर से जनमानस तक पहुँचा रहे हैं।

कुछ श्रद्धालु इस स्थान की प्रतिकृति भारत में स्थापित करने की मांग भी कर रहे हैं, ताकि इस महान पीठ की पूजा विधिपूर्वक हो सके।

शर्कररे शक्तिपीठ से जुड़े विशेष अनुष्ठान में नेत्र पूजा- नवरात्र के दौरान तीसरे दिन विशेष रूप से माता की दृष्टि शक्ति की आराधना की जाती है। मोह भंजन स्तोत्र- इससे भक्तों को दृष्टि दोष, निर्णय भ्रम, मोह और मानसिक भ्रम से मुक्ति मिलती है। महिषासुरमर्दिनी स्तुति- देवी के युद्ध रूप की आराधना से शक्ति, साहस और आत्मबल की प्राप्ति होती है।



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