आभा सिन्हा, पटना
भारतवर्ष के प्रत्येक अंचल में देवी की आराधना का अद्भुत वैभव देखने को मिलता है। कहीं मां दुर्गा महिषासुर मर्दिनी के रूप में विराजती हैं, तो कहीं माता काली, तारा, भुवनेश्वरी, षोडशी या भैरवी के रूप में। इन्हीं देवियों के शक्तिपीठों का विशेष धार्मिक और तांत्रिक महत्त्व है। इन्हीं पवित्र स्थलों में से एक है “बहुला (चंडिका) शक्तिपीठ”, जो पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में केतुग्राम के समीप अजय नदी के तट पर स्थित है। यह स्थान अपनी अविचल आस्था, तांत्रिक शक्ति और आध्यात्मिक ऊर्जा के लिए प्रसिद्ध है।
शक्तिपीठों की कथा का आरंभ स्वयं आदिशक्ति सती से होता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, राजा दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में अपनी पुत्री सती और उनके पति भगवान शिव का अपमान किया। अपमान सहन न कर पाने पर सती ने यज्ञकुंड में आत्मदाह कर लिया। शिव जब यह समाचार सुनते हैं तो वे विरक्त और क्रोधित हो उठते हैं। वे सती के मृत शरीर को लेकर तांडव करने लगे, जिससे सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया। तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर को 51 भागों में विभाजित कर दिया। जहाँ-जहाँ सती के शरीर के अंग, आभूषण या वस्त्र गिरे, वहाँ शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। प्रत्येक पीठ पर माता की एक विशिष्ट शक्ति रूप में पूजा होती है और प्रत्येक स्थान पर उनके साथ एक भैरव का भी निवास होता है।
“कालिका पुराण”, “तंत्रचूड़ामणि” और “देवी भागवत पुराण” में बहुला शक्तिपीठ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यहाँ कहा गया है कि “केतुग्रामे नदी तीरे बहुला नामकं स्थले। पातितं वामहस्तं तु चंडिका बहुला स्मृता॥ तत्र भीरुक नाम भैरवः प्रतिष्ठितः॥” अर्थात् केतुग्राम में, अजय नदी के तट पर, जहाँ सती का बायाँ हाथ गिरा था, वहाँ देवी बहुला चंडिका की प्रतिष्ठा हुई और उनके भैरव भीरुक विराजमान हुए।
‘बहुला’ शब्द संस्कृत मूल से निकला है जिसका अर्थ है “बहुतायत”, “समृद्ध”, “पूर्णता” या “विस्तार”। यह नाम देवी की उस व्यापक ऊर्जा का प्रतीक है जो समस्त सृष्टि को आच्छादित करती है। यह भी कहा जाता है कि देवी ने यहाँ विस्तृत रूप (बहुल रूप) में स्वयं को प्रकट किया था, इसलिए यह स्थान बहुला चंडिका पीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
बहुला शक्तिपीठ पश्चिम बंगाल के वर्धमान (Bardhaman) जिले में केतुग्राम के समीप अजय नदी के किनारे स्थित है। यह स्थान कटुआ से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर है। अजय नदी यहाँ एक सुंदर प्राकृतिक आभा प्रदान करती है, नदी का शांत प्रवाह, वृक्षों की छाया, और तट पर स्थित प्राचीन मंदिर, सभी मिलकर इसे एक अद्भुत तीर्थस्थल बना देता है। वर्धमान जनपद का यह क्षेत्र प्राचीन काल से ही शैव-शाक्त साधना का केंद्र रहा है। यहाँ तंत्र साधक, योगी, और तांत्रिक परंपरा के अनुयायी सदीयों से साधना करते आए हैं।
देवी बहुला का विग्रह एक अत्यंत शांत किन्तु प्रभावशाली मुद्रा में स्थित है। वह चार भुजाओं वाली हैं, और उनके हाथों में त्रिशूल, कमल, वरमुद्रा और अभयमुद्रा सुशोभित हैं। उनका मुख करुणा और तेज दोनों से परिपूर्ण है। स्थानीय परंपरा में उन्हें मां चंडिका भी कहा जाता है, क्योंकि वे शक्ति और करुणा दोनों का संगम हैं। उनके निकट ही भीरुक भैरव का स्थान है, जो इस पीठ के संरक्षक देवता माने जाते हैं।
जैसे प्रत्येक शक्तिपीठ में एक भैरव का निवास होता है, वैसे ही यहाँ के भैरव हैं भीरुक। ‘भीरुक’ शब्द का अर्थ है जो भय का नाश करे। स्थानीय मान्यता के अनुसार, कोई भी भक्त यदि सच्चे भाव से मां बहुला के दर्शन करता है, तो भीरुक भैरव उसकी सभी बाधाओं और भयों का अंत कर देते हैं। भीरुक भैरव का मंदिर बहुला देवी के निकट स्थित है, जहाँ साधक तांत्रिक अनुष्ठान, भैरव अष्टमी और कालरात्रि साधना करते हैं।
कहते हैं कि एक समय इस क्षेत्र में बहुला नाम की गौ माता अपने बछड़े के साथ रहती थी। एक दिन गाँव के राजा ने उसका बछड़ा बलि के लिए माँग लिया, परंतु बहुला गौ माता ने कहा कि वह स्वयं जाकर अपने बछड़े को मुक्त कराएगी। वह नदी पार कर जब इस स्थान पर पहुँची, तब देवी ने उसके समर्पण और मातृत्व से प्रसन्न होकर दर्शन दिए। तब से इस क्षेत्र का नाम बहुला पड़ गया, और देवी यहाँ “बहुला चंडिका” नाम से पूजित हुईं। यह कथा “मातृत्व, समर्पण और धर्म की विजय” का प्रतीक माना जाता है।
बहुला शक्तिपीठ का वर्तमान मंदिर बंगाल शैली की प्राचीन टेराकोटा वास्तुकला में बना है। दीवारों पर देवी के विभिन्न रूपों की मिट्टी की मूर्तियाँ और शिल्पकारी अत्यंत सुंदर है। मंदिर का मुख्य द्वार अजय नदी की ओर खुलता है और भीतर देवी का गर्भगृह अत्यंत पवित्र वातावरण से भरा रहता है। मंदिर के समीप ही एक विशाल वटवृक्ष है, जिसे “सिद्धवट” कहा जाता है। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि इस वटवृक्ष के नीचे ध्यान करने से साधक को विशेष सिद्धि प्राप्त होती है।
हर वर्ष माघ पूर्णिमा और नवरात्र के अवसर पर यहाँ भव्य बहुला मेला आयोजित किया जाता है। देश के विभिन्न भागों से श्रद्धालु माता के दर्शन हेतु आते हैं। नवरात्र में अष्टमी और नवमी को विशेष कुंड पूजन, हवन और देवी चंडी पाठ होता है। यहाँ की दुर्गा पूजा और काली पूजा भी अत्यंत प्रसिद्ध हैं। मंदिर में रात्रि को दीपमालिका, भजन, तांत्रिक नृत्य और ध्यान साधना होती है।
बहुला शक्तिपीठ तंत्र साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण स्थल है। यहाँ शक्ति साधना, श्रीविद्या उपासना, भैरव साधना और नवाक्षरी मंत्र के अनुष्ठान किया जाता है। स्थानीय तांत्रिक परंपरा में इसे ‘तृप्ति पीठ’ कहा गया है, अर्थात् जहाँ देवी साधक को साधना की पूर्णता प्रदान करती हैं। कहा जाता है कि महान तांत्रिक कामाख्या से लेकर कालिम्पोंग तक की साधना पंक्तियों में बहुला पीठ का नाम अत्यंत श्रद्धा से लिया जाता है।
अजय नदी को स्थानीय जनमानस में “पावन धारा” कहा गया है। मान्यता है कि इस नदी में स्नान करने से पापों का क्षय होता है। बहुला शक्तिपीठ आने वाले श्रद्धालु पहले अजय नदी में आचमन और स्नान करते हैं, फिर माता के दर्शन करते हैं। नदी के किनारे दर्शन के बाद ध्यान साधना करना एक परंपरा मानी जाती है।
बहुला पीठ का धार्मिक संबंध तारापीठ (बीरभूम) और कालीघाट (कोलकाता) शक्तिपीठों से जुड़ा है। कहा जाता है कि तीनों पीठों को मिलाकर “त्रिशक्ति मंडल” कहा जाता है, जो पूर्व भारत की शक्ति साधना का केंद्र है। इन तीनों स्थलों में देवी शक्ति के तीन रूपों, करुणा (तारा), क्रोध (काली) और शांति (बहुला), का प्रतीकात्मक रूप से दर्शन होता है।
बहुला माता की आराधना के लिए अजय नदी में स्नान कर मन को शुद्ध करना चाहिए। लाल फूल, चावल और दीपक अर्पित कर, स्थानीय रूप से रचित बहुला चालीसा का पाठ करने से मनोवांछित फल मिलता है। माता के दर्शन के पश्चात भैरव के मंदिर में जाकर उनकी आराधना करना चाहिए। नवदुर्गा या नवाक्षरी मंत्रों से ध्यान करने से साधक की इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
लोक परंपराओं में कई कहानियाँ बहुला पीठ से जुड़ी हैं। एक कथा के अनुसार, कुल्हाई नामक ब्राह्मण ने यहाँ बहुला अन्नपूर्णा व्रत किया था। मां बहुला ने प्रसन्न होकर उसे अन्न-समृद्धि का आशीर्वाद दिया, जिससे वह पूरे ग्राम में ‘अन्नदाता ब्राह्मण’ कहलाया। एक अन्य कथा में कहा गया है कि जब मुगल काल में इस क्षेत्र में आक्रमण हुआ, तो मंदिर की मूर्ति स्वयं भूमि में समा गई, और जब शांति स्थापित हुई, तब देवी ने स्वयं एक साधु को स्वप्न में दर्शन देकर अपनी मूर्ति को पुनः प्रकट करवाया।
बहुला शक्तिपीठ केवल एक मंदिर नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक केंद्र भी है। यहाँ के लोकगीत, शक्ति-भजन, और बहुला देवी की आरती बंगाल के लोकसंगीत में विशेष स्थान रखता है। हर वर्ष हजारों श्रद्धालु यहाँ न केवल पूजा के लिए आते हैं, बल्कि संस्कृतिक कार्यक्रम, नाट्य मंचन, और भक्ति संगीत महोत्सव में भाग लेते हैं।
बहुला शक्तिपीठ में प्रवेश करते ही एक अद्भुत शांति का अनुभव होता है। घंटियों की ध्वनि, अगरबत्ती की सुगंध, और भक्ति की गूंज से वातावरण भर जाता है। मां के दर्शन के समय लगता है जैसे स्वयं आदिशक्ति आपके सामने विराजमान हों। अजय नदी के तट पर बैठकर ध्यान करने से मन में एक गहन आध्यात्मिक तृप्ति प्राप्त होती है।
बहुला पीठ केवल एक धार्मिक स्थल नहीं है, यह भारतीय नारी के त्याग, शक्ति और करुणा का प्रतीक है। यहाँ सती का “बायाँ हाथ” गिरा था और “हाथ” कर्म का प्रतीक है। इसलिए यह पीठ सिखाता है कि कर्म ही भक्ति का सच्चा स्वरूप है। बहुला देवी यह प्रेरणा देती हैं कि “समर्पण में ही शक्ति है, और शक्ति में ही मोक्ष।”
