सृष्टि के न्यायाधीश हैं - भगवान चित्रगुप्त

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

हिन्दू धर्म में हर देवता का कोई-न-कोई विशेष कार्य और दायित्व है। जहां ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता हैं, विष्णु पालनकर्ता हैं और महादेव संहारक माने जाते हैं, वहीं भगवान चित्रगुप्त को "सृष्टि का प्रथम न्यायाधीश" कहा गया है। वे यमलोक में रहकर हर प्राणी के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं और उसके आधार पर यमराज को निर्णय हेतु प्रस्तुत करते हैं। इसीलिए चित्रगुप्त को धर्म, न्याय और कर्मफल के देवता माना जाता है।

वेद, पुराण और महाकाव्यों में भगवान चित्रगुप्त का महत्त्वपूर्ण वर्णन मिलता है। पद्म पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मा जी के शरीर (काया) से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम "कायस्थ" पड़ा। गरुड़ पुराण में विस्तार से बताया गया है कि मृत्यु के उपरांत प्राणी की आत्मा यमदूतों द्वारा यमलोक ले जाया जाता है, जहां भगवान चित्रगुप्त पाप-पुण्य का लेखा खोलते हैं और उसी के अनुसार, स्वर्ग-नरक का निर्धारण होता है। महाभारत के अनुशासन पर्व में भी कर्म और उनके फल की चर्चा करते समय भगवान चित्रगुप्त का उल्लेख आता है।

भारतीय दर्शन मानता है कि आत्मा अमर है, किंतु देह नश्वर है। मृत्यु के बाद आत्मा का भविष्य उसके कर्मों से तय होता है। यहाँ भगवान चित्रगुप्त की भूमिका "कॉस्मिक रिकार्ड कीपर" (ब्रह्मांडीय लेखाकार) की है। आधुनिक विज्ञान की भाषा में कहें तो मनुष्य के हर विचार और कर्म "कंपन" (Vibration) के रूप में ब्रह्मांड में दर्ज होता जाता है। इन्हीं अदृश्य "रिकॉर्ड्स" को पुराणों ने भगवान चित्रगुप्त की लेखा-पद्धति बताया है।



आज न्यूरोसाइंस मानता है कि मृत्यु के पश्चात भी मस्तिष्क कुछ समय तक सक्रिय रहता है और जीवन की घटनाएँ चित्रों की तरह स्मृति में उभरती हैं। ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व इस सत्य को "चित्रगुप्त" नामक दिव्य सत्ता से जोड़ा। "चित्र" अर्थात चित्र/चित्रात्मक स्मृतियाँ। "गुप्त" अर्थात सुरक्षित और गुप्त रूप से संरक्षित। इस प्रकार चित्रगुप्त शब्द का वास्तविक अर्थ हुआ "वह सत्ता जो गुप्त रूप से हर प्राणी के जीवन के चित्र सुरक्षित रखती है।"

यमराज को मृत्यु का अधिपति और दंडाधिकारी कहा गया है। भगवान चित्रगुप्त को "न्यायकर्ता" कहा गया है। यहाँ स्पष्ट है कि चित्रगुप्त के पास रिकॉर्ड रखने का दायित्व है और यमराज दंड देने वाले अधिकारी हैं। यानि चित्रगुप्त = न्यायाधीश और यमराज = कार्यकारी अधिकारी। 

भगवान चित्रगुप्त को "कायस्थों का आदिदेव" माना जाता है। उनकी संतानों से कायस्थ समाज की 12 शाखाएँ विकसित हुईं, जो भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैले कायस्थ राजवंश, प्रशासक, विद्वान और लेखक उनकी परंपरा को जीवित रखते आए हैं। कायस्थों को "कलम और तलवार" दोनों के उपासक कहा जाता है, क्योंकि भगवान चित्रगुप्त लेखन (न्याय) और युद्ध (धर्म-रक्षा) दोनों में पारंगत थे।

भगवान चित्रगुप्त न केवल धार्मिक और पौराणिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, बल्कि वे न्याय, सत्य और कर्मफल के सिद्धांतों के प्रतीक भी हैं। उनका स्वरूप हमें यह सिखाता है कि इस संसार में किया गया हर कर्म दर्ज होता है और अंततः उसका फल अवश्य मिलता है।

हिन्दू धर्मग्रंथों के अनुसार, जब ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की, तब उन्होंने अपने "मन" और "काया" दोनों से संतान उत्पन्न की। मन से उत्पन्न संतानें - वशिष्ठ, नारद, अत्रि जैसे ऋषि हुए। काया (शरीर) से उत्पन्न संतानें धर्म, वासना, मृत्यु, भरत आदि हुए। लेकिन सृष्टि के संतुलन के लिए केवल उत्पत्ति और पालन ही पर्याप्त नहीं था। ब्रह्मांडीय व्यवस्था को न्यायपूर्ण ढंग से चलाने के लिए किसी ऐसे दिव्य पुरुष की आवश्यकता थी, जो समस्त जीवों के कर्मों का लेखा-जोखा रख सके और उसके आधार पर न्याय दे सके।

एक कथा के अनुसार ब्रह्मा जी ने अपने ध्यान में यह विचार किया कि सृष्टि में न्याय और संतुलन तभी संभव है, जब किसी विशेष सत्ता को "कर्म-गणना" का कार्य सौंपा जाए। उन्होंने अपनी "काया" से एक तेजस्वी पुरुष को प्रकट किया, जिसका स्वरूप अद्भुत और दैदीप्यमान था। चूंकि वे ब्रह्मा की काया (शरीर) से उत्पन्न हुए थे, अतः उन्हें "कायस्थ" कहा गया और क्योंकि वे "चित्रों के समान स्मृतियों को गुप्त" रखते थे, इसलिए उनका नाम चित्रगुप्त पड़ा।

ब्रह्मा जी ने उन्हें आदेश दिया कि "हे चित्रगुप्त! तुम्हें यह दिव्य कार्य सौंपा जाता है कि तुम सृष्टि के प्रत्येक प्राणी का लेखा रखो। किसने क्या सोचा, क्या बोला और क्या किया। सब कुछ तुम्हारे लेखा-पत्र में अंकित होगा। और मृत्यु के बाद तुम्हारे लेखा के आधार पर ही यमराज न्याय करेंगे।" इस प्रकार भगवान चित्रगुप्त बने "सृष्टि के प्रथम न्यायाधीश"।

भगवान चित्रगुप्त केवल न्यायाधीश ही नहीं बल्कि एक वंश के आदिदेव भी हैं। उनकी दो पत्नियाँ थीं। पहली पत्नी देवी शोभावती,  जिनसे 8 पुत्र उत्पन्न हुए। दूसरी पत्नी देवी नंदिनी (दक्षिणा), जिनसे 4 पुत्र उत्पन्न हुए। इस प्रकार कुल 12 पुत्रों से कायस्थ वंश की 12 शाखाएँ बनीं। 

भगवान चित्रगुप्त के 12 पुत्र और उनकी शाखाएँ हैं- हिमवान (अम्बष्ट), चारु (माथुर), सुचारु (गौड़), चित्र (भटनागर), मतिभान (सक्सेना), चित्रचारु (कर्ण), चित्रचरण/चारुस्त (अष्टाना), अतीन्द्रिय (बाल्मीकि/जितेंद्रिय), भानु (श्रीवास्तव), विभानु (सूरजध्वज), विश्वभानु (निगम), वीर्यभानु (कुलश्रेष्ठ)। इन सभी पुत्रों का विवाह नागराज वासुकी की 12 कन्याओं से हुआ था। इसलिए कायस्थ समाज की ननिहाल नागवंश से माना जाता है। देवी शोभावती के आठ पुत्र बिहार, बंगाल और उड़ीसा क्षेत्र में जा बसे। देवी नंदिनी के चार पुत्र (भानु, विभानु, विश्वभानु, वीर्यभानु) कश्मीर की ओर चले गए और वहीं बस गए।

प्राचीन काल में बंगाल क्षेत्र "गौड़ देश" कहलाता था, इसलिए इनकी शाखा "गौड़ कायस्थ" के नाम से प्रसिद्ध हुई। कायस्थ वंशज समय-समय पर भारत के विभिन्न हिस्सों में सत्ता और प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं। कश्मीर में दुर्लभवर्धन कायस्थ वंश, काबुल और पंजाब में जयपाल वंश, गुजरात में बल्लभी कायस्थ, दक्षिण भारत में चालुक्य कायस्थ, उत्तर भारत में देवपाल गौड़ कायस्थ, मध्य भारत में सतवाहन और परिहार कायस्थ।  इन वंशों ने केवल प्रशासन ही नहीं बल्कि कला, साहित्य और न्याय व्यवस्था में भी योगदान दिया।

कायस्थ समाज को "कलम और तलवार" दोनों का उपासक कहा गया है। कलम लेखा-जोखा, प्रशासन और ज्ञान का प्रतीक होता है। तलवार युद्ध और धर्मरक्षा का प्रतीक है। इसीलिए भारत में सदियों से कायस्थ समाज को "प्रशासनिक वर्ग" के रूप में देखा गया है।

भारतीय धर्मग्रंथों और पुराणों में भगवान श्रीराम का अयोध्या आगमन और उनके राज्याभिषेक का प्रसंग अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह कथा न केवल अयोध्या के गौरव को दर्शाता है, बल्कि भगवान चित्रगुप्त की महिमा और कायस्थ समाज की धार्मिक प्रतिष्ठा को भी प्रकट करता है। लंका विजय के उपरांत जब भगवान श्रीराम अयोध्या लौट रहे थे, तब भरत ने उनके खड़ाऊं को सिंहासन पर स्थापित कर राज्य चलाया था। प्रभु राम के आगमन की सूचना मिलते ही भरत ने गुरु वशिष्ठ से आग्रह किया कि वे रामराज्याभिषेक की तैयारी करें और सभी देवी-देवताओं को इस महोत्सव के लिए आमंत्रित करें। गुरु वशिष्ठ ने अपने शिष्यों को निमंत्रण बांटने का दायित्व सौंप दिया और स्वयं राजतिलक की तैयारियों में लग गए।

राजतिलक के दिन समस्त देवगण, ऋषि-मुनि, गंधर्व और अप्सराएँ अयोध्या पधारे, लेकिन भगवान चित्रगुप्त कहीं दिखाई नहीं दिए। यह देखकर भगवान राम ने भरत से कारण पूछा। जांच करने पर पता चला कि गुरु वशिष्ठ के शिष्यों ने भूलवश चित्रगुप्त जी को निमंत्रण ही नहीं भेजा था।

भगवान चित्रगुप्त जी सर्वज्ञानी थे, उन्होंने इस घटना को प्रभु श्रीराम की महिमा और एक परीक्षा के रूप में देखा। किंतु गुरु वशिष्ठ की इस भूल को उन्होंने अक्षम्य माना और यमलोक में प्राणियों के पाप-पुण्य का लेखा-जोखा लिखने वाली अपनी दिव्य कलम और दवात को एक ओर रख दिया। फलस्वरूप स्वर्ग और नरक के सारे कार्य ठप पड़ गए। यह तय कर पाना कठिन हो गया कि मृत्यु के बाद किस प्राणी को कहाँ जाना है।

जब देवगणों को इसका आभास हुआ, तब उन्होंने भगवान श्रीराम को निवेदन किया। भगवान राम स्वयं गुरु वशिष्ठ को साथ लेकर अयोध्या में भगवान विष्णु द्वारा स्थापित चित्रगुप्त मंदिर (जिसे श्री धर्म-हरि मंदिर कहा गया है) पहुँचे। वहाँ उन्होंने भगवान चित्रगुप्त जी की स्तुति की और गुरु वशिष्ठ की भूल के लिए क्षमा मांगी। प्रभु राम की प्रार्थना स्वीकार करते हुए चित्रगुप्त जी ने चार पहर (लगभग 24 घंटे) पश्चात पुनः कलम-दवात की पूजा की और लेखा-जोखा लिखने का कार्य आरंभ किया।

इस प्रसंग के बाद से भगवान चित्रगुप्त जी ब्राह्मणों सहित समस्त समाज में पूजनीय माने जाने लगे। भगवान श्रीराम के आशीर्वाद से भगवान चित्रगुप्त जी को यह वरदान भी दिया गया कि कायस्थ ब्राह्मणों के लिए भी पूजनीय हुए और सबसे दान लेने वाले ब्राह्मणों से दान लेने का अधिकार विशेष रूप से सिर्फ कायस्थों को प्रदान किया गया।

यह कथा केवल धार्मिक आस्था ही नहीं है, बल्कि कर्तव्य और उत्तरदायित्व की महत्ता को भी प्रकट करती है। गुरु वशिष्ठ की भूल ने सम्पूर्ण सृष्टि के कार्यों को बाधित कर दिया, और इसे सुधारने के लिए स्वयं भगवान राम को मध्यस्थता करनी पड़ी। इस घटना से यह शिक्षा मिलती है कि समाज में हर भूमिका का अपना महत्व है। भगवान चित्रगुप्त की कृपा और श्रीराम की भक्ति से ही आज कायस्थ समाज को सम्मान और विशिष्ट स्थान प्राप्त हुआ।

भगवान चित्रगुप्त का जन्म और वंश यह सिखाता है कि कर्म और न्याय सृष्टि की नींव हैं। ब्रह्मा जी की काया से उत्पन्न होकर चित्रगुप्त ने सिद्ध कर दिया है कि ब्रह्मांडीय व्यवस्था में न्याय का स्थान सर्वोच्च है। कायस्थ वंशज आज भी इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं और ज्ञान, प्रशासन, लेखन एव न्याय में अपनी छाप छोड़ते हैं।




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