दुनिया भर में कॉफी प्रेमियों के लिए "कोपी लुवाक" किसी जादुई पेय से कम नहीं है। यह कॉफी न केवल अपने स्वाद और खुशबू के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि इसकी निर्माण प्रक्रिया इतनी अनोखी है कि सुनने वाले हैरान रह जाते हैं। इसका रहस्य छिपा है एक छोटे से जानवर “एशियन कॉमन पाम सिवेट” में, जो दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया के जंगलों में पाया जाता है।
सिवेट नामक यह जानवर कॉफी के पौधे की लाल-लाल चेरी खाता है। लेकिन वह केवल उसका गूदा पचाता है, जबकि बीज उसके पाचन तंत्र से लगभग अपरिवर्तित रूप में बाहर निकलते हैं। यही बीज जब इकट्ठा किए जाते हैं, धोए जाते हैं, सुखाए जाते हैं और भुने जाते हैं, तो उनसे तैयार होती है दुनिया की सबसे महंगी कॉफी “कोपी लुवाक”।
सुनने में यह प्रक्रिया असामान्य लग सकती है, लेकिन यही प्राकृतिक किण्वन (फर्मेंटेशन) बीन्स को एक अलग स्वाद और सुगंध देता है। सिवेट के पाचन तंत्र में उपस्थित एंजाइम बीजों की रासायनिक संरचना को थोड़ा बदल देता है, जिससे उसमें कड़वाहट कम होता है और एक मुलायम, क्रीमी फ्लेवर विकसित होता है।
हाल ही में भारत के केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने इस पर वैज्ञानिक अध्ययन किया है। उन्होंने ताजा कॉफी बीन्स और सिवेट से प्राप्त बीन्स की तुलना की। परिणामों में पाया गया कि सिवेट से निकली बीन्स आकार में बड़ी और अधिक वसा वाली थी। इनमें ऐसे रासायनिक तत्वों की मात्रा अधिक थी, जो कॉफी को "डेयरी जैसी मुलायम खुशबू" और गहराई देता है।
दिलचस्प बात यह है कि प्रोटीन और कैफीन का स्तर दोनों प्रकार की बीन्स में लगभग समान पाया गया। अंतर सिर्फ स्वाद और सुगंध के जटिल रासायनिक संयोजन में था, जो सिवेट की पाचन प्रक्रिया के कारण उत्पन्न हुआ।
“कोपी लुवाक” की कीमत विश्व बाजार में सैकड़ों डॉलर प्रति कप तक होती है। इसकी दुर्लभता और मेहनत भरी प्रक्रिया इसे "लक्जरी कॉफी" बनाता है। इसके उत्पादन को लेकर नैतिक चिंताएं भी उठाई जाती हैं। कुछ जगहों पर सिवेट्स को कैद में रखकर जबरन कॉफी चेरी खिलाई जाता है, जिससे पशु-कल्याण पर सवाल खड़ा होता है।
केरल विश्वविद्यालय के शोध से यह संकेत मिला है कि यदि प्राकृतिक तरीकों से जंगलों में रहने वाले सिवेट्स से बीन्स एकत्र किए जाएं, तो स्वाद भी बरकरार रह सकता है और जानवरों को कोई हानि भी नहीं होगी। वैज्ञानिक अब यह पता लगाने की दिशा में काम कर रहे हैं कि क्या सिवेट के पाचन में होने वाली प्राकृतिक एंजाइम प्रक्रिया को प्रयोगशाला में दोहराया जा सकता है, ताकि कॉफी को स्वस्थ, टिकाऊ और नैतिक रूप से तैयार किया जा सके।
“कोपी लुवाक” केवल एक कॉफी नहीं है, बल्कि प्रकृति और जीव-जंतुओं के अद्भुत सह-अस्तित्व का उदाहरण है। यह दिखाती है कि स्वाद का असली जादू विज्ञान और प्रकृति की साझेदारी में छिपा है। अगर इस प्रक्रिया को नैतिक और पर्यावरण-अनुकूल ढंग से अपनाया जाए, तो यह न केवल कॉफी उद्योग में क्रांति ला सकती है, बल्कि पशु संरक्षण के लिए भी एक नई मिसाल बन सकता है।
