भारतीय संस्कृति में सूर्य की उपासना का इतिहास अत्यंत प्राचीन और गौरवपूर्ण रहा है। ऋग्वेद के मंत्रों से लेकर उपनिषदों और पुराणों तक, सूर्य को न केवल जीवनदाता बल्कि ज्ञान, प्रकाश, और शक्ति के प्रतीक के रूप में देखा गया है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सूर्य को ‘साक्षात् जगत का नेत्र’ कहा है “सूर्यो विश्वस्य चक्षुः”।
भारत के कोने-कोने में सूर्य की आराधना के लिए असंख्य मंदिर बने हैं, जिसमें से बारह विशेष सूर्य मंदिरों का उल्लेख पुराणों और कथाओं में मिलता है। इन बारह मंदिरों को “द्वादश आदित्य मंदिर” कहा गया है, जो बारह राशियों का प्रतीक हैं।
मंदिरों की कथा भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र राजा साम्ब से जुड़ी हुई है, जिनकी कथा भारतीय पौराणिक इतिहास का एक अद्भुत अध्याय प्रस्तुत करता है। एक ऐसे राजकुमार की कथा, जो सौंदर्य के गर्व में डूबकर श्रापग्रस्त हो गया, और जिसने सूर्य की आराधना करके न केवल रोगमुक्ति पाई, बल्कि बारह भव्य मंदिरों का निर्माण करवा कर सूर्य उपासना की परंपरा को अमर बना दिया।
साम्ब, भगवान श्रीकृष्ण और उनकी प्रमुख रानी जाम्बवती के पुत्र थे। ‘साम्ब’ नाम का अर्थ होता है “जो स्वयं में समाहित है”। वे असाधारण रूप से सुंदर, वीर और कला-प्रेमी माने जाते थे। किंतु अपने सौंदर्य और यौवन पर उन्हें अत्यधिक गर्व था।
उनकी सुंदरता इतनी विख्यात थी कि द्वारका की कन्याएँ उन्हें देखने मात्र से मुग्ध हो जाती थीं। धीरे-धीरे यह गर्व उनके व्यक्तित्व में अहंकार के रूप में बदल गया। कथा के अनुसार, उन्होंने एक बार ऋषि गंगाचार्य का उपहास उड़ाया, क्योंकि वे स्वयं को अत्यंत सुंदर और ऋषि को कुरूप मानते थे। यह अपमान ऋषि को असह्य हुआ, और उन्होंने क्रोधित होकर साम्ब को श्राप दिया कि “हे साम्ब, जिस रूप का तुम्हें गर्व है, वही रूप तेरा शत्रु बनेगा। तेरा शरीर ऐसा विकृत हो जाएगा कि तू स्वयं अपने रूप से घृणा करेगा।”
ऋषि गंगाचार्य के श्राप से साम्ब को भयंकर कुष्ठ रोग (leprosy) हो गया। उनके शरीर का तेज लुप्त हो गया, अंगों में घाव हो गए, और वे समाज से दूर रहने को विवश हो गए। यह वही समय था जब उन्हें अपने अहंकार की गंभीरता का बोध हुआ। उन्होंने पिता श्रीकृष्ण से विनती की कि उन्हें इस दारुण पीड़ा से मुक्ति का कोई उपाय बताएं।
भगवान श्रीकृष्ण ने साम्ब को बताया कि मनुष्य के कर्म और अहंकार का निवारण केवल भक्ति और तपस्या से ही संभव है। तभी देवर्षि नारद मुनि वहाँ आए और उन्होंने साम्ब को सलाह दी कि “हे साम्ब! सूर्य देव ही ऐसे देवता हैं जो चर्मरोग और कुष्ठ जैसे असाध्य रोगों से मुक्ति दे सकते हैं। प्रत्येक माह सूर्य की एक-एक राशि में उनकी आराधना करो। बारह महीनों में बारह स्थानों पर बारह सूर्य रूपों की उपासना करो। इससे तुम्हें रोगमुक्ति मिलेगी।” साम्ब ने श्रद्धा और समर्पण से यह सलाह स्वीकार किया और सूर्य उपासना की यात्रा पर निकल पड़े।
नारद मुनि ने साम्ब को बताया था कि सूर्य की प्रत्येक राशि में एक विशिष्ट ऊर्जा और स्थान है। साम्ब ने बारह स्थलों पर बारह सूर्य मंदिरों का निर्माण करवाया। प्रत्येक मंदिर सूर्य की एक राशि से जुड़ा हुआ था। इन मंदिरों को क्रमशः उलार्क, पुण्यार्क, अंगार्क, बालार्क, देवार्क, लोलार्क, कोणार्क, वर्णार्क, दर्शनार्क, मार्कण्डेयार्क, वेदार्क और एक अज्ञात बारहवाँ मंदिर कहा गया है।
पुरातत्ववेत्ताओं और धर्मशास्त्रों के अनुसार, अब तक इन बारह मंदिरों में से ग्यारह मंदिरों की पहचान किया जा चुका है।
“उलार्क सूर्य मंदिर”
बिहार के पटना जिला के दुल्हिन बाजार स्थित “उलार्क सूर्य मंदिर” को द्वादश सूर्य मंदिरों में प्रथम माना जाता है। यहाँ एक प्राचीन सरोवर है, जिसके जल को औषधीय माना जाता है। छठ पर्व के अवसर पर हजारों श्रद्धालु यहाँ सूर्य को अर्घ्य देते हैं। मान्यता है कि साम्ब ने यहाँ मकर राशि के सूर्य की आराधना की थी।
“पुण्यार्क सूर्य मंदिर”
यह मंदिर बाढ़ के पास पण्डारक नामक स्थान पर स्थित है। ‘पुण्यार्क’ का अर्थ है पुण्य देने वाला सूर्य। यह क्षेत्र गंगा तट के समीप है, और माना जाता है कि यहाँ के स्नान से पाप नष्ट होता हैं।
“अंगार्क सूर्य मंदिर”
नालंदा जिला का औंगारी क्षेत्र ‘अंगार्क’ के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के सूर्य देव को ‘अग्नि स्वरूप’ माना जाता है। पुरातात्विक साक्ष्य बताता है कि यह मंदिर गुप्तकालीन स्थापत्य का उदाहरण है।
“बालार्क सूर्य मंदिर”
नालंदा जिला में स्थित है “बालार्क सूर्य मंदिर”। ‘बालार्क’ शब्द का अर्थ है बाल्य सूर्य। यह वह स्थान है जहाँ साम्ब ने सूर्य के उदित रूप की उपासना की थी। यहाँ के सूर्य मंदिर में प्राचीन मूर्तियाँ और पत्थर के स्तंभ अब भी सुरक्षित हैं।
“देवार्क सूर्य मंदिर”
देव औरंगाबाद (बिहार) में स्थित है का “देवार्क सूर्य मंदिर”। यह मंदिर भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध सूर्य मंदिरों में से एक है। यहाँ का देव छठ महापर्व अत्यंत प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि साम्ब ने यहाँ स्नान करके अपने कुष्ठ रोग से मुक्ति पाई थी। मंदिर की स्थापत्य शैली नागर है और इसकी दीवारों पर सूर्य के रथ, अश्व और रथिकों के शिल्प अंकित हैं।
“लोलार्क सूर्य मंदिर”
वाराणसी (उत्तर प्रदेश) के अस्सी घाट के निकट स्थित “लोलार्क कुंड सूर्य” उपासना का प्राचीन केंद्र है। यहाँ ‘लोलार्क षष्ठी’ पर्व मनाया जाता है। किंवदंती है कि बाँझ स्त्रियाँ यहाँ स्नान कर संतान प्राप्ति की कामना करती हैं।
“कोणार्क सूर्य मंदिर”
उड़ीसा के “कोणार्क सूर्य मंदिर”, विश्व प्रसिद्ध स्थापत्य चमत्कार है। यह मंदिर 13वीं शताब्दी में पुनर्निर्मित हुआ था, किंतु इसकी पौराणिक जड़ें साम्ब की उपासना से जुड़ी हैं। यह सूर्य देव का रथाकार मंदिर है, जिसकी दीवारों पर बारह चक्र और सात अश्व अंकित हैं।
“वर्णार्क सूर्य मंदिर”
महाराष्ट्र की चन्द्रभागा नदी के तट पर स्थित यह मंदिर “वर्णार्क सूर्य मंदिर” कहलाता है। यहाँ सूर्य की उपासना रंग (वर्ण) और प्रकाश के रूप में की जाती है। वर्तमान में यह मंदिर खंडहर अवस्था में है, किंतु स्थानीय परंपराओं में यह आज भी जीवित है।
“दर्शनार्क सूर्य मंदिर”
अयोध्या का “दर्शनार्क सूर्य मंदिर” अत्यंत प्राचीन है। कहा जाता है कि यहाँ साम्ब ने सूर्य देव से प्रत्यक्ष दर्शन प्राप्त किए थे। यह मंदिर अब खंडहर में है, परंतु यहाँ के सरोवर और मूर्तिशिल्प अब भी प्राचीन गौरव की झलक देता है।
“मार्कण्डेयार्क सूर्य मंदिर”
“मार्कण्डेयार्क सूर्य मंदिर” मार्कण्डेय ऋषि का तपोस्थान गुजरात में स्थित है। यहाँ साम्ब ने सूर्य की ‘संजीवनी शक्ति’ की आराधना की थी। यह वही स्थान माना जाता है जहाँ मार्कण्डेय ऋषि ने यमराज को हराया था।
“वेदार्क सूर्य मंदिर”
‘वेदार्क’ सूर्य मंदिर महाराष्ट्रके विदर्भ क्षेत्र में बताया गया है। यहाँ साम्ब ने सूर्य देव से वेदज्ञान की प्राप्ति के लिए तपस्या की थी। मंदिर अब विलुप्तप्राय है, पर स्थानीय मान्यता अब भी विद्यमान है।
“रहस्यमय 12वां सूर्य मंदिर (अब भी अज्ञात)”
इतिहास और पुरातत्व के अनुसार, इन ग्यारह मंदिरों का स्थान तो ज्ञात है, परंतु बारहवाँ सूर्य मंदिर आज भी रहस्य बना हुआ है। कई इतिहासकारों का मत है कि यह मंदिर सिंधु या सारस्वत क्षेत्र में रहा होगा, जो अब पाकिस्तान के हिस्से में है। कुछ का मत है कि यह मंदिर नेपाल या बिहार के सीमा क्षेत्र में कभी रहा होगा, जहाँ से पुरातात्विक साक्ष्य अब लुप्त हो चुका है।
कुछ पुरातत्ववेत्ताओं का मानना है कि राजा साम्ब ने सूर्य की उपासना उत्तर-पश्चिम भारत में भी की थी। संभव है कि बारहवाँ मंदिर हड़प्पा सभ्यता के उत्तराधिकार क्षेत्र में स्थित रहा हो। हरियाणा के कुरुक्षेत्र, पीपली या थानेसर क्षेत्र में पाए गए सूर्य-मूर्तियाँ इस संभावना को मजबूत करता हैं।
नेपाल की तराई में भी कई प्राचीन सूर्य प्रतिमाएँ मिली हैं। लुंबिनी और कपिलवस्तु के आसपास के क्षेत्रों में साम्ब की यात्रा से जुड़ी कथाएँ मिलती हैं। सम्भव है कि बारहवाँ मंदिर वहीं कहीं रहा हो।
गया जिला के दक्षिणी भाग या पलामू (झारखंड) में कुछ अवशेष मिला है जिसे स्थानीय लोग ‘सूर्य कोठी’ कहते हैं। यह भी एक संभावित स्थल माना जाता है।
यह भी संभव है कि वह मंदिर प्राकृतिक आपदाओं, जैसे बाढ़, भूकंप या नदी के मार्ग परिवर्तन, के कारण लुप्त हो गया हो। गंगा, सोन, या दामोदर नदियों के किनारे स्थित कई प्राचीन स्थल इस तरह मिट गए हैं।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) ने 20वीं शताब्दी में बिहार, उड़ीसा और उत्तर प्रदेश में कई खुदाइयाँ कीं। कई विद्वानों जैसे डॉ. राधाकृष्ण चौधरी, प्रो. ए. गंगाधरन और प्रो. श्रीनिवास पांडेय ने इन द्वादश सूर्य मंदिरों पर शोध किया है। फिर भी बारहवें मंदिर की सटीक स्थिति अब तक स्थापित नहीं हो सकी है।
उच्च तकनीकी सर्वे (जैसे LIDAR, GIS mapping, और उपग्रह इमेजिंग) से भी कुछ संकेत मिले हैं कि सोन और पुनपुन नदी के पुराने तटों पर कोई विशाल मंदिर संरचना कभी रही होगी।
सूर्य मंदिर केवल धार्मिक आस्था का केंद्र नहीं हैं, बल्कि यह भारत के वास्तुशिल्प, खगोल विज्ञान और जल प्रबंधन प्रणाली के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। प्रत्येक मंदिर की दिशा, संरचना और सूर्य के वार्षिक गमन के साथ उनका सामंजस्य देखने योग्य है।
छठ पर्व, माघ स्नान, लोलार्क षष्ठी, रथ सप्तमी जैसे पर्व इन मंदिरों की परंपरा से ही विकसित हुए हैं। राजा साम्ब की कथा इस बात का प्रतीक है कि अहंकार से पतन और भक्ति से उत्थान होता है यह भारतीय अध्यात्म का सनातन सत्य है।
इन मंदिरों में सूर्य की किरणों के आगमन की दिशा का वैज्ञानिक अध्ययन आश्चर्यचकित कर देता है। उदाहरण के लिए कोणार्क में सूर्य की किरणें सुबह सबसे पहले गर्भगृह में गिरती हैं। देव (औरंगाबाद) में छठ पर्व के दौरान अस्त होते सूर्य की किरणें सीधे सूर्य मूर्ति पर पड़ती हैं। लोलार्क कुंड के जल में सूर्य प्रतिबिंब की स्थिति ऋतु परिवर्तन के साथ बदलती है। यह दर्शाता है कि इन मंदिरों के निर्माण में खगोलशास्त्र, गणित और ज्यामिति का गहरा ज्ञान निहित था।
साम्ब ने बारह वर्षों तक कठोर तप किया। अंततः सूर्य देव प्रसन्न हुए और उन्हें कुष्ठ रोग से मुक्ति प्रदान की। उन्होंने सूर्य देव के आशीर्वाद से द्वारका में भी एक विशाल सूर्य मंदिर बनवाया, जिसे “साम्ब सूर्य मंदिर” कहा गया। कहा जाता है कि यहीं से सूर्य उपासना की परंपरा पूरे भारत में फैली।
आज भी छठ पूजा, रथ सप्तमी, संक्रांति आदि पर्वों में साम्ब की यह कथा गूँजती है। यह बताती है कि रोग का निवारण केवल औषधि से नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि और तप से भी संभव है।
राजा साम्ब की कथा यह सिखाती है कि जीवन में जब अभिमान जन्म लेता है, तब उसका नाश निश्चित है; परंतु श्रद्धा, तप और भक्ति मनुष्य को पुनः दिव्यता प्रदान करती है। बारह सूर्य मंदिर केवल ईंट-पत्थर की रचनाएँ नहीं हैं, बल्कि वे मानव आत्मा के प्रकाश की प्रतीक स्थापनाएँ हैं।
ग्यारह मंदिरों की खोज हमारे पुरातत्व और आस्था दोनों की विजय है किंतु बारहवें अज्ञात मंदिर का रहस्य हमें अब भी पुकार रहा है। शायद वह मंदिर किसी नदी के नीचे, किसी पहाड़ की गोद में, या किसी भूले-बिसरे गाँव की मिट्टी में छिपा हो, लेकिन उसकी ऊर्जा आज भी भारतीय चेतना में विद्यमान है।
