देवोत्थान एकादशी - “योगनिद्रा से जागते हैं श्री हरि”

Jitendra Kumar Sinha
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आभा सिन्हा, पटना

भारतीय सनातन संस्कृति में प्रत्येक पर्व और व्रत का गहरा धार्मिक, पौराणिक और आध्यात्मिक महत्त्व होता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी, जिसे देवोत्थान एकादशी, प्रबोधिनी एकादशी, या देवउठनी एकादशी कहा जाता है, उन पर्वों में से एक है जो सृष्टि के चक्र में शुभ काल का द्वार खोलती है। चार महीने तक योगनिद्रा में रहने के बाद इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु जागते हैं, और उनके जागरण के साथ ही समस्त सृष्टि में शुभता और मांगलिक कार्यों की पुनः शुरुआत होती है।

हिन्दू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ शुक्ल एकादशी को देवशयनी एकादशी कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु क्षीरसागर में चार महीनों के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। यह अवधि चातुर्मास कहलाता है। इस अवधि में भगवान विश्राम करते हैं, अतः परंपरा के अनुसार इस दौरान कोई भी मांगलिक कार्य, जैसे विवाह, गृहप्रवेश, उपनयन, यज्ञोपवित, या नए निर्माण कार्य नहीं किया जाता है। 

चार महीना के बाद, जब कार्तिक शुक्ल पक्ष एकादशी आती है, तब श्री हरि की निद्रा समाप्त होती है। यही दिन देवोत्थान एकादशी के रूप में मनाया जाता है। भगवान के इस जागरण से सृष्टि में सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह पुनः बढ़ता है। यह समय अध्यात्म, भक्ति और पुनर्जागरण का प्रतीक माना जाता है।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, एक बार देवता, असुर और मनुष्य, तीनों ही वर्गों ने भगवान विष्णु से निवेदन किया कि वे सृष्टि में संतुलन लाने के लिए कुछ समय विश्राम करें। भगवान ने सभी की प्रार्थना स्वीकार की और कहा कि “मैं आषाढ़ शुक्ल एकादशी से लेकर कार्तिक शुक्ल एकादशी तक योगनिद्रा में रहूंगा। इस काल में कोई भी मांगलिक कार्य न किया जाए।” कहते हैं, जब भगवान विष्णु क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर योगनिद्रा में गए, तो देवी लक्ष्मी भी उनके चरणों की सेवा में तत्पर रहीं।

चार महीना बाद, जब कार्तिक मास आया और सृष्टि ने प्रार्थना किया कि “हे प्रभो, अब जागिए, आपकी नींद से संसार का चक्र रुक गया है।” तब भगवान ने प्रबोधिनी एकादशी के दिन अपनी नेत्र पट खोली और कहा कि “अब सभी शुभ कर्म आरंभ हों, क्योंकि मैं जाग चुका हूं।” इस प्रकार देवोत्थान एकादशी का पर्व सृष्टि के पुनर्जागरण का प्रतीक बन गया।

देवोत्थान एकादशी का विशेष महत्त्व विष्णु भक्तों, व्रतियों और वैष्णव परंपरा में माना जाता है। इस दिन के संबंध में पद्मपुराण और स्कंदपुराण में विस्तार से उल्लेख मिलता है। कहा गया है कि “देवोत्थान एकादशी के दिन जो प्रातः स्नान कर श्रीहरि का पूजन करता है, उसे सहस्त्र अश्वमेध यज्ञ के समान फल की प्राप्ति होती है।”




इस दिन व्रती सुबह-सुबह गंगा स्नान या घर में पवित्र स्नान करके तुलसी के पौधे की पूजा करते हैं। व्रत रखने वाले लोग दिनभर अन्न का सेवन नहीं करते, केवल फल, दूध या जल ग्रहण करते हैं और संध्या के समय भगवान विष्णु को दीपदान करते हैं।

देवोत्थान एकादशी के साथ ही तुलसी विवाह की परंपरा भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथा के अनुसार, तुलसी देवी (जो पूर्वजन्म में वृंदा थीं) का विवाह भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप से हुआ था। वृंदा, असुरराज जालंधर की पत्नी थीं। उन्होंने अपने पति की रक्षा के लिए घोर तप किया था। भगवान विष्णु ने ब्रह्मा के आदेश पर जालंधर का वध किया और वृंदा के तप को मान्यता देते हुए कहा कि “तुम सदा मेरे प्रिय रहोगी और मेरे बिना तुम्हारा पूजन अधूरा रहेगा।” इसी कारण से हर पूजा में तुलसी पत्र का विशेष स्थान है, और देवोत्थान एकादशी को तुलसी-विष्णु विवाह कराए जाने की परंपरा है।

इस विवाह में मंगलगीत, आरती और शंखनाद के साथ शुभ मुहूर्त में तुलसी-विवाह सम्पन्न किया जाता है। माना जाता है कि जो भी इस दिन तुलसी विवाह का आयोजन करता है, उसे स्वयं विवाह कराने का पुण्य प्राप्त होता है।

देवोत्थान एकादशी के बाद से ही शादी-विवाह, गृहप्रवेश, नामकरण, उपनयन आदि सभी मांगलिक कार्य प्रारंभ हो जाता है। इस प्रकार देवोत्थान एकादशी न केवल धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि सामाजिक और पारिवारिक जीवन में भी शुभ प्रारंभ का संकेत देती है।

भारत के विभिन्न प्रांतों में देवोत्थान एकादशी को अलग-अलग नामों और परंपराओं के साथ मनाया जाता है उत्तर भारत में: इसे “देवउठनी एकादशी” कहते हैं। इस दिन ग्रामीण क्षेत्र में लोग आंगन में गोबर से चौक बनाकर भगवान विष्णु का प्रतीकात्मक चित्र बनाते हैं और उसे शंख, चक्र, गदा, पद्म से सजाते हैं। फिर दीप जलाकर कहते हैं कि “उठो देव, कार्तिक मास बीत गयो, अब मांगलिक काम करायो।”

महाराष्ट्र और गुजरात में इसे “प्रबोधिनी एकादशी” के रूप में अत्यंत भक्ति भाव से मनाया जाता है। पंढरपुर में इस दिन लाखों की संख्या में वारकरी संत “विठोबा” (भगवान विष्णु के रूप) के दर्शन के लिए पहुंचते हैं।

दक्षिण भारत में यह पर्व “वैकुंठ एकादशी” की तरह ही श्रद्धा से मनाया जाता है, और भगवान विष्णु के मंदिरों में विशेष अलंकरण और भोग लगाए जाते हैं।

देवशयनी और देवोत्थान एकादशी को केवल पौराणिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना गया है। आषाढ़ से कार्तिक तक का काल वर्षा ऋतु से शरद ऋतु में परिवर्तन का समय होता है। इस दौरान प्रकृति विश्राम करती है, नदियाँ भर जाती हैं, भूमि में नमी रहती है, और तापमान संतुलित रहता है। कार्तिक माह आते-आते जब शीत ऋतु का आरंभ होता है, तब पर्यावरण पुनः सक्रिय होता है, जैसे सृष्टि “जाग” रही हो। इस प्रकार विष्णु के जागरण का अर्थ है, प्रकृति का पुनः सृजन चक्र में सक्रिय होना।

देवोत्थान एकादशी केवल धार्मिक आस्था का पर्व नहीं है, बल्कि यह सामाजिक एकता और पारिवारिक सौहार्द का भी प्रतीक है। इस दिन सभी लोग मिलकर पूजा, भजन, कीर्तन और दीपदान करते हैं। रात्रि में जागरण कार्यक्रम, तुलसी विवाह और भोजन प्रसाद के आयोजन से समाज में सहयोग और प्रेम की भावना प्रकट होती है।

पुराणों में एक कथा आती है कि एक बार देवर्षि नारद ने भगवान विष्णु से पूछा कि “हे प्रभो! आपने आषाढ़ शुक्ल एकादशी को क्यों सोया और कार्तिक शुक्ल एकादशी को क्यों जागे?” भगवान ने उत्तर दिया कि “हे नारद, यह योगनिद्रा मेरी शक्ति का स्वरूप है। सृष्टि के संतुलन के लिए मुझे विश्राम की आवश्यकता होती है। जब मैं सोता हूँ, तो पृथ्वी पर तपस्या और संयम का समय आता है, और जब मैं जागता हूँ, तो भक्ति और उत्सव का आरंभ होता है।” इस प्रकार भगवान विष्णु ने स्वयं यह बताया है कि देवोत्थान एकादशी सृष्टि में ऊर्जा और कर्म का पुनः आरंभ है।

इस दिन दीपदान का विशेष महत्त्व है, मान्यता है कि इससे पितरों और देवताओं को संतुष्टि मिलती है। तुलसी-दल अर्पण अनिवार्य है,  बिना तुलसी पत्र के विष्णु पूजा अधूरी मानी जाती है। दान-पुण्य का प्रभाव अनेक गुना बढ़ जाता है। घर के आँगन में दीपक जलाने से नकारात्मक ऊर्जा नष्ट होती है।

पटना, गया, मिथिला और भागलपुर क्षेत्रों में देवोत्थान एकादशी अत्यंत श्रद्धा से मनाई जाती है। लोग अपने घरों में आँगन में गोबर से “देव चित्र” बनाते हैं, जिसमें भगवान विष्णु, शालिग्राम और तुलसी का संगम दिखाया जाता है।
महिलाएँ गीत गाती हैं कि “उठो-उठो गोविंद, उठो गोकुलनाथ, चार महीना सोवल रहे, अब जग जाओ नाथ।” रात्रि में दीपदान और भोग का विशेष आयोजन होता है। कई स्थानों पर सामूहिक तुलसी विवाह कराकर भक्ति और आनंद का माहौल बन जाता है।

यह पर्व सिखाता है कि जीवन में विश्राम भी आवश्यक है, परंतु विश्राम के बाद जागरण और कर्म का आरंभ ही जीवन का सार है। भगवान विष्णु का जागरण प्रेरित करता है कि “अब कर्म करने का समय है, शुभ कार्यों का प्रारंभ करो।” देवोत्थान एकादशी इसलिए केवल भगवान के जागने का पर्व नहीं है, बल्कि मानव के आत्मजागरण का भी संदेश देती है।



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