भारत की राजनीति में युवाओं का महत्व सदैव केंद्रीय रहा है। स्वतंत्रता संग्राम हो या आजादी के बाद का राष्ट्र निर्माण, युवा पीढ़ी ने हमेशा निर्णायक भूमिका निभाई है। आज के दौर में जब देश की आधी से अधिक आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है, तब स्वाभाविक है कि कोई भी राजनीतिक दल या नेता उनके सहयोग और समर्थन को अपने पक्ष में करने की कोशिश करेगा। इसी संदर्भ में कांग्रेस नेता राहुल गांधी का यह कथन सामने आता है कि “देश के Yuva, देश के Students, देश की Gen Z संविधान को बचाएंगे, लोकतंत्र की रक्षा करेंगे और वोट चोरी को रोकेंगे।” सुनने में यह बयान प्रेरणादायक और ऊर्जावान प्रतीत होता है। लेकिन जब गहराई से विश्लेषण किया जाए तो यह भी दिखता है कि कथन और कर्म के बीच कितना बड़ा अंतर मौजूद है।
राहुल गांधी स्वयं न तो युवा हैं, न छात्र और न ही Gen Z पीढ़ी से जुड़े हैं। वे उस पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसने लंबे समय तक सत्ता में रहकर देश के सामने आज की चुनौतियां खड़ी की हैं। उनका यह दावा है कि नई पीढ़ी लोकतंत्र को बचाएगी, निश्चित ही सैद्धांतिक रूप से सही है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या स्वयं राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में ऐसे ठोस कदम उठाए हैं, जिससे युवाओं को यह भरोसा हो कि वे उनके साथ खड़े हैं? क्या कांग्रेस पार्टी ने अपने संगठन में युवाओं को निर्णायक शक्ति दी है? क्या राहुल गांधी ने छात्र राजनीति को मजबूत करने के लिए प्रयास किए हैं? क्या वे युवाओं की रोजगार, शिक्षा, उद्यमिता और अवसरों से जुड़ी समस्याओं पर ठोस दृष्टिकोण रखते हैं? इन प्रश्नों के उत्तर अक्सर अस्पष्ट मिलते हैं। यही कारण है कि उनका यह कथन केवल भाषण की गूंज बनकर रह जाता है।
राहुल गांधी के समर्थक उन्हें अक्सर ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो स्थापित राजनीति के बाहर जाकर नई राह बना सकते हैं। शायद इसी कारण उनका नाम नेपाल के बालेन शाह से जोड़ा जा रहा है। काठमांडू के मेयर बने बालेन शाह युवा, स्वतंत्र और गैर-परंपरागत नेता के रूप में उभरे हैं। उन्होंने पारंपरिक राजनीतिक दलों को चुनौती देते हुए जनता का भरोसा जीता है। उनकी छवि सिस्टम से बाहर निकलकर सिस्टम बदलने वाले नेता की है। लेकिन भारत का परिदृश्य नेपाल से बिल्कुल अलग है। भारत में राजनीति का आधार सिर्फ स्थानीय मुद्दे नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय स्तर की नीतियां, सांस्कृतिक परंपराएं और भू-राजनीतिक चुनौतियां हैं। यहां सत्ता का केन्द्र दिल्ली है, और राष्ट्रीय दलों के बिना कोई भी बड़ा राजनीतिक आंदोलन टिक पाना मुश्किल है। इसीलिए यह कहना कि राहुल गांधी भारत में “बालेन शाह” बन सकते हैं, व्यावहारिक रूप से असंभव लगता है। बल्कि आलोचक यह तंज कसते हैं कि भारत में “बालेन शाह नहीं, अमित शाह” हैं यानि राजनीति का खेल अनुभवी रणनीतिकारों के हाथ में है, जो चुनावी गणित, संगठनात्मक क्षमता और सत्ता संचालन की गहरी समझ रखते हैं।
अक्सर कुछ नेता और विचारक यह तर्क देते हैं कि भारत में भी नेपाल, बांग्लादेश या श्रीलंका जैसी क्रांति संभव है। लेकिन जब गहराई से अध्ययन करें तो यह तुलना सतही और भ्रामक प्रतीत होता है। नेपाल जहां राजशाही और राजनीतिक दलों के बीच लंबे समय तक संघर्ष रहा है। जनता का धैर्य टूटने पर परिवर्तन की लहर आई। भारत में लोकतंत्र लगातार मजबूत हुआ है और यहां राजशाही जैसी स्थिति कभी नहीं रही है। बांग्लादेश में 1971 के बाद राजनीतिक अस्थिरता, सैन्य शासन और भ्रष्टाचार ने बार-बार उथल-पुथल पैदा की है। भारत में सेना का राजनीतिक हस्तक्षेप नगण्य है। श्रीलंका जहां की आर्थिक बदहाली और राजनीतिक कुप्रबंधन ने हाल ही में जनविद्रोह का रूप लिया। भारत की अर्थव्यवस्था विश्व की पांचवीं सबसे बड़ी है, और यहां की संस्थाएं अपेक्षाकृत अधिक मज़बूत हैं। इन देशों में जो क्रांतियां हुईं है, वह अस्थिरता और निराशा से उपजी थीं। भारत का लोकतंत्र हालांकि कई चुनौतियों से जूझ रहा है, लेकिन इसकी जड़ें कहीं अधिक गहरी और सुदृढ़ हैं।
राहुल गांधी चाहे जिस दृष्टिकोण से युवाओं का नाम लें, लेकिन यह भी आवश्यक है कि उनकी वास्तविक चुनौतियों को समझना चाहिए। रोजगार का संकट है, करोड़ों स्नातक और तकनीकी डिग्रीधारक युवाओं को उपयुक्त नौकरी नहीं मिल पा रही है। शिक्षा की गुणवत्ता की कमी है, विश्वविद्यालयों और कॉलेजों की संख्या तो बढ़ रही है, परंतु शोध, नवाचार और कौशल विकास अभी भी पिछड़े हैं। डिजिटल क्रांति और असमानता के तहत इंटरनेट और तकनीक ने अवसर तो दिए हैं, परंतु गांव और शहर, गरीब और अमीर के बीच डिजिटल खाई गहरी है। राजनीतिक भागीदारी में युवा केवल वोट बैंक न रहें, बल्कि निर्णय प्रक्रिया में शामिल हों। इन मुद्दों पर गंभीर नीति-निर्माण की आवश्यकता है। सिर्फ नारों और भाषणों से युवाओं का विश्वास नहीं जीता जा सकता है।
राहुल गांधी के वक्तव्यों में अक्सर “क्रांति” का उल्लेख होता है। लेकिन क्रांति का वास्तविक अर्थ समझना जरूरी है। क्रांति केवल सरकार बदलना नहीं है। क्रांति समाज, राजनीति और संस्कृति की गहरी संरचना में परिवर्तन है। भारत जैसे विविधता वाले लोकतंत्र में क्रांति का अर्थ है संस्थाओं को मजबूत करना, नागरिकों में जिम्मेदारी का भाव जगाना, आर्थिक समानता और अवसर सुनिश्चित करना, और लोकतांत्रिक परंपराओं की रक्षा करना। यदि यह दृष्टिकोण हो तो भारत को क्रांति की नहीं, सुधार और नवाचार की जरूरत है।
आज भारतीय राजनीति का बड़ा सच यह है कि भाजपा के पास अमित शाह जैसे रणनीतिकार हैं। उन्होंने संगठन को बूथ स्तर तक मजबूत किया है। चुनावी प्रबंधन को वैज्ञानिक ढंग से संचालित किया है। विपक्ष को कमजोर करने में भी निर्णायक भूमिका निभाई है। इसके मुकाबले राहुल गांधी की राजनीति अक्सर भावनात्मक, असंगठित और प्रतिक्रियावादी प्रतीत होता है। युवाओं को साधने की उनकी कोशिश भी भाजपा के व्यवस्थित और योजनाबद्ध प्रयासों के सामने फीकी पड़ जाती है। यही कारण है कि आलोचक कहते हैं “भारत में बालेन शाह नहीं, अमित शाह हैं।”
फिर भी, इस पूरे विमर्श में यह सत्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि लोकतंत्र की वास्तविक ताकत युवा ही हैं। वोट का अधिकार 18 वर्ष से ऊपर के हर नागरिक को है। युवा इस अधिकार का सही उपयोग कर लोकतंत्र की दिशा तय कर सकते हैं। सोशल मीडिया और जनमत निर्माण में आज की Gen Z डिजिटल दुनिया में सक्रिय है। वह गलत सूचनाओं के खिलाफ आवाज उठा सकते हैं और सकारात्मक विमर्श को बढ़ा सकते हैं। नवाचार और उद्यमिता के लिए राजनीतिक क्रांति के बजाय आर्थिक और सामाजिक नवाचार ही लोकतंत्र को स्थिरता और समृद्धि प्रदान करता है। युवा तभी सशक्त होंगे जब उन्हें अवसर, पारदर्शिता और सहभागिता मिले।
राहुल गांधी का यह दावा कि Gen Z संविधान बचाएगी, लोकतंत्र की रक्षा करेगी और वोट चोरी रोकेगी, सैद्धांतिक रूप से सही लग सकता है, लेकिन उनके राजनीतिक कर्म इस दावे को खोखला बनाता है। भारत को न तो नेपाल जैसी अराजकता चाहिए, न बांग्लादेश जैसा सैन्य हस्तक्षेप और न ही श्रीलंका जैसी आर्थिक त्रासदी। भारत का मार्ग सुधार, नवाचार और जनसहभागिता का है। युवा पीढ़ी निश्चित ही भविष्य की धुरी है। लेकिन उनका नेतृत्व भाषणों से नहीं, ठोस कर्मों से होना चाहिए। राहुल गांधी यदि वास्तव में युवाओं के साथ खड़ा होना चाहते हैं, तो उन्हें पहले अपनी पार्टी में युवाओं को नेतृत्व देना होगा, शिक्षा और रोजगार पर ठोस नीतियां लानी होंगी, और लोकतंत्र के प्रति वास्तविक निष्ठा दिखानी होगी।
