बिहार विधानसभा चुनाव, 2025 - राहुल गांधी के बयान - क्या ‘इंडी’ गठबंधन के सपने धुंधले पड़ रहे हैं?

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार की राजनीति वैसे भी नदी की धार की तरह बदलती रहती है। कभी तट शांत दिखता है और अगले ही पल राजनीतिक लहरें किनारों को काट लेती हैं। एक घटना ने इस किस्से में नया मोड़ जोड़ दिया है। राहुल गांधी बिहार आए, मंच पर चढ़े, और उन्होंने अपने भाषण की तलवार को हवा में लहराते हुए ऐसा वार किया कि राजनीति की हवा अचानक बदलती महसूस हुई।

तेजस्वी यादव, जिनके सपनों का महल पिछले कुछ महीनों से मेहनत और उम्मीद के बल पर खड़ा हो रहा था, उसे राहुल गांधी ने अनजाने में ही एक असहज कंपन दे दी। बिहार में इंडी गठबंधन (INDIA Bloc) पहले ही कई अंदरूनी असहमतियों और रणनीतिक भ्रम में झूला झूल रहा था। ऐसे में राहुल के बयान ने मानो जलते अंगारे पर पेट्रोल डाल दिया।

क्या यह महज भाषणात्मक भूल थी या कोई गहरा संकेत? क्या बिहार की जनता इसे केवल एक ‘राजनीतिक शोर’ मानकर आगे बढ़ जाएगी या यह चुनावी मानस पर असर डालेगा? बिहार की राजनीति को समझना आसान काम नहीं है। यहां राजनीति सिर्फ मुद्दों पर नहीं चलती, बल्कि जमीन, भावना, पहचान, इतिहास, और जनमानस के मिश्रण से संचालित होती है।

भाजपा अपनी संगठनात्मक मजबूती और केंद्र की लोकप्रियता के बल पर मैदान में है। दूसरी ओर RJD-INC-JDU समेत तमाम पार्टियों का गठबंधन जमीन पर तालमेल बैठाने की जद्दोजहद में है। जनता सवालों के बीच उलझी है। बेरोजगारी, विकास, कानून-व्यवस्था और जातीय समीकरण सब एक साथ मौजूद हैं। राजनीति यहाँ सिर्फ सत्ता का खेल नहीं है, बल्कि अस्तित्व और पहचान का प्रश्न भी है। इसी संवेदनशील पृष्ठभूमि में राहुल गांधी का भाषण हुआ।

मुजफ्फरपुर में राहुल गांधी ने एक ऐसा प्रसंग और शब्द चयन किया जिसने बिहार के राजनीतिक गलियारों में तेज सरगर्मी पैदा कर दी। मंच से कुछ ऐसा निकल गया जिसे तेजस्वी यादव और इंडी गठबंधन दोनों के लिए असामयिक और असहज कहा जा सकता है। बिहार में शब्दों का वजन बहुत होता है। खासकर बाहरी नेता जब आते हैं, तो जनता उम्मीद करती है कि बात जमीन से जुड़े मुद्दों पर होगी।

राहुल गांधी ने शायद भावनात्मक प्रवाह में कुछ बातें कह दीं, पर राजनीति में भावनाएँ भी दोधारी तलवार होती हैं। यहाँ शब्द केवल वाक्य नहीं, बल्कि रणनीति होता है। यहाँ एक बात स्पष्ट हुई कि राहुल गांधी की सामाजिक-राजनीतिक संवेदनशीलता पर फिर सवाल उठा है। यह वही सवाल है जो विपक्षी दल पहले से उठाते रहे हैं और समर्थक हर बार सफाई देते हैं।

तेजस्वी यादव बिहार की राजनीति का युवा चेहरा हैं। उनके पास अनुभव भले कम रहा हो, पर ऊर्जा और महत्वाकांक्षा भरपूर रही है। उन्होंने बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य पर फोकस करते हुए अपनी राजनीतिक कहानी गढ़ी है। उनकी छवि एक ऐसे नेता की बनी जो युवाओं की भाषा समझता है। लेकिन गठबंधन में सबसे कठिन काम होता है “अन्य पार्टियों की गलतियाँ भी उठाना।” और राहुल गांधी का हालिया बयान तेजस्वी के लिए ऐसा बोझ बन गया है जिसे ना वे खुले तौर पर अस्वीकार कर सकते हैं, ना पूरी तरह से अपना सकते हैं। उनके लिए यह क्षण चुनौती का है, क्योंकि गठबंधन बनाए रखने और जनता का भरोसा बचाए रखने दोनों का भार उनके कंधे पर है।

इंडी गठबंधन शुरू से ही एक जोड़ीदारों का अनोखा समूह रहा है। विचारधारा में विविधता, नेतृत्व की अस्पष्टता और चुनावी सीटों के बंटवारे का प्रश्न गठबंधन को बार-बार असहज करता रहा है। बिहार में JDU और RJD का तालमेल पहले भी कई उतार-चढ़ाव से गुजरा है। कांग्रेस कभी इस गठबंधन की धुरी नहीं रही है, बल्कि सहायक भूमिका में रही है। ऐसे में राहुल गांधी का भाषण यह संकेत देता दिखा कि अब भी कांग्रेस अपनी राजनीतिक प्रवृत्ति को गठबंधन भावना से अधिक प्राथमिकता देती है। विरोधी दल पहले ही इस गठबंधन को भ्रमित दल बताते आए हैं। राहुल का बयान इस आरोप को और खाद-पानी देता नजर आया है।

बिहार की जनता राजनीति को केवल अखबारों और टीवी की नजर से नहीं देखती। यहाँ राजनीति चरचों में घुली रहती है, चाय दुकानों से लेकर खेत के मेड़ों तक। जनता सुनती है, याद रखती है, और मन में तुलना करती है।

राहुल गांधी के बयान को लेकर प्रतिक्रियाएँ तीन तरह की दिख रही है। इंडी समर्थक वर्ग असहजता, पर चुप्पी साधे हैं। विपक्षी दल समर्थक का राजनीतिक आक्रामकता और व्यंग्य चल रहा है। निष्पक्ष मतदाता संदेह और सवाल के घेरे में हैं। चुनाव के ठीक पहले ऐसा क्षण वोटर के मन में अस्थिरता ला सकता है और उसके मन में यह प्रश्न उभर सकता है कि क्या यह गठबंधन स्थायी सोच पर खड़ा है या सिर्फ सत्ता पाने के लिए गठित ढीलापन?

राहुल गांधी के उसी मंच की जमीन पर अगले दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का आगमन होना था। राजनीति में वक्त और स्थान का खेल बड़ा दिलचस्प होता है। अगर राहुल गांधी ने गठबंधन की हवा को उलझा दिया तो मोदी अपने भाषण में उसे दिशा देने की कोशिश करेंगे। बिहार में मोदी की लोकप्रियता एक वास्तविक तत्व है, और भाजपा उस कथानक को मजबूत करेगी कि विपक्ष असंगठित है, नेतृत्व भ्रमित है, और राष्ट्रहित उनके एजेंडे में नहीं है। यह क्षण भाजपा के लिए सुनहरा अवसर बन सकता है।

चुनाव प्रचार केवल भाषणों का आदान-प्रदान नहीं होता है, यह मनोवैज्ञानिक खेल है। एक गलत शब्द, एक सही वाक्य, एक ठहराव, एक मुस्कान, एक तंज... मतदाता के मन में तरंगे पैदा करता है। राहुल गांधी का यह भाषण मनोवैज्ञानिक रूप से विपक्षी मोर्चे के भीतर असुरक्षा पैदा कर सकता है। तेजस्वी यादव के कार्यकर्ता के मनोबल पर इसका असर दिख सकता है।  वहीं भाजपा इसे ‘नेतृत्व स्थिरता बनाम भ्रम’ की कथा के रूप में पेश कर सकता है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या तेजस्वी यादव, राहुल गांधी के बयान को संभाल लेंगे? क्या वे गठबंधन को यह दिखाने में सफल होंगे कि नेतृत्व की संवेदनशीलता उनके पास है? क्या वे इसे अपने ‘प्रशासनिक परिपक्वता’ के रूप में बदल पाएंगे? यह आने वाले दिनों में तय होगा। अगर तेजस्वी यादव इसे सकारात्मक मोड़ दे सकें, तो यह उन्हें गठबंधन का वास्तविक नेता बना सकता है। अगर नाकाम रहे, तो विपक्षी खेमे में दरारें और स्पष्ट दिखेंगी।

यह घटना सिर्फ एक भाषण की कहानी नहीं है। यह भारतीय राजनीति के उस दौर का संकेत है जहाँ शब्द हथियार हैं, और वक्त सबसे बड़ा जज। राहुल गांधी के बयान ने न केवल बिहार की हवा बदली है बल्कि गठबंधन राजनीति की कमजोरी को भी उजागर किया है। तेजस्वी यादव के लिए यह क्षण चुनौती का है, लेकिन अवसर भी है। आने वाले दिनों में अगर वे अपनी रणनीति से इसे पलट दें तो उनकी राजनीतिक साख और मजबूत होगी। अन्यथा विपक्ष के सपने समय से पहले ही पानी में डूबते दिखेंगे।

बिहार की राजनीति में कहा जाता है कि यहाँ हवा हर रोज चलती है, पर वोट की दिशा आखिरी पल तय होती है। राहुल गांधी की चिंगारी ने हवा को जरूर बदला है। अब देखना यह है कि नरेन्द्र मोदी की ललकार किस ओर मोड़ देती है।



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