बिहार विधानसभा चुनाव 2025 - कायस्थों की उपेक्षा का दर्द

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार की राजनीति हमेशा जातीय समीकरणों की प्रयोगशाला रही है। लेकिन 2025 के विधानसभा चुनावों में जो दृश्य सामने आया है, उसने बिहार के कायस्थ समाज को भीतर तक झकझोर दिया है। एनडीए गठबंधन की कुल 202 सीटों में, भाजपा की 101 और जदयू की 101 सीटें थीं। इनमें कायस्थ समाज को केवल भाजपा से 1 सीट और जदयू से मात्र 1 सीट दी गई। यह आंकड़ा सिर्फ राजनीति का नहीं है, बल्कि आत्मसम्मान और पहचान के विस्मरण की कहानी कहता है। कायस्थ समाज, जिसने बिहार की नौकरशाही, पत्रकारिता, शिक्षा, प्रशासन और राजनीति, हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा की अमिट छाप छोड़ी है, वही आज अपनी ही भूमि पर उपेक्षित महसूस कर रहा है।

कायस्थ समाज की मूल पहचान ज्ञान, प्रशासन और न्यायप्रियता से रही है। प्राचीन काल से लेकर स्वतंत्र भारत तक, यह वर्ग राज्य व्यवस्था के केंद्र में रहा है। राजाओं के दरबारों में लेखा-जोखा रखने से लेकर आज के डिजिटल युग में नीति निर्धारण तक, कायस्थ अपनी बौद्धिक क्षमता और निष्ठा के लिए पहचाने गए हैं। इनकी पहचान रही है सत्यनिष्ठा और लेखन-कला, शासन व्यवस्था की गहरी समझ, न्याय के प्रति दृढ़ दृष्टिकोण, समाज में संतुलन बनाए रखने की प्रवृत्ति।

बिहार जैसे बौद्धिक भूमि वाले प्रदेश में कायस्थों का योगदान केवल प्रशासनिक नहीं बल्कि संस्कृतिक और नैतिक भी रहा है। लेकिन 2025 के चुनाव में इस परंपरा को जैसे राजनीतिक समीकरणों की भेंट चढ़ा दिया गया है।

जब एनडीए ने अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की, तब कई कायस्थ परिवारों में उम्मीदें जागीं कि इस बार समाज को उसका उचित सम्मान मिलेगा। क्योंकि वर्षों से कायस्थ समाज भाजपा और जदयू दोनों का समर्पित समर्थक वर्ग रहा है। लेकिन सूची देखकर लोग अवाक रह गए, जब भाजपा ने 101 सीटों में से केवल एक कायस्थ उम्मीदवार उतारा, और जदयू ने भी 101 में से मात्र एक सीट दी। एनडीए में इस तरह 202 सीटों में कायस्थ समाज का प्रतिनिधित्व मात्र दो सीटों तक सीमित रह गया यानि एक प्रतिशत से भी कम।

यह वही समाज है जो 1990 के दशक से लेकर आज तक लगातार सत्ता की स्थिरता में भूमिका निभाता रहा है। मतदान के दिन हमेशा लंबी कतारों में खड़ा होकर इसने एनडीए के प्रति विश्वास जताया, पर जब टिकट बांटने की बारी आई, तो उसी समाज को किनारे कर दिया गया।

राजनीतिक दल अक्सर यह तर्क देते हैं कि टिकट जातीय जनसंख्या के अनुपात में बांटे जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल संख्या ही प्रतिनिधित्व का आधार होनी चाहिए? कायस्थ समाज भले ही बिहार में जनसंख्या के लिहाज से बड़ा न हो, लेकिन बौद्धिक और वैचारिक प्रभाव के लिहाज से वह हमेशा निर्णायक रहा है। वह समाज जो हर जाति, धर्म और वर्ग के बीच संवाद का पुल बनकर खड़ा रहा, उसे संख्या के पैमाने पर नापा जाना, राजनीति की सबसे बड़ी भूल है। कायस्थ समाज वह वर्ग है जो मध्यवर्गीय संतुलन और नीतिगत सोच का प्रतीक है। इसकी उपेक्षा सिर्फ एक जाति की उपेक्षा नहीं, बल्कि बौद्धिक राजनीति की पराजय है।

विडंबना देखिए जदयू में आज कई कायस्थ नेता उच्च पदों पर हैं, कोई राष्ट्रीय प्रवक्ता, कोई राज्य स्तर का महासचिव, तो कोई संगठन में अहम भूमिका निभा रहा है। लेकिन जब बात चुनावी टिकट की आई, तो वही चेहरें हाशिए पर धकेल दिए गए। पार्टी में पद देकर मानो सांत्वना दी गई हो, लेकिन जनता के बीच जाकर प्रतिनिधित्व करने का अवसर छीन लिया गया। यह स्थिति कायस्थ समाज में यह संदेश देती है कि “हम तुम्हें मंच पर ताली बजाने के लिए चाहते हैं, मंच पर बोलने के लिए नहीं।” राजनीतिक संगठन जब अपने समर्पित वर्ग को सिर्फ पदनामों तक सीमित कर देता है, तो वह समाज धीरे-धीरे मौन असंतोष में बदल जाता है और यही आज बिहार के कायस्थों के मन में है।

कायस्थ समाज ने बिहार ही नहीं, पूरे भारत की प्रशासनिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा दी है। यह वर्ग कलम का साधक रहा है। मौर्यकाल से लेकर ब्रिटिश भारत तक, राजस्व, न्याय और शासन के क्षेत्र में कायस्थों की भूमिका निर्विवाद रही है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी अनेक कायस्थ नेता देश के अग्रणी योद्धा रहे हैं । स्वराज, राष्ट्रभक्ति और ज्ञान के क्षेत्र में इस वर्ग ने उदाहरण प्रस्तुत किया है। लेकिन आज यह वर्ग स्वयं के अस्तित्व की रक्षा की लड़ाई लड़ रहा है। राजनीति ने इस समाज को केवल “बौद्धिक” कहकर अलग कर दिया है, जैसे बौद्धिक होना अपराध हो। कायस्थ समाज कभी जातिवाद की राजनीति में विश्वास नहीं करता, वह विचारधारा के आधार पर वोट देता है और शायद यही कारण है कि राजनीतिक दल इसे “सुरक्षित मतदाता” मानकर इसकी उपेक्षा कर रहे हैं।

भाजपा के प्रति कायस्थ समाज की निष्ठा कोई नई नहीं। चाहे 1990 का राममंदिर आंदोलन हो या 2014 की “विकास की राजनीति”,  कायस्थ समाज ने हर बार भाजपा को वैचारिक सहयोग दिया। लेकिन इस बार भाजपा ने जो टिकट वितरण किया, वह उस भरोसे की डोर पर गहरी चोट जैसा लगा। कई कायस्थ क्षेत्रों में पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं ने इस निर्णय को “दिल तोड़ने वाला” बताया। लोग कहने लगे हैं कि “हमने पार्टी के लिए दशकों तक काम किया, पर अब लगता है कि हम सिर्फ भीड़ हैं, नेता नहीं।” यह निराशा केवल सीटों की नहीं, बल्कि सम्मान की है और राजनीति में जब सम्मान खत्म होता है, तो समाज का मौन विद्रोह चुनावी नतीजों में दिखाई देता है।

2025 का चुनाव भले अभी शुरू हुआ हो, पर कायस्थ समाज की चुप्पी राजनीतिक दलों के लिए बड़ा संकेत है। यह चुप्पी वैसी ही है जैसी 2014 से पहले मध्यवर्ग ने रखी थी, और जब मतदान हुआ, तो पूरा समीकरण बदल गया। कायस्थ समाज मुखर नहीं होता है, पर जब असंतोष अपने चरम पर पहुंचता है, तो उसका निर्णय इतिहास की दिशा तय करता है। आज कई कायस्थ परिवारों में चर्चा यही है कि “क्या हमें अब भी एनडीए से उम्मीद रखनी चाहिए?” यह सवाल आने वाले वर्षों की राजनीति में गूंजता रहेगा।

राजनीति अवसर देखती है, समाज मूल्य। अगर कायस्थ समाज स्वयं संगठित होकर अपनी आवाज नहीं उठाएगा, तो यह उपेक्षा और गहराएगी। यह वक्त है आत्ममंथन का  क्यों हमेशा दूसरों के लिए संघर्ष करते रहे, पर अपने लिए आवाज नहीं उठाई? कायस्थ समाज को अब संस्कृति, शिक्षा और संगठनात्मक एकता के माध्यम से अपनी पहचान को पुनः स्थापित करना होगा। यह आंदोलन जातीय नहीं, बल्कि सम्मान का आंदोलन होना चाहिए। एक ऐसा आंदोलन जो कहे कि “हमें टिकट नहीं चाहिए, पर हमें सम्मान चाहिए। हमें प्रतीक नहीं, प्रतिनिधित्व चाहिए।”

राजनीति में हर जाति अपने हित साधने में जुटी है, किसी के पास वोट बैंक है, किसी के पास संख्या बल। कायस्थों के पास संख्या नहीं, लेकिन निर्णय की सूझबूझ है। यह समाज हमेशा “संतुलन” की राजनीति करता आया है। इसलिए यह किसी दल के लिए न तो चुनौती है, न ही स्वाभाविक सहयोगी, यह वही वर्ग है जो आखिरी वक्त पर फैसला बदल देता है, क्योंकि वह विचार से वोट देता है, भावनाओं से नहीं। इस बार भी एनडीए को सोचना होगा क्या उन्होंने उस वर्ग की भावनाओं को आहत कर दिया है, जो हमेशा “नीतिगत राजनीति” का प्रतिनिधि रहा है?

बिहार की राजनीति के कई निर्णायक मोड़ों पर कायस्थ समाज ने संतुलन बनाया है। जब-जब किसी पार्टी ने इस वर्ग की अनदेखी की, वह धीरे-धीरे हाशिए पर चली गई। 1980 के दशक में कांग्रेस की गिरावट भी इसी “मौन वर्ग” की निराशा का परिणाम थी। आज भाजपा और जदयू को वही चेतावनी सुनाई दे रही है। इतिहास फिर खुद को दोहरा सकता है। कायस्थ समाज अपनी निष्ठा बदलने में जल्दी नहीं करता, पर जब बदलता है, तो उसके निर्णय की गूंज पूरे राज्य में सुनाई देती है।

आज बिहार के कई कायस्थ घरों में चर्चा टिकट की नहीं, बल्कि सम्मान की हो रही है। लोग कह रहे हैं कि  “अगर हमें प्रतिनिधित्व नहीं देना था, तो हमें पद क्यों दिया?” “अगर हम योग्य नहीं, तो हमें साथ रखने का दिखावा क्यों?” यह भावनाएं राजनीतिक दलों के लिए गंभीर संदेश हैं। जनता अब केवल घोषणाओं से नहीं, बल्कि सम्मानजनक सहभागिता चाहती है। कायस्थ समाज को अब यह एहसास हो गया है कि “राजनीति में सिर्फ योग्यता काफी नहीं, संगठन और एकता ही पहचान बनाते हैं।”

कायस्थ समाज ने सदियों से कलम के माध्यम से समाज को दिशा दी है। अब समय आ गया है कि वही कलम अपनी आवाज बने। 2025 का चुनाव शायद सीटों के हिसाब से छोटा प्रसंग हो, पर इसके भीतर सम्मान के पुनर्जागरण की आंधी छिपी है। युवाओं में अब यह भावना बढ़ रही है कि अगर राजनीतिक दल हमें प्रतिनिधित्व नहीं देंगे, तो हम स्वयं अपने मंच बनाएंगे। यही आत्मनिर्भर राजनीतिक चेतना आने वाले दशक का स्वरूप तय करेगी।

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कायस्थ समाज को जो मिला  वह संख्या नहीं, बल्कि “संकेत” है। संकेत इस बात का कि अगर समाज अपनी आवाज खो देगा, तो राजनीति उसे भूल जाएगी। एनडीए के लिए यह आत्ममंथन का क्षण है कि क्या उसने अपने सबसे समर्पित बौद्धिक वर्ग को नजरअंदाज कर गलती की है? और कायस्थ समाज के लिए यह जागरण का समय है कि क्या अब भी वह मौन रहेगा या सम्मान की लड़ाई लड़ेगा? बिहार की राजनीति में बदलाव हमेशा विचारों से आया है और कायस्थ समाज विचारों का प्रतिनिधि है। अगर यह वर्ग एकजुट होकर बोल उठा, तो राजनीति की दिशा फिर बदल जाएगी।



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