पिछले छह महीनों में बिहार की राजनीति ने जो नजारे दिखाया है, वह किसी भी लोकतांत्रिक नागरिक को यह सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या सत्ता का मोह इतना बड़ा होता है कि मर्यादा, विचारधारा और जनता सब बौना लगने लगता है?
बिहार की राजनीति में गठबंधन कोई नई बात नहीं है। लेकिन इस बार जो दिख रहा है, वह गठबंधन नहीं है , बल्कि “स्वार्थों का सम्मेलन” है। हर दल अपने अस्तित्व और लाभ की गगरी को सिर पर संतुलित किए चल रहा है, कहीं गिर न जाए, कहीं किसी और के हिस्से की बाल्टी में पानी न भर जाए।
एक तरफ एनडीए (जेडीयू, बीजेपी, हम, लोजपा) अपनी एकता की तस्वीर पेश करने में जुटा है, तो दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन (राजद, कांग्रेस, वाम दल) अब भी “कौन कितनी सीट लड़ेगा” की खींचतान में उलझा हुआ है। कहने को सब एकजुट हैं, पर भीतर से हर चेहरा अपने हिस्से की रोटी को बड़ा और दूसरों की थाली को छोटा करने में लगा है। राजनीति अब विचारधारा का संगम नहीं है, बल्कि लाभांश का बाजार बन गई है जहां “एकता” नाम का उत्पाद केवल मीडिया बाइट्स के लिए उपयोगी है।
बीते छह महीनों में बिहार के राजनीतिक मंचों पर जो भाषा और शैली देखी गई, उसने लोकतंत्र के मंच को किसी अखाड़े में बदल दिया। एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने की प्रतियोगिता, व्यक्तिगत ताने, जातीय उपमाएं, धार्मिक व्यंग्य, सब कुछ इस चुनावी समर का हिस्सा बन गया। राजनीति का उद्देश्य जनजागरण नहीं रहा, बल्कि “जनभावना को भड़काना” बन गया। मीडिया बहसों में मर्यादा की लाश रोज ताबूत में रखी जाती रही और तालियों की गड़गड़ाहट में उसे दफनाया भी जाता रहा। नेता भूल गए कि जनता अब श्रोता नहीं, दर्शक बन चुकी है, जो टीवी स्क्रीन पर तमाशा देखती है और अगले दिन वही तमाशा सोशल मीडिया पर वायरल कर देती है।
नामांकन की प्रक्रिया शुरू होते ही राजनीति का हर मोर्चा अपने रूठे नेताओं को मनाने में जुट गया है। यह मनुहार भी कितनी दिलचस्प है। कहीं टिकट न मिलने पर नेता “जनता के सम्मान” के नाम पर इस्तीफ़ा दे रहे हैं, तो कहीं टिकट मिलने पर “पार्टी के प्रति आभार” जताते हुए एक नई निष्ठा की झूठी शपथ खा रहे हैं। कई जगहों पर तो दृश्य इतना हास्यास्पद है कि कल तक जो एक-दूसरे के विरुद्ध आग उगल रहे थे, आज एक ही मंच पर “गठबंधन धर्म” की बातें करते नज़र आते हैं। जैसे कोई पुराने नाटक का पात्र अचानक मंच पर लौट आया हो और कहे “सॉरी, मेरा संवाद गलत था!”
बिहार के आम मतदाता ने हमेशा अपनी राय बड़ी चतुराई से दी है। यह वही राज्य है जहां सत्ता के समीकरण अक्सर जनता के मूक फैसले से उलट जाता है। लेकिन इस बार जनता का मौन सबसे गूढ़ संकेत है। लोग अब भाषण नहीं, काम की गिनती कर रहे हैं। बेरोजगारी, प्रवासन, शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराध, यह सारे मुद्दे अभी भी वहीं हैं, जहां पिछले दो दशकों से थे। सरकारें बदलीं, गठबंधन बदले, चेहरों की अदला-बदली हुई, लेकिन जमीनी सच जस का तस है।
बिहार का युवा आज यह सवाल पूछता है कि “हम हर बार विकास के नाम पर वोट दें, लेकिन हमारे गांव में आज भी सड़क टूटी क्यों है? अस्पताल खाली क्यों है? और नौकरी सिर्फ पोस्टर में क्यों है?”
बिहार की राजनीति इस समय तीन तत्वों पर टिकी है, वह है स्वार्थ, लालच और अहं। यही त्रिकोण अब किसी भी निर्णय की दिशा तय करता है। कौन किससे मिलेगा, किससे टूटेगा, और किसे गले लगाएगा, इसका निर्धारण अब वैचारिक नहीं रहा, बल्कि व्यावहारिक (पढ़ें — लाभकारी) स्तर पर होता है। राजनीति में अब “हम विचारधारा के साथी हैं” का युग समाप्त हो चुका है। अब “हम हितधारा के साथी हैं” का युग शुरू हो चुका है। हर चेहरा कैमरे के सामने तो गठबंधन का गीत गाता है, पर कैमरे के पीछे सीट बंटवारे की सौदेबाजी करता है।
एनडीए में सभी दल जानते हैं कि जेडीयू और बीजेपी का रिश्ता भरोसे का नहीं है, बल्कि “जरूरत का” है। नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा अब बिहार के राजनीतिक पाठ्यक्रम का हिस्सा बन चुका है, जहां लचीलापन और पलटी, दोनों को एक साथ कला की तरह प्रस्तुत किया गया है।
वहीं इंडिया गठबंधन में भी सब कुछ सही नहीं है। राजद और कांग्रेस के बीच सीटों की जंग थमी नहीं है। वाम दल अपनी हिस्सेदारी पर जोर दे रहे हैं, पर राजद के भीतर का ‘युवराज’ नेतृत्व किसी को बराबरी देने को तैयार नहीं है। यह गठबंधन “मोदी-विरोध” की भावनात्मक लहर पर तो सवार है, पर भीतर से “नेतृत्व-विरोध” के भंवर में डूबा हुआ है।
बिहार के चुनाव अब सिर्फ सड़कों और चौपालों पर नहीं लड़े जाते हैं, अब यह सोशल मीडिया की रणभूमि में लड़े जाते हैं। हर पार्टी ने आईटी सेल और इमेज मैनेजमेंट को ही नया हथियार बना लिया है। झूठी खबरों, फोटोशॉप्ड तस्वीरों, और फर्जी सर्वे का बवंडर ऐसा रचा जा रहा है कि आम मतदाता भ्रम के कुहासे में फंस जाए।
“राग मल्हार” की यह नई प्रस्तुति अब मंच पर नहीं, मोबाइल स्क्रीन पर गूंजती है। यह वही “राग” है जो जनता को कुछ क्षणों के लिए प्रभावित करता है, लेकिन बाद में वही जनता अपने अनुभव से समझ जाती है कि ये सुर असली नहीं, डिजिटल हैं।
हर चुनाव में बिहार में वही घोषणाएं गूंजती हैं रोजगार, बिजली, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, अपराधमुक्त समाज।
परंतु यह घोषणाएं अब जनता के लिए लोरी बन चुकी हैं, जो हर पांच साल में सुनाई जाती है, ताकि वह फिर पांच साल के लिए सो जाए। नेता जानते हैं कि बिहार की जनता भावनात्मक है, जातीय संतुलन से संचालित है, और विकास के वादे से जल्दी प्रभावित हो जाती है। इसलिए हर चुनाव में वही स्क्रिप्ट दोहराई जाती है, सिर्फ पोस्टर और नारे बदल जाते हैं।
अब प्रश्न यह नहीं है कि कौन जीतेगा या कौन हारेगा बल्कि प्रश्न यह है कि जनता कब जागेगी? कब वह अपने वोट को जाति, धर्म, या मुफ्त योजनाओं की बजाय भविष्य की दृष्टि से जोड़ेगी?
बिहार की राजनीति को अब पुनर्जन्म की जरूरत है, जहां स्वार्थ की जगह सेवा, लालच की जगह लोकभावना और अहं की जगह आदर्श हो। लेकिन यह तभी संभव है जब जनता “राग मल्हार” सुनने के बजाय “सत्य का स्वर” पहचानना शुरू करे।
थोड़ा सोचिए, क्या सच में लोकतंत्र का अर्थ यह है कि हर पाँच साल बाद जनता वही गलती दोहराए? क्या यह जरूरी है कि हर बार वही नेता, वही गठबंधन, वही आरोप-प्रत्यारोप, और वही वादे हमें फिर छलें?
बिहार की राजनीति को इस समय आत्ममंथन की जरूरत है। क्योंकि अगर यह मंथन न हुआ, तो अमृत नहीं, सिर्फ विष बचेगा और वह विष पूरे लोकतंत्र को धीरे-धीरे ग्रस कर लेगा।
बिहार की जनता से अब यही अपेक्षा है कि वह इस बार सत्ता के स्वार्थ और सियासत के नशे में डूबे दलों को आईना दिखाए ताकि उन्हें एहसास हो कि “जनता बेवकूफ नहीं, सिर्फ़ धैर्यवान है।”
