महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंस से दूर रखना लोकतंत्र पर धब्बा, तालिबान जैसा दबाव निंदनीय

Jitendra Kumar Sinha
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अफगानिस्तान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्तकी की भारत यात्रा के दौरान हुई प्रेस कॉन्फ्रेंस ने विवाद खड़ा कर दिया, क्योंकि इस कार्यक्रम में महिला पत्रकारों को आमंत्रित नहीं किया गया। यह निर्णय अपने आप में बेहद आपत्तिजनक और निंदनीय माना जा रहा है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, जहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समान अधिकारों को संविधान की मूल आत्मा माना गया है, वहाँ किसी भी कार्यक्रम से महिलाओं को केवल उनके लिंग के आधार पर दूर रखना न केवल अस्वीकार्य है, बल्कि यह हमारे समाज में गहराई से मौजूद लैंगिक भेदभाव की झलक भी दिखाता है।


यह तर्क दिया जा रहा है कि ऐसा तालिबान के दबाव या आग्रह पर किया गया, लेकिन सवाल यह है कि क्या भारत को किसी विदेशी प्रतिनिधि के कहने पर अपने लोकतांत्रिक मूल्यों से समझौता करना चाहिए? तालिबान का इतिहास महिलाओं के अधिकारों के दमन, शिक्षा पर पाबंदी और सामाजिक बहिष्कार से भरा हुआ है। ऐसे में अगर भारत में उनके अनुरोध पर महिला पत्रकारों को बाहर रखा गया, तो यह लोकतंत्र और समानता की भावना के खिलाफ एक खतरनाक उदाहरण बन सकता है।


पत्रकारिता का पेशा समानता, पारदर्शिता और निर्भीकता का प्रतीक है। इसमें किसी को भी उनके लिंग या पहचान के कारण बाहर रखना मीडिया की साख को चोट पहुँचाता है। महिला पत्रकार वर्षों से मैदान में पुरुषों के साथ बराबरी से काम कर रही हैं, कठिन परिस्थितियों में रिपोर्टिंग कर रही हैं, और उन्होंने साबित किया है कि वे किसी भी मंच पर अपनी जगह बना सकती हैं। ऐसे में उन्हें एक अंतरराष्ट्रीय प्रेस मीट से बाहर रखना, उनके पेशेवर सम्मान पर चोट करने जैसा है।


भारत जैसे लोकतांत्रिक देश को किसी बाहरी ताकत या विचारधारा के दबाव में झुकना नहीं चाहिए। यह मामला केवल पत्रकारिता या महिलाओं का नहीं है, बल्कि भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा का सवाल है। ऐसे दबावों को स्वीकार करना न केवल गलत संदेश देगा, बल्कि यह उन मूल सिद्धांतों के साथ विश्वासघात होगा जिन पर आधुनिक भारत खड़ा है। इसलिए आवश्यक है कि इस तरह की घटनाओं की कड़ी निंदा हो और भविष्य में किसी भी परिस्थिति में महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए।

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