बिहार की राजनीति हमेशा से वादों, नारों और लुभावनी घोषणाओं से भरी रही है। हर चुनाव में जनता के सामने सपनों की एक लंबी सूची रख दी जाती है। कभी विकास की गंगा बहाने का वादा, कभी अपराध मुक्त बिहार का दावा, तो कभी युवाओं को नौकरी और किसानों को मुफ्त बिजली देने की बात। अब बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के दौरान एक बार फिर वही नजारा देखने को मिल रहा है। विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने जनता से बड़ा वादा किया है कि अगर उनकी सरकार बनी तो “हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी” दी जाएगी, वह भी पहली ही कैबिनेट बैठक में कानून बनाकर।
सुनने में यह वादा बेहद आकर्षक लगता है, विशेषकर बेरोजगारी से जूझ रहे बिहार के युवाओं के लिए। लेकिन जब इस घोषणा का आर्थिक और व्यवहारिक विश्लेषण किया जाए, तो यह सपना जल्द ही असंभवता की दीवार से टकराता दिखाई देता है।
तेजस्वी यादव का यह वादा कई लोगों को उनके पिता लालू प्रसाद के शासनकाल की याद दिलाता है। 1990 के दशक में लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री थे। उस दौर में एक चर्चित प्रकरण सामने आया था, “नौकरी के बदले जमीन” घोटाला। इस घोटाले में आरोप यह था कि रेल मंत्री रहते हुए लालू प्रसाद ने लोगों को रेलवे में नौकरी देने के बदले उनसे उनके पैतृक जमीन के टुकड़े अपने परिजनों या सहयोगियों के नाम पर लिखवा लिए।
सीबीआई ने इस मामले में चार्जशीट दायर की है और अब यह मुकदमा अदालत में चल रहा है।
लालू यादव की राजनीति हमेशा “गरीबों के नेता” की छवि पर टिकी रही है, लेकिन इसी दौर में बिहार में भ्रष्टाचार, जातीय हिंसा, अपराध और पलायन चरम पर पहुँच गया था। लोग आज भी उस काल को “जंगलराज” के नाम से याद करते हैं।
अब जब तेजस्वी यादव “हर परिवार को नौकरी” का वादा कर रहे हैं, तो लोगों को डर है कि कहीं यह पुराने मॉडल का नया संस्करण तो नहीं? कहीं फिर से “सरकारी नौकरी के बदले कुछ” का खेल तो नहीं खेलेगा?
तेजस्वी यादव ने हाल ही में एक चुनावी सभा में कहा है कि “अगर हमारी सरकार बनी, तो 20 दिन में कानून बनाऊँगा कि दो साल के भीतर बिहार के हर घर में एक सरकारी नौकरी होगी।” यह बयान सोशल मीडिया और राजनीतिक गलियारों में तुरंत सुर्खियों में आ गया। लोगों ने सवाल उठाया कि क्या यह संभव है? क्या बिहार की वित्तीय स्थिति ऐसी है कि इतनी बड़ी योजना लागू की जा सके?
इस वादे का आर्थिक विश्लेषण करने पर स्पष्ट है कि बिहार में लगभग 2.76 करोड़ परिवार हैं। अगर तेजस्वी यादव अपने वादे के अनुसार, हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देना चाहते हैं, तो इसका मतलब होगा 2.76 करोड़ नई नौकरियां। अब मान लिया जाए कि एक सरकारी कर्मचारी पर औसतन सालाना खर्च (वेतन, भत्ता, पेंशन, स्वास्थ्य सुविधा आदि मिलाकर) ₹5 लाख होता है। तो कुल खर्च होगा 2.76 करोड़ × ₹5,00,000 = ₹138 लाख करोड़ रुपये। जबकि बिहार की कुल GDP (सकल घरेलू उत्पाद) करीब 10-11 लाख करोड़ रुपये है। इसका अर्थ यह हुआ कि तेजस्वी यादव का यह वादा बिहार की कुल अर्थव्यवस्था से 13 गुना अधिक खर्च की मांग करता है। अगर बिहार इस योजना को लागू करता है, तो उसे हर साल केवल वेतन पर ही देश के GDP से भी अधिक पैसा खर्च करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति में सड़क, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई या कृषि विकास जैसे अन्य क्षेत्रों के लिए पैसा कहाँ से आएगा?
तेजस्वी यादव का वादा सुनकर ऐसा लगता है कि मानो केवल सरकारी नौकरी ही रोजगार का एकमात्र रास्ता है। जबकि सच यह है कि किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था में सरकारी नौकरियों का हिस्सा बहुत सीमित होता है। उदाहरण के लिए पूरे भारत में सरकारी क्षेत्र (केंद्र + राज्य) में कुल मिलाकर लगभग 2 करोड़ से कुछ अधिक नौकरियां हैं। बिहार जैसे राज्य में सरकारी कर्मचारियों की संख्या करीब 4 लाख स्थायी और 3-4 लाख अस्थायी या संविदा कर्मी है। ऐसे में तेजस्वी यादव का वादा कि “हर घर में सरकारी नौकरी” आर्थिक, प्रशासनिक और व्यवहारिक दृष्टि से असंभव है। यह ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि “हर नागरिक को मंत्री बना दूँगा।”
राजनीति में चुनाव के समय वोट बैंक सबसे बड़ा गणित होता है। बिहार की युवा आबादी (18 से 35 वर्ष) राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 55% है। यह वही वर्ग है जो बेरोजगारी से सबसे अधिक प्रभावित है। तेजस्वी यादव का यह वादा सीधा युवाओं की भावनाओं को छूने वाला है। लेकिन यह ध्यान रखना चाहिए कि भावना और हकीकत दो अलग चीजें हैं। राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि तेजस्वी यादव की यह घोषणा केवल चुनावी उत्साह में किया गया “सुपर पॉपुलिस्ट” स्टेटमेंट है, जो जमीन पर उतरने से पहले ही ध्वस्त हो जाएगा।
बिहार लंबे समय से बेरोजगारी और पलायन की समस्या से जूझ रहा है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) के अनुसार, बिहार में बेरोजगारी दर 12-14% के बीच है (राष्ट्रीय औसत लगभग 7%)। लगभग 60 लाख से अधिक युवा काम की तलाश में हर साल राज्य से बाहर जाते हैं दिल्ली, मुंबई, पंजाब, गुजरात, दक्षिण भारत आदि। ऐसे में यह कहना कि “हर घर में सरकारी नौकरी” मिलेगी, बेरोजगारी की समस्या का व्यावहारिक समाधान नहीं है। बेरोजगारी केवल सरकारी नियुक्तियों से खत्म नहीं होगी, बल्कि इसके लिए उद्योग, कौशल प्रशिक्षण, निजी निवेश, स्टार्टअप और कृषि सुधारों की जरूरत है।
तेजस्वी यादव का कहना है कि वे “पहली कैबिनेट बैठक में कानून बनाकर” यह व्यवस्था करेंगे। लेकिन क्या किसी राज्य की सरकार ऐसा कानून बना सकती है? संविधान के तहत रोजगार से संबंधित कई विषय संविधान की समवर्ती सूची (Concurrent List) में आते हैं, यानि केंद्र और राज्य दोनों कानून बना सकते हैं। लेकिन “हर घर को सरकारी नौकरी” जैसा कानून बनाना राजकोषीय जिम्मेदारी (Fiscal Responsibility) और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) के दायरे में आएगा। अदालत इसे “वित्तीय असंभाव्यता” और “राजकोषीय अनुशासन” के खिलाफ मान सकती है। इसलिए, यह वादा न केवल राजनीतिक रूप से जोखिमभरा है, बल्कि संविधानिक दृष्टि से भी अव्यावहारिक है।
तेजस्वी यादव के विरोधियों का कहना है कि यह वादा दरअसल जनता को गुमराह करने और राजनीतिक पूंजी बटोरने की कोशिश है। कई लोग यह भी कह रहे हैं कि यह “लालू मॉडल” की वापसी है “तब नौकरी के बदले जमीन ली जाती थी, अब नौकरी के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं।” लालू प्रसाद के खिलाफ “नौकरी के बदले जमीन” घोटाले में अभी भी मुकदमा चल रहा है। इसलिए जब तेजस्वी यादव “हर घर नौकरी” की बात करते हैं, तो जनता के मन में स्वाभाविक रूप से संदेह पैदा होता है कि क्या यह वादा केवल ‘नौकरी’ के नाम पर राजनीतिक निवेश करने का तरीका तो नहीं है?
बिहार का वार्षिक बजट लगभग 2.6 लाख करोड़ रुपये का है। इसमें से लगभग 70% हिस्सा केंद्र से मिलने वाले अनुदान और सहायता से आता है। राज्य का स्वयं का राजस्व बहुत सीमित है। यदि तेजस्वी यादव का यह “हर परिवार को नौकरी” वाला कानून लागू किया जाता है, तो राज्य को अपने पूरे बजट का 50 गुना से भी अधिक खर्च करना पड़ेगा। यह आर्थिक आत्महत्या होगी।
वास्तव में बिहार को अभी आवश्यकता है उद्योग निवेश की, शिक्षा और स्वास्थ्य सुधार की, कृषि आधुनिकीकरण की और आधारभूत ढांचे में निवेश की। सरकार अगर केवल वेतन और पेंशन में फंस जाएगी, तो विकास के लिए कुछ नहीं बचेगा।
भारत की लोकतांत्रिक राजनीति में एक नई प्रवृत्ति विकसित हुई है “वादा संस्कृति” (Promise Politics)।
हर चुनाव में नेता जनता से ऐसे वादे करते हैं जो न केवल अव्यावहारिक होते हैं, बल्कि आर्थिक अनुशासन को भी तोड़ते हैं। तेजस्वी यादव का वादा उसी श्रेणी में आता है। राजनीतिक रणनीतिकार मानते हैं कि ऐसे वादों का लक्ष्य होता है “जनता के बीच यह संदेश देना कि हम गरीबों और बेरोजगारों के हितैषी हैं।” लेकिन ऐसे घोषणाओं से जनता में झूठी उम्मीदें पैदा होती हैं और शासन में विश्वसनीयता का संकट बढ़ता है।
बिहार का युवा आज सबसे बड़ा पीड़ित वर्ग है। शिक्षा पूरी करने के बाद उन्हें या तो राज्य की सीमित सरकारी नौकरियों में प्रतियोगिता करनी पड़ती है, या फिर राज्य से बाहर पलायन करना पड़ता है। इस परिस्थिति में तेजस्वी यादव का यह वादा भावनात्मक रूप से युवाओं को आकर्षित करता है। लेकिन इस तरह के वादों से लंबी अवधि में नुकसान होता है, क्योंकि जब यह पूरा नहीं होता है, तो युवाओं का राजनीति से भरोसा उठ जाता है।
बिहार को केवल “सरकारी नौकरी” नहीं, बल्कि रोजगार के अवसरों की आवश्यकता है। इसके लिए उद्योग नीति में सुधार की आवश्यकता है। बिहार में निवेश का माहौल बनाना होगा। बिजली, सड़क, सुरक्षा और भूमि नीति को आकर्षक बनाना होगा। बिहार की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि पर आधारित है। अगर कृषि प्रसंस्करण (Agro-Processing) और कोल्ड स्टोरेज उद्योग बढ़ें, तो लाखों रोजगार पैदा हो सकता है। कौशल विकास के तहत हर वर्ष लाखों युवा ग्रेजुएट होते हैं, लेकिन उनमें व्यावहारिक कौशल की कमी रहती है। सरकार को स्किल इंडिया और मेक इन बिहार जैसी पहल करनी चाहिए। MSME और स्टार्टअप प्रोत्साहन जैसे छोटे उद्योग और स्थानीय उद्यमों को प्रोत्साहन देने से स्थानीय रोजगार सृजन संभव होगा। सरकारी नौकरी सीमित है, लेकिन निजी क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। इसके लिए कर में रियायत, इंफ्रास्ट्रक्चर और स्थिर कानून व्यवस्था आवश्यक प्रतीत होता है।
चुनाव लोकतंत्र का पर्व है। लेकिन लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब जनता भावनाओं से नहीं, तथ्यों से वोट करेगी। तेजस्वी यादव या कोई भी नेता जब “हर घर नौकरी” जैसी घोषणाएं करते हैं, तो जनता को पूछना चाहिए यह पैसा कहाँ से आएगा? क्या इतना बड़ा वादा व्यावहारिक है? क्या पहले किए गए वादे पूरे हुए? क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही अंतिम निर्णायक होता है। अगर जनता सवाल नहीं पूछेगी, तो राजनीतिक दल लोकलुभावन नीतियों के जाल में उसे बार-बार फँसाते रहेंगे।
मीडिया और बुद्धिजीवियों की भी जिम्मेदारी है कि वे ऐसे वादों की समीक्षा और जांच करें। केवल मंचीय भाषणों या सोशल मीडिया ट्रेंड पर भरोसा करना लोकतंत्र को कमजोर करता है। मीडिया को चाहिए कि वह जनता के सामने तथ्य, आंकड़े और आर्थिक गणना रखे ताकि मतदाता सही निर्णय ले सके।
लालू प्रसाद ने “सामाजिक न्याय” के नाम पर राजनीति की थी, लेकिन शासन व्यवस्था और आर्थिक प्रबंधन में असफल रहे। अब तेजस्वी यादव “रोजगार न्याय” का नारा लेकर आए हैं। लेकिन अगर यह नारा भी केवल राजनीतिक स्टंट साबित होता है, तो बिहार एक बार फिर उसी अंधकारमय रास्ते पर लौट सकता है। इतिहास यही सिखाता है कि “राजनीति में भावनाएं जीत सकती हैं, पर राज्य चलाने के लिए गणित और नीति की जरूरत होती है।”
तेजस्वी यादव का “हर परिवार में सरकारी नौकरी” का वादा सुनने में जितना अच्छा लगता है, उतना ही आर्थिक रूप से असंभव और राजनीतिक रूप से खतरनाक है। यह न केवल जनता को झूठे सपने दिखाता है, बल्कि राज्य की वित्तीय विश्वसनीयता को भी खतरे में डालता है। बिहार को जरूरत है विचारशील नेतृत्व की, व्यावहारिक नीतियों की और ईमानदार विकास दृष्टि की। राजनीति में वादे करना आसान है, लेकिन उसे निभाना कठिन होता है। आज बिहार की जनता को यह तय करना होगा कि वह सपनों के व्यापारी को चुनेगी या समाधान के शिल्पी को।
