छठ पूजा का दूसरा दिन — खरना: आत्मशुद्धि, संयम और श्रद्धा का पवित्र आरंभ

Jitendra Kumar Sinha
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छठ पूजा के दूसरे दिन को खरना कहा जाता है, जो इस महापर्व का सबसे महत्वपूर्ण चरण माना जाता है। यह दिन आत्मिक और शारीरिक शुद्धि का प्रतीक है, क्योंकि इसी दिन से व्रती लगभग 36 घंटे के निर्जला व्रत की शुरुआत करता है। खरना के दिन व्रती पूरे दिन निर्जल रहकर शाम को सूर्यास्त के बाद प्रसाद बनाता है, पूजा करता है, और फिर उसी प्रसाद को ग्रहण करके अगले दिन के लिए व्रत आरंभ करता है।


सुबह स्नान कर व्रती मन, वचन और कर्म की शुद्धि का संकल्प लेता है। दिनभर का उपवास मन को संयमित रखने और शरीर को व्रत के लिए तैयार करने का माध्यम होता है। शाम को सूर्यास्त के समय पूजा-स्थान को शुद्ध जल से धोकर तैयार किया जाता है। इसके बाद गुड़, चावल और दूध से खीर, गेहूं के आटे की रोटी या पूरी, और केला प्रसाद के रूप में बनाए जाते हैं। इस प्रसाद को पहले सूर्य देवता और छठी मैया को अर्पित किया जाता है, फिर व्रती खुद ग्रहण करता है। यही वह क्षण होता है जब उपवास समाप्त होता है और साथ ही आगे के निर्जला व्रत की शुरुआत होती है।


खरना का महत्व सिर्फ व्रत की विधि में नहीं, बल्कि इसके भाव में निहित है। यह दिन दर्शाता है कि मनुष्य जब तक अपने भीतर की अशुद्धियों—अहंकार, लोभ, क्रोध, ईर्ष्या—को नहीं त्यागता, तब तक सच्ची भक्ति संभव नहीं। खरना इसी आत्मशुद्धि का प्रतीक है। इस दिन व्रती न केवल सूर्य देवता से आशीर्वाद की कामना करता है बल्कि अपने परिवार, समाज और प्रकृति के कल्याण के लिए भी प्रार्थना करता है।


छठ पर्व की सुंदरता यही है कि इसमें आडंबर नहीं, बल्कि अनुशासन, श्रद्धा और सादगी प्रमुख है। व्रती द्वारा बनाया गया प्रसाद साधारण सामग्री से तैयार होता है, फिर भी उसमें जो पवित्रता और भावना होती है, वही उसे दिव्यता देती है। खरना का दिन इस महापर्व का आत्मिक केंद्र है—जहाँ व्रती स्वयं को संकल्पित करता है और आने वाले दिन की कठिन तपस्या के लिए पूरी तरह समर्पित हो जाता है।


यह परंपरा सदियों से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में चली आ रही है। आधुनिक युग में भी लोग इसे उतनी ही आस्था से निभाते हैं। नदी-तालाबों के किनारे साफ-सफाई, दीप सज्जा, और पारिवारिक एकता इस दिन को एक आध्यात्मिक उत्सव में बदल देती है। खरना के बाद का समय व्रती के लिए पूर्ण तपस्या का होता है, जब वह तीसरे दिन डूबते सूर्य और चौथे दिन उगते सूर्य को अर्घ्य देकर छठी मैया का व्रत पूर्ण करता है।


खरना इस बात का प्रतीक है कि जब मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण पाता है, तभी वह ईश्वर के साक्षात्कार के योग्य बनता है। यही कारण है कि छठ पूजा को केवल धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि अनुशासन, समर्पण और शुद्ध आचरण की साधना कहा जाता है।

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