स्वतंत्रता-संग्राम का गौरव लेकिन वर्तमान में विघटन की ओर अग्रसर है “कांग्रेस”

Jitendra Kumar Sinha
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भारत की आज़ादी का इतिहास लिखते समय यदि किसी संस्था का नाम सबसे पहले आता है, तो वह है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस। यह वही संगठन है जिसने देश के कोने-कोने में स्वतंत्रता की चिनगारियाँ फूंकीं, लाखों जनों को संघर्ष के लिए प्रेरित किया और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक मजबूत जन-आंदोलन को आकार दिया। लेकिन स्वतंत्रता के 75 वर्ष बाद कांग्रेस एक मजबूत राष्ट्रीय पार्टी के बजाय धीरे-धीरे सिमटती, विभाजित होती और कमजोर होती संस्था के तौर पर देखी जाती है। विघटन, अंतरकलह, दिशाहीनता, नेतृत्व संकट, जनाधार का गिरना, और संगठनात्मक मंदी,  यह ऐसे शब्द हैं जो आज कांग्रेस की छवि का हिस्सा बन चुका है।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में ए.ओ. ह्यूम ने की थी। मूल उद्देश्य भारत में राजनीतिक संवाद का मंच तैयार करना था। लेकिन आने वाले दशकों में यह मंच धीरे-धीरे जन-आंदोलन में बदल गया। कांग्रेस ने राजनीतिक जागरूकता को जन-मानस तक पहुँचाया। स्वदेशी आंदोलन, असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह और भारत छोड़ो आंदोलन कांग्रेस के नेतृत्व में हुआ। कांग्रेस देश के गांवों तक पहुँची। किसान, मजदूर, विद्यार्थी, महिलाएं, व्यापारी और बुद्धिजीवी सब कांग्रेस की छत्रछाया में आए। यह भारतीयों की आकांक्षाओं का प्रतीक बन चुका था। 

आज़ादी के बाद कांग्रेस के सामने अचानक एक नयी भूमिका आ खड़ी हुई संघर्ष से शासन तक का सफर।यह परिवर्तन आसान नहीं था। स्वतंत्रता के दौरान जनता से कई वादे किए गए थे गरीबी हटाने, सामाजिक न्याय आर्थिक विकास, शिक्षा का विस्तार, रोजगार, किसान-मजदूरों की उन्नति और औद्योगीकरण।  जनता ने उम्मीद की कि कांग्रेस सत्ता में आकर तुरंत इन वादों को पूरा करेगी। लेकिन प्रक्रियाओं की जटिलता ने इसमें कालांतर में धीमापन लाया। कांग्रेस शासन व्यवस्था में केंद्रीकरण बढ़ा। केंद्र में एक ही दल की सरकार, राज्यों में भी कांग्रेस की ही पकड़ और प्रशासनिक ढांचे पर कांग्रेस की छाप। इससे कांग्रेस एक “संगठन” से ज्यादा “सत्ता-प्रबंधक” संस्था में बदलने लगी।

“पिछले कुछ वर्षों में कांग्रेस के भीतर असंतोष के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे हैं।” यह असंतोष नए नहीं थे। इसके बीज स्वतंत्रता के कुछ वर्षों बाद ही बोए जा चुका था। कांग्रेस के भीतर दो धड़े थे दक्षिणपंथी (राजनीतिक-आर्थिक व्यवहारिकता पर आधारित) और वामपंथी/समाजवादी (आदर्शवाद और जनकल्याण पर आधारित)। जब कांग्रेस समाजवादी पथ को संतुलित ढंग से लागू नहीं कर पाई, तब जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी नेताओं ने कांग्रेस से दूरी बना ली।

स्वतंत्रता आंदोलन में जो नेता बलिदान और त्याग के लिए जाने जाते थे, वे सत्ता मिलने के बाद महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की राजनीति में उलझने लगे। टिकट की राजनीति, मंत्री बनने की इच्छा और संगठन की बजाय गुटों की राजनीति, इन सबने कांग्रेस को अंदर से खोखला किया। वही अनुशासन जिसने आंदोलन को शक्ति दी थी, धीरे-धीरे खत्म होने लगा। कामगारों का प्रभाव घटा। युवा कांग्रेसी नाराज। दिग्गज नेताओं में वैचारिक दूरी और निर्णयों में पारदर्शिता कम होने लगी।

किसी भी राज्य में सत्ता परिवर्तन हो या मंत्री पद की घोषणा, कांग्रेस में गुटबाजी अपने चरम पर पहुंच जाती थी। हर नेता अपने समर्थकों को आगे बढ़ाने में लगा रहता। कांग्रेस उस घर की तरह बनती गई जहाँ दरवाजे दोनों ओर से खुले थे,  जो चाहे आए, जो चाहे चले जाए। यह प्रवृत्ति पार्टी की विचारधारा की कमजोरी को उजागर करती है। जिला इकाइयों में संघर्ष, प्रदेश अध्यक्ष बनाम मुख्यमंत्री, केंद्रीय नेतृत्व बनाम राज्य नेतृत्व, युवा बनाम वरिष्ठ, यह सब मिलकर कांग्रेस को एक “शक्तिशाली संगठन” के बजाय “आंतरिक संघर्षों से जूझती पार्टी” बना देता है।

इंदिरा गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल कांग्रेस के इतिहास की सबसे बड़ी गलती माना जाता है। इससे तीन प्रमुख नुकसान हुए पहला लोकतांत्रिक मूल्यों पर धक्का, दूसरा जनता का भरोसा टूटना, और तीसरा विरोधियों को शक्ति मिलना। 1977 में जनता पार्टी के सामने कांग्रेस को करारी हार मिली। यह पहली बार हुआ कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई। कांग्रेस इस अवधि में कई हिस्सों में बंट गई, कांग्रेस (O), कांग्रेस (I) और कांग्रेस (U)। यह विभाजन कांग्रेस की आंतरिक कमजोरी की कहानी कहता है।

1991 में डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा लाई गई आर्थिक उदारीकरण नीति कांग्रेस के लिए दोधारी तलवार साबित हुई। शहरी लोग खुश हुए, लेकिन ग्रामीण लोगों के बीच असंतोष बढ़ा और परंपरागत वोट-बैंक टूटने लगा। राममनोहर लोहिया की चेतावनी सत्य साबित हुई “कांग्रेस के पतन से क्षेत्रीय दल उभरेंगे।” 1990 के बाद कांग्रेस का वोट लगातार इन दलों में बंटता गया, सपा, बसपा, जदयू, तृणमूल, डीएमके, एनसीपी, वाईएसआर पार्टी और टीआरएस। इन दलों ने कांग्रेस का जनाधार छीन लिया।

कांग्रेस के आलोचक कहते हैं कि पार्टी का सबसे बड़ा संकट है “परिवारवादी राजनीति।” गांधी-नेहरू परिवार ने संगठन के भीतर लोकतांत्रिक नेतृत्व चयन को सीमित कर दिया। पार्टी ने न तो मजबूत क्षेत्रीय नेता बनाए और न ही कोई करिश्माई राष्ट्रीय चेहरा। कांग्रेस में निर्णय प्रक्रिया इतनी धीमी है कि कई मुद्दों पर पार्टी स्पष्ट रुख भी नहीं ले पाती है।

जहां भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), बूथ अध्यक्ष, पन्ना प्रमुख, आईटी सेल, युवा मोर्चा जैसे संगठनों के माध्यम से मजबूत हुई, वहीं कांग्रेस का संगठन बूथ स्तर पर लगभग समाप्त हो गया। 

2000 के बाद कांग्रेस को गुजरात, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और मध्य प्रदेश में लगभग हर राज्य में लगातार नुकसान उठाना पड़ा है।

आज कई लोग पूछते हैं कि “कांग्रेस वामपंथी है, दक्षिणपंथी है या मध्यपंथी?” पार्टी का रुख कई बार अस्पष्ट रहा। इससे भी भ्रम बढ़ा। कांग्रेस के शीर्ष नेता आम जनता से जुड़ने में वैसी ऊर्जा नहीं दिखा पाते हैं जैसी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान थी। 2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की लगातार हार ने पार्टी को नैतिक रूप से कमजोर कर दिया है। कई अनुभवी नेता कांग्रेस छोड़कर अन्य दलों में शामिल हो गए हैं जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया, गुलाम नबी आजाद, अमरिंदर सिंह, हिमंता बिस्वा सरमा, रविन्द्र जडेजा आदि। यह कांग्रेस के भीतर असंतोष का जीता-जागता प्रमाण है। राहुल गांधी की यात्राओं ने कुछ उत्साह जरूर जगाया, लेकिन इसके संगठनात्मक परिणाम सीमित रहे।

संगठन को पुनर्जीवित करना होगा, बूथ स्तर पर संगठन सशक्त बनाना होगा, नए नेताओं को आगे लाना होगा, परिवारवाद से बाहर निकलना होगा और मजबूत निर्णय क्षमता विकसित करना होगा। कांग्रेस को यह तय करना होगा कि उसकी विचारधारा क्या है? समाजवाद?, उदारवाद?, सेकुलरवाद? मध्यपंथ? जनता स्पष्टता चाहती है।  कांग्रेस सफल तब होगी जब जनता से सीधा जुड़ाव बनायेगा।

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विघटन की कहानी केवल एक राजनीतिक दल की कहानी नहीं है, बल्कि यह भारत के राजनीतिक विकास की कथा भी है। कांग्रेस आज मुश्किल दौर से गुजर रही है, लेकिन उसका इतिहास बताता है कि जब-जब कांग्रेस कमजोर हुई, उसने खुद को बदलकर पुनः उभरा है। लेकिन यह तभी संभव है जब संगठन ईमानदारी से आत्मविश्लेषण करे, नेतृत्व परिवर्तन को स्वीकार करे, युवा नेतृत्व को आगे लाए, दलबंदी समाप्त करे और जनता के मुद्दों पर संघर्ष करे। भारत का लोकतंत्र विविधताओं से भरा है। और उसमें कांग्रेस जैसी ऐतिहासिक पार्टी का सक्रिय, मजबूत और जीवंत रहना देश के लोकतांत्रिक स्वास्थ्य के लिए भी आवश्यक है।



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