सुधार बनाम विरासत: आर्य समाज और सनातन की वैचारिक दूरी

Jitendra Kumar Sinha
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भारतीय इतिहास में जितना नुकसान विदेशी आक्रमणकारियों ने खुले युद्ध में नहीं किया, उससे कहीं ज्यादा नुकसान आर्य समाज ने “सुधार” के नाम पर अंदर ही अंदर कर दिया। कमाल यह है कि जो लोग खुद वेदों की भाषा तक ठीक से नहीं समझ पाए, उन्होंने पूरे सनातन को “अवैदिक–वैदिक” के तराजू में तौलने का ठेका उठा लिया। यह वैसा ही है जैसे किसी को हिंदी आती न हो और वह तुलसीदास को संपादित करने बैठ जाए।


आर्य समाज का मूल घमंड ही उसका सबसे बड़ा पाप था—

“हम ही सही, बाकी सब गलत।”

और इसी घमंड ने सनातन के हजारों वर्षों के आध्यात्मिक वैभव को विकृत कर दिया।


भारत ने कभी किसी विचारधारा को अस्वीकार नहीं किया;

लेकिन आर्य समाज ने शुरुआत ही इस नारे से की—
“वेद ही सत्य, बाकी सब झूठ।”

भाई साहब, अगर आपके हिसाब से बाकी सब झूठ है, तो फिर शंकराचार्य से लेकर पतंजलि तक, कश्मीर से बंगाल तक के सिद्ध, नाथ, योगी, शैवाचार्य, शाक्त तांत्रिक—सब मूर्ख थे क्या?

दुर्भाग्य यह कि आर्य समाज ने यह बात पीढ़ियों तक लोगों के दिमाग में ठूंस-ठूंस कर बिठाई।


सबसे पहले बात करते हैं तंत्र की—

जिसे आर्य समाज ने जानबूझकर बदनाम किया, मसला यह नहीं कि वे तंत्र को नहीं समझते थे; असली समस्या यह थी कि उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं थी। तंत्र कोई गली-कूचे का टोटका नहीं था।

तंत्र वह विज्ञान था जिस पर भारतीय मंदिरों की ऊर्जा-व्यवस्था टिकी थी, जहाँ यंत्र, मंत्र, मंडल, प्राण-प्रतिष्ठा, शक्ति-स्थापन—सब उच्च स्तरीय प्रक्रियाएँ थीं।

लेकिन आर्य समाज ने तंत्र को ऐसी छवि दी जैसे यह किसी अंधेरी रात में लाल कपड़ा पहनकर नाचने वाले तांत्रिकों का खेल हो।
क्यों?

क्योंकि वे तंत्र की गहराई से घबराते थे—एक ऐसा ज्ञान जिसे आप केवल किताब से नहीं, अनुभव से समझ पाते हैं।

आर्य समाज के तथाकथित सुधारक इस मार्ग की ऊँचाई को छू भी नहीं सकते थे, इसलिए उसे “कुप्रथा” कहकर खत्म करने में जुट गए।

मूर्ति-पूजा पर उनका विरोध तो और भी हास्यास्पद था।

मूर्ति-पूजा को वे “अज्ञान” कहते रहे, पर यह भूल गए कि मूर्ति हमारी संस्कृति की रीढ़ है—यही मूर्तियाँ मंदिरों को ऊर्जा-चक्रों का केंद्र बनाती हैं, और यही ऊर्जा लाखों साधकों को साधना का माध्यम देती है।

लेकिन आर्य समाज के लोग इस ऊर्जा-तंत्र को समझने की बजाय उसे “पाषाण-पूजा” कहकर मज़ाक उड़ाते रहे।

विडंबना यह कि जिस देश में सदियों से देवी–देवता चेतना के प्रतीक माने जाते थे, वहाँ आर्य समाज ने आकर समझाया—“हम ही असली हैं, बाक़ी सब मूर्ख।”

इसके बाद आता है उनका पुराण-विरोध, देवी-विरोध, शैव-विरोध—मतलब पूरा हिंदू धर्म उनके हिसाब से गलत था; सही केवल वही जो उनकी छोटी-सी समझ में फिट बैठ जाए। और सबसे बुरा यह कि उनकी बातों को सुनकर बहुत लोग अपनी ही परंपरा से शर्माने लगे।

शाक्त, कौल, सिद्ध, नाथ परंपराएँ धीरे-धीरे दबने लगीं क्योंकि उन्हें “अवैदिक” कहा गया।


आर्य समाज ने इतना प्रचार किया कि आम व्यक्ति सोचने लगा—
“अगर यह वैदिक नहीं, तो यह गलत होगा।”
यह मानसिक गुलामी थी, बस सूती कपड़ों में।

आर्य समाज का पूरा ढाँचा एक ही मानसिकता पर टिका था:
सरलीकरण + कट्टरता = सुधार


लेकिन भारतीय धर्म हमेशा “जटिलता + सहिष्णुता = समृद्धि” के सूत्र पर चलता आया है।

आर्य समाज ने इस पूरे समीकरण को उलट दिया। वे यह भूल गए कि वेद केवल जड़ है; वेदांत, तंत्र, योग, आगम, पुराण—ये सब उसकी शाखाएँ हैं। अगर आप शाखाएँ काट देंगे, तो पेड़ ज़िंदा ही कैसे रहेगा?

आर्य समाज ने शास्त्रों का “रीइंटरप्रिटेशन” करने की कोशिश में उन्हें विकृत कर दिया। मूर्खता का यह स्तर देखिए कि वे कहते थे—
“वेद में गायत्री मंत्र है, इसलिए वही सर्वोच्च है।” अरे भाई, वेद लाखों मंत्रों का संग्रह है, गायत्री उसका सिर्फ एक हिस्सा।
लेकिन जब अहंकार ज्ञान पर हावी हो जाए, तो विवेक कहीं दिखाई नहीं देता।


तंत्र को मारने के बाद उन्होंने मंदिरों पर हमला बोला— कहते थे “यज्ञ ही असली साधना।” अगर भारत में मंदिर न होते, तो आज आधे से ज्यादा सांस्कृतिक परंपराएँ मिट चुकी होतीं। लेकिन आर्य समाज की मूर्ति-विरोधी मानसिकता ने मंदिरों की वैज्ञानिकता पर लगातार प्रहार किया।


और इसका दीर्घकालिक प्रभाव? भारत का आम व्यक्ति अपने ही धर्म की गहराई को समझ ही नहीं पाया। तंत्र, जो पश्चिम के शोधकर्ताओं के लिए आज सोने की खान है, भारत में ही बदनाम कर दिया गया।


सबसे दुखद बात— आर्य समाज ने तंत्र की जो छवि बनाई, वह आज भी लोगों के मन में बैठी है। वह भूल गए कि जिसने भी भारत को आध्यात्मिक स्तर पर महान बनाया— कश्मीर का त्रिक दर्शन, बंगाल की काली साधना, तिब्बती तंत्र, कामाख्या, कौलाचार—
ये सब “अवैदिक” नहीं, बल्कि सनातन की गहराई थे।


आर्य समाज ने अपने सीमित बौद्धिक चश्मे से हर चीज़ को नापा और निष्कर्ष निकाला—
“जो हमारे जैसा नहीं, वह गलत.”
यही असली खतरा था।

भारत हमेशा विविधता को सम्मान देता आया था। आर्य समाज ने इस विविधता को ही अपराध बना दिया।


जो नुकसान मुग़लों और ब्रिटिश नहीं कर सके—
तंत्र को सामाजिक रूप से suspect बनाना

वह काम आर्य समाज ने कर दिया।

सनातन की बहुस्तरीय परंपरा को एक सिक्खे की एक साइड जैसा बना दिया—सीधा-सादा, खोखला और अधूरा।

सच यही है— आर्य समाज सनातन का सुधारक नहीं,

उसकी जड़ों पर प्रहार करने वाला आंदोलन था।

जो लोग इसके प्रचार में फँस गए, उन्होंने न केवल अपनी परंपरा खोई, बल्कि उस गहन आध्यात्मिक विज्ञान को भी त्याग दिया, जो आज भी दुनिया को चकित करता है।

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