परिवार को फिर से जोड़ने का सिरीज है - "थोड़े दूर, थोड़े पास"

Jitendra Kumar Sinha
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आज की दुनिया में हम सब ‘कनेक्टेड’ हैं, पर क्या सच में जुड़े हुए हैं? मोबाइल स्क्रीन, टैबलेट और लैपटॉप के बीच हमने अपनों से बातें करना, एक साथ बैठकर हंसना, यहां तक कि आंखों में आंखें डालकर स्नेह जताना भी लगभग भूला दिया है। इसी आधुनिक विडंबना को संवेदनशील और हास्यपूर्ण अंदाज़ में प्रस्तुत करती है नई सिरीज “थोड़े दूर, थोड़े पास”।

कहानी एक ऐसे शहरी परिवार के इर्द-गिर्द घूमती है, जो तकनीक पर इतना निर्भर हो चुका है कि सुबह उठने से लेकर रात सोने तक हर पल डिजिटल डिवाइस से जुड़ा रहता है। बच्चे ऑनलाइन क्लास और गेम में खोए हैं, माता-पिता सोशल मीडिया में मशगूल हैं, और दादा-दादी बस एक कोने में पुराने दिनों को याद करते रहते हैं।

लेकिन एक दिन सब कुछ बदल जाता है, जब किसी कारणवश (या यूं कहें कि एक मजबूरी के चलते) पूरा परिवार तय करता है कि वे कुछ दिनों तक बिना किसी मोबाइल, टीवी या इंटरनेट के रहेंगे। यहीं से शुरू होती है असली कहानी एक मजेदार, दिल छू लेने वाली ‘डिजिटल डिटॉक्स जर्नी’।

निर्देशक अजय भूयान ने इस सिरीज को बेहद संतुलित ढंग से पेश किया है। यह न तो उपदेश देती है, न ही अति-नाटकीय लगती है। बल्कि छोटी-छोटी घटनाओं और संवादों के जरिए यह बताती है कि तकनीक से दूरी कभी-कभी दिलों को करीब लाने का जरिया बन सकती है।

कुणाल रॉय कपूर ने पिता के किरदार में शानदार अभिनय किया है, जो बाहर से कठोर दिखता है पर अंदर से परिवार की चिंता में घुला रहता है। मोना सिंह का सहज और भावनात्मक अभिनय मां के किरदार को वास्तविक बनाता है। वहीं अनुभवी पंकज कपूर अपने खास अंदाज में हर दृश्य में जीवन का नया रंग भर देते हैं।

“थोड़े दूर, थोड़े पास” सिर्फ एक पारिवारिक कॉमेडी नहीं है, बल्कि यह आदतों पर एक हल्का-फुल्का व्यंग्य भी है। यह सिरीज दिखाती है कि आज कैमरे में हर पल कैद करना तो जानते हैं, लेकिन उसी पल को जीना भूल गए हैं। कहानी आगे बढ़ते-बढ़ते सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सच में डिजिटल दुनिया हमें जोड़ रही है या अलग कर रही है?

यह सिरीज हर पीढ़ी के लिए एक दर्पण है। जो माता-पिता अपने बच्चों से बातचीत के लिए भी फोन पर निर्भर हैं, और जो बच्चे दादा-दादी की कहानियों से ज्यादा रील्स में रुचि रखते हैं,  दोनों को यह शो कहीं न कहीं भीतर तक छू जाता है।

“थोड़े दूर, थोड़े पास” यह सिखाती है कि असली कनेक्शन वाई-फाई से नहीं, दिल से बनता है। यह सिरीज हंसाएगी, सोचने पर मजबूर करेगी और शायद  कुछ देर के लिए फोन रखकर परिवार के साथ बैठने का मन बनवायेगी।



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