‘द बंगाल फाइल्स’ सिर्फ एक फिल्म नहीं है, बल्कि उपमहाद्वीप के उस अनदेखे इतिहास का सिनेमाई पुनर्कथन है, जिसे मुख्यधारा की बहसों में अक्सर नजरअंदाज कर दिया गया है। यह ‘दिल्ली फाइल्स’ सीरीज की तीसरी और अंतिम कड़ी है, जो 1946 के दंगों, ‘ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स’ और नोआखाली की हिंसा जैसे भयावह अध्यायों को परत-दर-परत सामने लाती है। निर्देशक ने इस बार बंगाल के उस दौर को चुना है जब सांप्रदायिक तनाव और राजनीतिक उथल-पुथल ने पूरे क्षेत्र को दहला दिया था।
फिल्म की कहानी दो हिस्सों में चलती है। वर्तमान समय में एक ईमानदार और साहसी सीबीआई अधिकारी एक पत्रकार की रहस्यमयी गुमशुदगी की जांच में लगा है। यह पत्रकार स्वतंत्र भारत की राजनीति और बंगाल के इतिहास पर एक महत्वपूर्ण एक्सपोज करने वाला था। जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ती है, अधिकारी खुद को षड्यंत्रों, सत्ता की चालों और सच्चाई को दबाने की कोशिशों के बीच फंसा हुआ पाता है।
इसी के समानांतर, फिल्म दर्शकों को 1946 के बंगाल में ले जाती है, जहां ‘सीधी’ और ‘अप्रत्यक्ष’ हिंसा ने समाज को खून से रंग दिया था। नोआखाली दंगे, डायरेक्ट एक्शन डे, और ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स जैसे भयावह प्रसंग फ्लैशबैक के रूप में कहानी में उभरता है। यह हिस्सा फिल्म का भावनात्मक और ऐतिहासिक केंद्र है, जहां साधारण लोगों की पीड़ा, धार्मिक विभाजन और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का टकराव हृदय को झकझोर देता है।
‘द बंगाल फाइल्स’ में राजनीति गहराई से बुनी गई है। फिल्म दिखाती है कि किस तरह सत्ता और धर्म का घातक गठजोड़ समाज को विभाजित कर देता है। पत्रकार की गुमशुदगी वर्तमान भारत की मीडिया-सत्ता संबंधों पर सवाल उठाती है, जबकि फ्लैशबैक में दिखाया गया रक्तरंजित बंगाल बताता है कि इतिहास हमेशा मौन नहीं रह सकता।
फिल्म में मिथुन चक्रवर्ती एक अनुभवी नेता और उस दौर के साक्षी के रूप में बेहद प्रभावशाली दिखते हैं। उनका अभिनय दृश्यों को विश्वसनीय बनाता है। पल्लवी जोशी एक इतिहासकार और शोधकर्ता के रोल में उभरकर सामने आती हैं, जिनकी प्रस्तुति कथा की बौद्धिक रीढ़ बनती है। दोनों कलाकार भावनात्मक और तथ्यात्मक दोनों स्तर पर फिल्म को मजबूत आधार देता है।
यह फिल्म उन अध्यायों को फिर से जीवित करती है, जिन्हें या तो भुला दिया गया या जिन्हें पढ़ने-समझने की कोशिश कम हुई। यह न सिर्फ इतिहास का आईना है, बल्कि वर्तमान के लिए चेतावनी भी है। फिल्म सवाल पूछती है कि इतिहास के दर्द को दबाने से क्या वह मिट जाता है? क्या सत्ता सच्चाई को अनसुना कर सकती है? और क्या एक पत्रकार की आवाज़ वाकई इतनी खतरनाक होती है?
‘द बंगाल फाइल्स’ एक ऐसी सिनेमाई यात्रा है जो दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है और यही इसकी सबसे बड़ी ताकत है।
