“कामाख्या देवी शक्तिपीठ” देवी सती का योनि गिरा था

Jitendra Kumar Sinha
0


आभा सिन्हा, पटना   


भारत की सांस्कृतिक और आध्यात्मिक भूमि में कई ऐसे स्थान हैं, जिन्हें देवी शक्ति के प्रत्यक्ष अवतारों के रूप में पूजा जाता है। इन्हीं में से एक है “कामाख्या देवी शक्तिपीठ”, जो असम की राजधानी गुवाहाटी के निकट नीलांचल पर्वत पर स्थित है। यह वह स्थान है जहाँ माता सती का योनि भाग पृथ्वी पर गिरा था। इसलिए इसे स्त्री-शक्ति का सबसे पवित्र प्रतीक माना जाता है। यहाँ देवी को कामाख्या कहा जाता है और उनके भैरव को उमानंद नाम से जाना जाता है।

कामाख्या न केवल देवी की शक्ति का केंद्र है, बल्कि यह तांत्रिक साधना, आस्था, रहस्यवाद, और भक्ति का संगम स्थल भी है। यहाँ के मंदिर परिसर में हर वर्ष लाखों श्रद्धालु, साधक और पर्यटक दर्शन करने पहुँचते हैं, विशेषकर अंबुवाची मेले के दौरान जब देवी का मासिक धर्म (रजस्वला) काल मनाया जाता है।

कामाख्या मंदिर की उत्पत्ति की कथा देवी सती और भगवान शिव के अमर प्रेम से जुड़ी है। शिव पुराण और कल्प पुराण के अनुसार, जब दक्ष प्रजापति ने अपने यज्ञ में भगवान शिव का अपमान किया, तो माता सती ने अपने पिता के इस व्यवहार से दुखी होकर योगाग्नि में स्वयं को भस्म कर लिया। इससे क्रोधित होकर शिव ने सती के शरीर को कंधे पर उठाया और तांडव करने लगे। तब विष्णु भगवान ने संसार की रक्षा हेतु अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के टुकड़े कर दिए। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ 51 शक्तिपीठों की स्थापना हुई। इन्हीं में से एक “कामाख्या शक्तिपीठ” है, जहाँ सती की योनि गिरी थी।

यह स्थान इसलिए इतना विशिष्ट है क्योंकि यहाँ देवी के स्त्रीत्व की रचनात्मक शक्ति, अर्थात प्रजनन और सृजन का प्रतीक, पूजित होता है। यहाँ देवी को केवल पूजा नहीं जाता है, बल्कि उन्हें सृजनशक्ति के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार किया जाता है।

कामाख्या मंदिर गुवाहाटी शहर से लगभग ८ किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है। यह पहाड़ी ब्रह्मपुत्र नदी के दक्षिणी तट पर है, और इसकी ऊँचाई लगभग 800 फीट है। चारों ओर हरियाली, गूंजते मंत्र, घंटियों की ध्वनि और तांत्रिक वातावरण इसे एक अद्भुत अनुभव बनाता है।

नीलांचल पर्वत को ‘कामगिरि’ भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है “कामदेव की भूमि”। पौराणिक मान्यता है कि जब शिव के क्रोध से कामदेव भस्म हो गए थे, तो उनकी पत्नी रति के तप से उन्हें इसी पर्वत पर पुनर्जीवित किया गया। इसलिए यह स्थान न केवल शक्ति उपासना का केंद्र है, बल्कि कामदेव और रति के पुनर्मिलन का भी प्रतीक है।

कामाख्या मंदिर का वर्तमान स्वरूप 16वीं सदी में कोच राजा नारायण नारायण द्वारा पुनर्निर्मित कराया गया था। मंदिर में नगरा और अहोम स्थापत्य शैली का सुंदर मिश्रण दिखाई देता है। लाल ग्रेनाइट पत्थरों से बना यह मंदिर ऊपर से गुंबदाकार है, जिसकी आकृति गर्भगृह को शिखर से ढकती है।

मंदिर परिसर में मुख्य मंदिर के अलावा दस महाविद्याओं को समर्पित अन्य देवी मंदिर भी हैं, जिसमें है बगला मुखी, तारा, भुवनेश्वरी, धूमावती, त्रिपुर सुंदरी, भैरवी, मातंगी, कालिका, तारा देवी और कामाख्या स्वयं।  इन सभी को “दस महाविद्याओं का समूह” कहा जाता है। यह परिसर इसलिए विशेष है क्योंकि यहाँ देवी के सभी रूपों की साधना एक ही स्थान पर संभव है।

कामाख्या मंदिर का सबसे बड़ा रहस्य यह है कि यहाँ देवी की कोई मूर्ति नहीं है। गर्भगृह में एक स्वाभाविक चट्टान की दरार है, जिसे योनि कुंड कहा जाता है। यह दरार हमेशा जल से नम रहती है। यह जल एक पवित्र झरने से आता है, जिसे देवी के रक्तस्राव का प्रतीक माना जाता है।



देवी की मूर्ति की अनुपस्थिति यह दर्शाती है कि यहाँ शक्ति का पूजा किसी रूप या आकार में नहीं, बल्कि ऊर्जा और सृजन के तत्व के रूप में होता है। यही कारण है कि यह स्थान तांत्रिक सिद्धियों का केंद्र माना जाता है।

कामाख्या मंदिर का सबसे प्रसिद्ध उत्सव है अंबुवाची मेला, जिसे “देवी का मासिक धर्म पर्व” भी कहा जाता है। यह हर वर्ष आषाढ़ मास (जून के अंत) में मनाया जाता है। इस दौरान माना जाता है कि देवी पृथ्वी के साथ एकात्म होकर रजस्वला (मासिक धर्म) अवस्था में प्रवेश करती हैं।

तीन दिनों तक मंदिर के द्वार बंद रहते हैं, और कोई भी दर्शन नहीं कर सकता है। चौथे दिन जब द्वार खुलता हैं, तो देवी को “शुद्धिकरण स्नान” कराया जाता है और श्रद्धालुओं को लाल वस्त्र का टुकड़ा “प्रसाद” के रूप में दिया जाता है। इसे “अंबुवाची प्रसाद” कहा जाता है, जो अत्यंत पवित्र माना जाता है।

यह मेला स्त्रीत्व की प्राकृतिक शक्ति का उत्सव है, जो जीवन, सृजन और पुनर्जन्म का प्रतीक है। यहाँ देवी को न केवल आराधना की दृष्टि से देखा जाता है, बल्कि स्त्री शरीर की जैविक शक्ति के सम्मान के रूप में पूजा जाता है।

कामाख्या मंदिर को भारत का सबसे प्रमुख तांत्रिक पीठ माना जाता है। यहाँ काली, भैरवी, तारा, बगला मुखी जैसे देवी रूपों की साधना की जाती है। कई तांत्रिक साधक रात्रिकालीन अनुष्ठान करते हैं, जिनमें मंत्र, यंत्र, तंत्र और ध्यान का समावेश होता है। माना जाता है कि यहाँ साधना करने से कुंडलिनी शक्ति का जागरण होता है। देवी कामाख्या स्वयं मूलाधार चक्र की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं, जहाँ से जीवन ऊर्जा की शुरुआत होती है। इसलिए तांत्रिक साधक कहते हैं कि “कामाख्या में साधना का अर्थ है, चेतना का पुनर्जन्म।”

‘कामाख्या’ नाम का संबंध स्वयं कामदेव से है। कथा है कि जब भगवान शिव ने कामदेव को भस्म किया, तो उनकी पत्नी रति ने कठिन तप किया। तब कामदेव का शरीर इसी पर्वत पर पुनः प्रकट हुआ। इसलिए इस स्थान को कामगिरि कहा गया, और देवी को “काम” की अधिष्ठात्री अर्थात कामाख्या नाम मिला।

कामाख्या देवी को “काम की ऊर्जा” का स्रोत कहा गया है, पर यहाँ “काम” का अर्थ भोग नहीं है, बल्कि सृजन की इच्छा है। यह सृष्टि की मूल प्रेरणा है, वही शक्ति जो संसार को गति देती है।

कामाख्या मंदिर परिसर में दस महाविद्याओं की उपासना की जाती है, जो शक्ति के दस स्वरूप हैं। काली- विनाश और पुनर्जन्म की देवी। तारा- करुणा और मार्गदर्शन की देवी। त्रिपुर सुंदरी- सौंदर्य और आनंद की प्रतीक। भुवनेश्वरी- ब्रह्मांड की अधिष्ठात्री। भैरवी-  भय से मुक्ति देने वाली। छिन्नमस्ता- आत्मबल की देवी। धूमावती- वैराग्य की अधिष्ठात्री। बगला मुखी-  शत्रु नाशिनी शक्ति, मातंगी- कला और ज्ञान की देवी, कमला- लक्ष्मी रूपी संपन्नता की प्रतीक। कामाख्या को इन सभी का केंद्र कहा गया है, जहाँ शक्ति के सभी रूप एक साथ उपस्थित हैं।

कामाख्या मंदिर ने असम की सांस्कृतिक, धार्मिक और लोक परंपराओं को गहराई से प्रभावित किया है। यहाँ के लोकगीत, बिओल (विवाह गीत), और भक्ति संगीत में देवी कामाख्या का नाम बार-बार आता है। मंदिर परिसर में शंख, घंटी, और मृदंग की ध्वनियाँ पूरे वातावरण को आध्यात्मिक बना देती हैं। गुवाहाटी का नाम भी “गुवाहाटी” (गुहा + हाटी) यानि “गुफाओं का नगर” कहा जाता है, क्योंकि नीलांचल की पहाड़ियों में देवी से जुड़ी अनेक गुफाएँ हैं।

कामाख्या मंदिर न केवल धार्मिक दृष्टि से, बल्कि दार्शनिक और सामाजिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह एकमात्र ऐसा स्थान है जहाँ स्त्री शरीर की प्राकृतिक प्रक्रिया को पवित्रता का प्रतीक माना जाता है। यह संदेश देता है कि सृजन की प्रक्रिया पवित्र है, शर्म या पाप नहीं। इस परंपरा ने भारत की ‘देवी संस्कृति’ को और गहरा बनाया है जहाँ स्त्री को केवल पूजनीय नहीं, बल्कि सृजन की शक्ति का प्रतीक माना गया है।

कामाख्या मंदिर में प्रवेश करने से पहले श्रद्धालु स्नान करते हैं। मंदिर में प्रवेश के पश्चात सबसे पहले योनि कुंड के दर्शन किए जाते हैं। वहाँ जल में पुष्प, वस्त्र, और नारियल अर्पित किए जाते हैं। कई श्रद्धालु यहाँ कुमारी पूजन भी करते हैं, जो कन्या रूप में देवी की आराधना का प्रतीक है। मंदिर के आसपास अनेक संतों के आश्रम और धर्मशालाएँ हैं, जहाँ साधक तप और ध्यान करते हैं।

कहा जाता है कि कामाख्या की धरती पर पहुंचते ही एक अद्भुत ऊर्जा का अनुभव होता है। यहाँ का वातावरण ऐसा है जो मन और चेतना दोनों को रूपांतरित करता है। कई साधक कहते हैं कि यहाँ ध्यान में बैठने पर कुंडलिनी जागरण का अनुभव होता है। कामाख्या की शक्ति केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, यह मानव अस्तित्व की गहराई तक उतरने वाली चेतना है, जो हमें हमारी सृजनात्मक क्षमता से जोड़ती है।

कामाख्या देवी का यह शक्तिपीठ केवल एक मंदिर नहीं है, बल्कि प्रकृति, नारी और शक्ति का त्रिवेणी संगम है। यहाँ देवी केवल पूजा की प्रतीक नहीं है, बल्कि जीवन की सार्थकता का प्रतीक हैं। यह स्थान याद दिलाता है कि सृजन, करुणा और शक्ति, तीनों ही स्त्री स्वरूप में निहित हैं।



एक टिप्पणी भेजें

0टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Ok, Go it!) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Ok, Go it!
To Top