बिहार विधानसभा चुनाव 2025 - चुनाव परिणाम बतायेगा कि आधी आबादी के हाथों में था सत्ता का संतुलन

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार की राजनीति सदैव देश के लिए एक प्रयोगशाला रही है, जहां विचारधाराओं का टकराव हुआ है, जातिगत समीकरणों ने सत्ता के समीकरण तय किया और सामाजिक न्याय के नाम पर कई राजनीतिक ध्रुव बने। 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव उसी राजनीतिक मंथन का नवीन अध्याय है। यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का नहीं है, बल्कि मानसिकता के परिवर्तन का भी सूचक है।

बिहार का मतदाता जब मतदान केंद्र पर जाता है, तो उसके मन में केवल जाति या धर्म का विचार नहीं, बल्कि शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा और सम्मान का प्रश्न भी गूंजता है। यह वही बिहार है जो कभी जातिवाद की छाती पर नाचने वाली राजनीति के लिए बदनाम था, पर अब वही आधी आबादी, यानि महिलाएँ, राजनीति की दिशा तय करने लगी हैं।

बिहार की राजनीति को समझना हो तो जाति समीकरणों को समझना अनिवार्य है। स्वतंत्रता के बाद से ही यहां ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव, कुर्मी, दलित और मुसलमान जैसे वर्गों ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र बनाया। 1950 से 1980 तक कांग्रेस ने इन जातीय समीकरणों का संतुलन साधे रखा, लेकिन 1990 के दशक में लालू प्रसाद ने "MY समीकरण" यानि मुस्लिम-यादव गठजोड़ के सहारे सामाजिक न्याय की राजनीति का नया अध्याय लिखा। लालू प्रसाद का नारा था कि "भूरा बाल साफ करो" (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला), उस दौर की जातीय उथल-पुथल का प्रतीक था।

फिर आया नीतीश कुमार का दौर। उन्होंने "विकास के साथ सामाजिक संतुलन" की नीति अपनाई और "सात निश्चय योजना", साइकिल योजना, मुख्यमंत्री कन्या उत्थान योजना जैसी नीतियों से महिलाओं और युवाओं को राजनीति के केंद्र में ला खड़ा किया। लेकिन 2025 का यह चुनाव इन दोनों ही पुरानी परंपराओं से आगे बढ़ता दिखता है, क्योंकि इस बार जाति नहीं, जनमत और लिंग नहीं, नेतृत्व की क्षमता निर्णायक बन गई है।

11 नवंबर 2025 को बिहार विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण का मतदान हुआ। इस चरण में 20 जिलों की 122 सीटों पर मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। यह जिला बिहार के विविध भौगोलिक और सामाजिक परिदृश्य को दर्शाता है। मगध की ऐतिहासिक भूमि, सीमांचल की मुस्लिम बहुल बस्तियाँ, कोसी की बाढ़ग्रस्त धरती, तिरहुत की खेती प्रधान संस्कृति और शाहाबाद की राजनीतिक सजगता, सब मिलकर बिहार की राजनीति का जीवंत चित्र बनाता है।

दूसरे चरण में करीब 3 करोड़ 70 लाख मतदाता पंजीकृत थे, लगभग 1.90 करोड़ पुरुष, 1.80 करोड़ महिलाएँ, और करीब 1.5 लाख प्रथम बार मतदान करने वाले युवा।

महिलाओं का मतदान उत्साहजनक रहा। दोपहर तक 56% मतदान और शाम तक लगभग 63.8% मतदान दर्ज किया गया। कई क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों से अधिक रही है जैसे गया, दरभंगा, मधेपुरा और पूर्णिया जिलों में महिलाओं ने मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यह आँकड़ा इस बात का संकेत है कि बिहार की आधी आबादी अब मूक दर्शक नहीं, सक्रिय निर्णायक बन चुकी है।

बिहार की महिला मतदाता अब केवल लाभार्थी नहीं रहीं, वे नीतिनिर्माता बनने की दिशा में आगे बढ़ रही हैं। 2010 के बाद से नीतीश कुमार की योजनाओं ने महिलाओं में राजनीतिक चेतना का प्रसार किया। साइकिल योजना ने शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया, आरक्षण ने पंचायतों में नेतृत्व का अवसर दिया, और शराबबंदी ने सामाजिक सशक्तिकरण का भाव जगाया।

आज की महिला मतदाता केवल किसी नेता के चेहरे से प्रभावित नहीं होती है, वह घर की अर्थव्यवस्था, बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा और सुरक्षा को प्राथमिकता देती है। इसी कारण से 2025 के इस चुनाव में हर दल ने महिलाओं को साधने की कोशिश की।

एनडीए ने “लक्ष्य–लक्ष्मी” योजना के तहत महिलाओं के बैंक खातों में सीधे सहायता राशि का वादा किया। महागठबंधन ने “महिला स्वाभिमान भत्ता” का नारा दिया और छोटे दलों ने महिला उद्यमिता के लिए आसान ऋण योजनाओं की घोषणा की। इस बार चुनावी रणनीतियों में महिला-केन्द्रित घोषणाएँ केवल प्रतीक नहीं, बल्कि निर्णायक साबित हो सकती हैं।

बिहार की लगभग 65% आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है। इन युवाओं के लिए रोजगार, शिक्षा और पलायन तीन सबसे बड़े मुद्दे हैं। जहां 1990 के दशक में युवा जाति पहचान के साथ वोट डालते थे, वहीं आज का युवा “कैरियर पहचान” के साथ वोट करता है।

राज्य के विश्वविद्यालयों में लंबित परीक्षाएँ, प्रतियोगी परीक्षाओं में धांधली, और रोजगार के सीमित अवसरों ने युवाओं में असंतोष पैदा किया है। इसीलिए 2025 का यह चुनाव युवाओं के लिए सिर्फ राजनीति नहीं, आत्मसम्मान का प्रश्न बन गया है।

एनडीए ने “मेड इन बिहार” अभियान के तहत औद्योगिक निवेश और आईटी पार्क की योजनाएँ पेश की हैं। महागठबंधन ने “रोजगार अधिकार” का वादा करते हुए एक वर्ष में 20 लाख नौकरियाँ देने का ऐलान किया है। वहीं छोटे दल, विशेषकर जन अधिकार पार्टी और वीआईपी पार्टी, युवाओं को “नए विकल्प” के रूप में आकर्षित कर रही हैं। युवा मतदाता अब केवल नारा नहीं, नतीजा चाहता है और यही परिवर्तन बिहार की राजनीति को नए युग में ले जा रहा है।

बिहार ने जातिवाद को कभी पूरी तरह छोड़ा न हो, पर उसकी परिभाषा बदल चुकी है। अब जाति राजनीति की पहचान नहीं, बल्कि पहचान की राजनीति बन गई है। आज यादव या कुर्मी केवल जातीय प्रतिनिधि नहीं हैं, बल्कि विकास मॉडल के सहभागी बनना चाहते हैं। दलित और महादलित वर्ग सामाजिक न्याय की बात तो करते हैं, पर साथ में आर्थिक न्याय की भी अपेक्षा रखते हैं।

सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम मतदाता पारंपरिक रूप से महागठबंधन के पक्ष में माने जाते हैं, लेकिन इस बार त्रिकोणीय मुकाबले ने स्थिति बदल दी है। एआईएमआईएम, आरजेडी और कांग्रेस तीनों में मतों का बँटवारा स्पष्ट दिखता है।

मगध और शाहाबाद क्षेत्र में भूमिहार और ब्राह्मण मतदाता एनडीए के साथ परंपरागत रूप से जुड़े रहे हैं, परंतु स्थानीय असंतोष और उम्मीदवार चयन ने कई सीटों पर तस्वीर धुंधली कर दी है। कोसी और तिरहुत में यादव-कुर्मी वर्चस्व की टक्कर है, जो महागठबंधन और एनडीए दोनों के लिए निर्णायक बन सकती है। जातिवाद का यह नया स्वरूप अब नकारात्मक नहीं है, बल्कि व्यावहारिक पहचान के रूप में उभर रहा है।

एनडीए ने इस चुनाव में विकास और सुशासन को अपना मुख्य मुद्दा बनाया है। नीतीश कुमार ने अपनी विश्वसनीयता और स्थिर शासन को आगे रखा है, जबकि भाजपा ने “विकसित बिहार, आत्मनिर्भर बिहार” का नारा दिया है। मोदी-नीतीश की जोड़ी एक बार फिर साथ है, परंतु स्थानीय स्तर पर टिकट वितरण और नेतृत्व संघर्ष ने संगठनात्मक चुनौतियाँ खड़ी की हैं।

तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन “परिवर्तन की लहर” पर सवार है। तेजस्वी का मुख्य नारा था “नया सोच, नया बिहार”  युवाओं में लोकप्रिय हुआ है। उन्होंने बेरोजगारी, शिक्षा और भ्रष्टाचार को केंद्र में रखकर सरकार पर सीधा हमला बोला है। कांग्रेस और वामदलों के जुड़ने से महागठबंधन को बौद्धिक वर्ग और अल्पसंख्यक मतदाताओं का समर्थन मिला है।

छोटे दल बिहार की राजनीति में किंगमेकर की भूमिका निभाते आए हैं। उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएसपी, मुकेश सहनी की वीआईपी, पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम। इन सभी ने सीमांचल और कोसी क्षेत्र में पारंपरिक समीकरणों को तोड़ दिया है। इन दलों का प्रभाव भले सीमित हो, परंतु 10-15 सीटों पर इनका प्रदर्शन सत्ता के गणित को उलट सकता है।

पहली बार बिहार चुनाव में डिजिटल प्रचार इतनी मजबूती से उभरा है। ग्रामीण इलाकों में मोबाइल और इंटरनेट की बढ़ती पहुँच ने व्हाट्सऐप, फेसबुक और इंस्टाग्राम को प्रमुख मंच बना दिया है। राजनीतिक दलों ने “वर्चुअल रैली”, “लाइव डिबेट” और “डिजिटल प्रचार अभियान” के माध्यम से सीधा संवाद स्थापित किया है।

महिलाएँ भी अब सोशल मीडिया पर अपनी राजनीतिक राय रखने लगी हैं। यह बिहार के सामाजिक परिवर्तन का संकेत है।

तेजस्वी यादव के “लाइव वीडियो संवाद” और नीतीश कुमार के “विकास रिपोर्ट कार्ड” ने ऑनलाइन मतदाताओं को जोड़ने में बड़ी भूमिका निभाई है।

ग्रामीण बिहार में आज भी जातीय निष्ठा और स्थानीय नेतृत्व का असर गहरा है। वहीं शहरी इलाकों में युवा और शिक्षित मतदाता रोजगार, विकास और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर वोट डाल रहे हैं। पटना, गया, भागलपुर, दरभंगा जैसे शहरों में मुद्दा “भविष्य” है, जबकि गाँवों में मुद्दा “पहचान” बना हुआ है। यह विभाजन आने वाले वर्षों में बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा ट्रेंड तय कर सकता है,  जहाँ शहर “आर्थिक एजेंडा” तय करेगा, वहीं गाँव “सामाजिक संतुलन” बनाए रखेगा।

बिहार की जनता इस बार “स्थायित्व बनाम परिवर्तन” की दुविधा में खड़ी है। एनडीए को नीतीश के अनुभव और भाजपा की संगठनात्मक शक्ति का लाभ है, महागठबंधन को युवाओं और अल्पसंख्यक मतदाताओं का मजबूत समर्थन मिल रहा है, और छोटे दलों के प्रदर्शन से त्रिकोणीय मुकाबला बन गया है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यदि महिलाओं और प्रथम बार मतदान करने वाले युवाओं का मतदान अनुपात निर्णायक रहा, तो बिहार की सत्ता इस बार “आधी आबादी” के इशारे पर तय होगी।

बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का प्रश्न नहीं, बल्कि मानसिकता के पुनर्निर्माण का प्रतीक है। यह चुनाव बताता है कि अब जातिवाद की राजनीति अपनी सीमा पर पहुँच चुकी है और जनता “काम के आधार पर पहचान” चाहती है। महिलाओं की सक्रियता, युवाओं की आकांक्षाएँ और सोशल मीडिया की जागरूकता ने बिहार को एक नई राजनीतिक चेतना दी है। अब यह राज्य केवल इतिहास के बोझ से नहीं, भविष्य की संभावनाओं से परिभाषित होगा।

14 नवंबर को जब परिणाम आएंगे, तब यह तय होगा कि क्या बिहार फिर से पुरानी राह पर लौटेगा या  नए जनमत के साथ एक नए बिहार की शुरुआत करेगा। एक बात निश्चित है इस बार की जीत केवल किसी दल की नहीं होगी, बल्कि उस बदलते मतदाता की होगी, जिसने जातिवाद की छाया से निकलकर लोकतंत्र की रोशनी को चुना है।



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