बिहार की राजनीति - कांग्रेस की हार - 2025 के जनादेश का सच

Jitendra Kumar Sinha
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बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के नतीजे सामने आए हैं 15 दिन हो चुके हैं, मगर राजनीतिक गलियारों की गर्मी कम होने का नाम नहीं ले रही है। हवा में एक सवाल स्थायी रूप से तैर रहा है कि “कांग्रेस इतनी बुरी तरह क्यों हारी?” कागजों की ढेर, टीवी स्क्रीन पर दिखते वोट शेयर के ग्राफ, नेताओं के चेहरे पर तनाव, और बयानबाजी के भीतर छिपी कड़वाहट। यह सब संकेत देता है कि कांग्रेस एक बार फिर हार के बाद आत्ममंथन की नाटक-परंपरा निभा रही है।

लेकिन बिहार के किसी भी आम नागरिक से, किसी चायवाले, रिक्शेवाले, या किसी युवा छात्र से पूछ लीजिए। वह पूरी स्पष्टता से बता देगा कि कांग्रेस क्यों हारी। जनता का जवाब सरल होगा और सटीक भी। लेकिन राजनीति का दस्तूर है कि “सच्चाई जितनी सामने खड़ी होती है, नेता उतनी ही उससे आंख चुराते हैं।”

इसीलिए समीक्षा बैठकों का लंबा सिलसिला शुरू होता है, रिपोर्टें बनती हैं, दोष दूसरे दलों, गठबंधन सहयोगियों, मीडिया, ईवीएम, या मौसम तक पर डाल दिया जाता है। बस वह एक व्यक्ति, वह एक “मुख्य नेतृत्व” अक्सर इन रिपोर्टों में स्पर्शहीन बना रहता है।

कांग्रेस बिहार में 61 सीटों पर चुनाव लड़कर सिर्फ 6 पर अपना झंडा फहराने की खोज में जुटी पार्टी आज तक यह स्वीकार नहीं कर सकी है कि उसकी जमीन खो चुकी है और कारण उसकी अपनी गलतियां हैं।

कांग्रेस की केंद्रीय समिति समीक्षा बैठक में 6 सीटों की जीत के पीछे छिपे संभावित “उपलब्धि” के तत्व खोजना। यह सुनने में ही विडंबना है। 61 से सिर्फ 6 सीटें और फिर भी समीक्षा का ढोंग। राजनीति में समीक्षा का अर्थ होता है, गलती स्वीकार करना, कारणों की खोज करना और सुधार की रणनीति बनाना। 

लेकिन कांग्रेस के संदर्भ में समीक्षा का अर्थ होता है  “अपने नेतृत्व के खिलाफ कुछ न बोलना, सहयोगी दल या कार्यकर्ताओं को दोष देना और अंत में भविष्य के लिए एक खोखला संकल्पपत्र जारी कर देना।”

कांग्रेस इतनी गहराई से समीक्षा करने की तैयारी की जैसे कोई इतिहास का सबसे जटिल सवाल हल करने जा रही हो। जबकि बिहार का कोई भी बच्चा, कोई भी पहला मतदाता, बिना किसी विस्तृत विश्लेषण के बता सकता है कि हार क्यों हुई। अगर कांग्रेस सच में पूछ लेती, तो जवाब वही आता “कारण राहुल गांधी की रणनीतिक असफलताएँ, पार्टी नेतृत्व की कार्यशैली, संदेश की कमजोरी और युवाओं से दूरी।” लेकिन इस सच्चाई को स्वीकार करने की हिम्मत किसी कांग्रेसी में है? यह सवाल बेहद भारी है।

2025 के चुनाव में पूरी 243 सीटों में कांग्रेस सिर्फ 3 सीटों पर वास्तविक मुकाबले में दिखी। बाकी 58 सीटों पर वह सिर्फ उपस्थिति भर दर्ज करा रही थी, लड़ाई में कहीं थी ही नहीं। उसके बाद खैरात में मिली 3 सीटें, जिन्हें वह यदि “उपलब्धि” बताए, तो यह लोकतंत्र का मजाक होगा।

दुर्भाग्य है कि एक समय देश की राजनीति को दिशा देने वाली पार्टी आज बिहार में अपनी प्रतिष्ठा के लिए वोट नहीं, बल्कि सद्भावना आधारित सीटें तलाश रही है और फिर भी समीक्षा बैठकें यह दिखाने की कोशिश करती हैं कि कांग्रेस किसी बड़ी लड़ाई में शामिल थी। पराजय को पराजय कहना भी एक साहस है, जो आज कांग्रेस में दिखाई नहीं देता है।

यह कहना राजनीतिक रूप से कितनी भी कठोर बात हो, लेकिन पार्टी के भीतर ही कई वरिष्ठ नेता चुपचाप स्वीकार करते हैं कि “बिहार में कांग्रेस की हार का मुख्य कारण राहुल गांधी खुद हैं।” राहुल गांधी का भाषण कई बार भावनाओं से अधिक उत्तेजना और नकारात्मकता से भरा दिखाई दिया। भाषा में “हम बनाम वे” का स्वर तो था, मगर उसमें विश्वसनीयता नहीं थी। राजनीतिक आलोचना जब निजी कटाक्ष और अनियंत्रित व्यंग्य बन जाती है, तो जनता उससे दूरी बना लेती है।

तेजस्वी यादव अपनी अलग रणनीति पर चल रहे थे, और यदि उन पर अकेले भरोसा किया जाता, तो शायद महागठबंधन को थोड़ा बेहतर प्रदर्शन मिल जाता। लेकिन राहुल गांधी का “कॉकटेल भाषण” तेजस्वी की मेहनत पर भारी पड़ गया। बिहार के मतदाता भावनात्मक तो हैं, पर वे स्थिर और व्यवहारिक भी हैं। वे ऐसे नेतृत्व को पसंद नहीं करते जो चुनावी रैलियों में सिर्फ शोर ले आए, दिशा नहीं।

राहुल गांधी की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे जनता का “नब्ज” नहीं पकड़ पाए। जिन मुद्दों को वह राष्ट्रीय स्तर पर उठाते हैं, वे बिहार के जमीन से जुड़े प्रश्नों से अलग होता है। बेरोजगारी, प्रवास, कृषि संकट, शिक्षा, यह बिहार का असल मुद्दा है। लेकिन भाषणों में अधिकतर राष्ट्रीय राजनीति के अमूर्त विचार उठाए गए, जिनसे बिहार का युवा कनेक्ट ही नहीं कर पाया।

कांग्रेस में सच बोलना अपराध है। जो सच बोलेगा, वह पार्टी में हाशिए पर धकेल दिया जाएगा। साथ ही साथ, पार्टी में चाटुकार संस्कृति इतनी गहरी पैठ बना चुकी है कि कोई नेता राहुल गांधी की रणनीति पर सवाल उठाने की हिम्मत नहीं करता है। जनता की आंखें सब देख रही हैं। आज बिहार के गांव-गांव में चर्चा है कि “कांग्रेस पार्टी खुद के अंदर झांकने को तैयार नहीं है, तो जनता उसे क्यों वोट दे?” कांग्रेस के नेता हार को स्वीकार करने के बजाय रिपोर्टों में बहाने ढूंढते हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि बिहार की जनता ने कांग्रेस को उसी रूप में देखा, जैसा वह वास्तविकता में है कमजोर संगठन, अप्रभावी नेतृत्व, और जमीन से कटे हुए निर्णय।

राहुल गांधी आज 56 वर्ष के हो चुके हैं। राजनीति में दो दशक पूरे हो चुके हैं। लेकिन क्या उन्होंने जनता की नब्ज पढ़ना सीखा? या यह कहना अधिक सही होगा कि जनता ने उनके “वृहद वृत्ति” यानि उनके बड़े विचारों को अब तक समझने से इनकार कर दिया है? सवाल गूढ़ है। क्योंकि या तो जनता उनसे कनेक्ट नहीं कर पाई, या राहुल गांधी जनता से कनेक्ट नहीं कर पाए। दोनों ही स्थितियाँ राजनीतिक विफलता के प्रत्यक्ष संकेत हैं।

राहुल गांधी अक्सर कहते हैं कि यह चुनाव व्यवस्था गलत है, मीडिया गलत है, उद्योगपति गलत हैं। लेकिन क्या कभी उन्होंने यह स्वीकार किया कि रणनीति गलत है? संदेश गलत है? टीम गलत है?  कार्यान्वयन गलत है? नेतृत्व वहीं सफल होता है जहां आलोचना आत्म-समीक्षा बनती है। लेकिन कांग्रेस में आलोचना को विद्रोह माना जाता है।

बिहार कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या राहुल गांधी नहीं है, बल्कि उसकी संगठनात्मक जर्जरता भी है। कई जिलों में पार्टी का कोई सक्रिय ढांचा नहीं है। युवा नेता हैं, पर उन्हें मंच नहीं मिलता। वरिष्ठ नेता हैं, पर उनमें ऊर्जा नहीं है। कार्यकर्ता हैं, पर उनमें भरोसा नहीं है। जब किसी पार्टी का नेतृत्व दिल्ली से बैठकर बिहार के लिए रणनीति बनाता है और स्थानीय जमीनी नेताओं की बात अनसुनी कर देता है, तब परिणाम वही आता है जो 2025 में आया “अस्तित्व संकट।”

महागठबंधन ने चुनाव में संघर्ष किया है, लेकिन कांग्रेस इसका कमजोर कड़ी बनी रही। सीटें कम थीं, लड़ाई कठिन थी, लेकिन कांग्रेस ने अपनी सीमा तय कर ली थी। तेजस्वी यादव और अन्य दलों की पूरी कोशिश रही कि महागठबंधन मजबूत दिखे, लेकिन कांग्रेस के कमजोर प्रदर्शन ने गठबंधन की छवि भी खराब की। तेजस्वी यादव का कोर वोटर, खासकर युवा वर्ग, हमेशा कांग्रेस से दूरी बनाए रखता है। जब दोनों एक मंच पर आते हैं, तो जनता के बीच एक मिश्रित perception बनता है कि “तेजस्वी यादव ठीक हैं, लेकिन कांग्रेस का बोझ भारी है।” यही perception 2025 के चुनाव में भी दिखा।

बिहार में 2025 का जनादेश यह साफ बताता है कि “फैनबेस” और “वोटबेस” में फर्क होता है। राहुल गांधी का फैनबेस सोशल मीडिया पर दिखाई देता है, लेकिन वोटबेस जमीन पर बनता है जहां कांग्रेस का प्रभाव लगभग शून्य है। जनता अब सिर्फ भावनाओं में वोट नहीं देती है। युवाओं ने इस बार Skill, रोजगार, स्थानीय नेतृत्व, विकास और भविष्य की रणनीति पर वोट किया है। कांग्रेस का कोई भी मुद्दा इस नई सोच से मेल नहीं खाया। यह प्रश्न जटिल है, लेकिन असंभव नहीं। 

कांग्रेस चाहे तो खुद को फिर खड़ा कर सकती है, लेकिन कुछ कठोर कदमों की आवश्यकता है कि नेतृत्व की आलोचना को विद्रोह नहीं माना जाए। युवाओं को आगे बढ़ाया जाए। जमीनी नेताओं को अधिकार दिए जाएं। बिहार के मुद्दे बिहार के नेताओं से तय कराए जाएं। कांग्रेस को गठबंधन में अपनी भूमिका का ईमानदार मूल्यांकन करना होगा। 3 सीट वाले दल कभी भी गठबंधन में निर्णय निर्माता नहीं बन सकता है। कांग्रेस को वैचारिक, बौद्धिक भाषा से बाहर निकलकर जमीन की भाषा अपनानी होगी सीधी, सरल, स्पष्ट।



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